बुधवार, 22 अप्रैल 2015

नाट्य प्रस्तुति में आनेवाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएं



नाट्य प्रस्तुति एक जटिल सामूहिक कार्य है. इसके स्वरुप का सामूहिक और जटिल होना ही प्रस्तुति प्रक्रिया के तीनों भागों (preproduction, production & postproduction) में विभिन्न स्तरों पर समस्याएँ उत्पन्न करती है. ऐसी समस्याओं में से कुछ समस्याएँ हमारी आँखों के सामने स्पष्ट होती हैं तो कुछ परोक्ष भी होती हैं. इन्हें ही क्रमशः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएँ कहा जाता है. नाट्य प्रस्तुति के दौरान आनेवाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएँ निम्नलिखित हैं.
प्रत्यक्ष समस्याएँ :

  • वित्त की व्यवस्था : संसार का कोई भी महत्वपूर्ण कार्य वित्त के आभाव में नहीं हो सकता है. नाट्य प्रस्तुति भी इसका अपवाद नहीं है. इसके लिए भी सबसे पहले धन की ही जरूरत होती है. धन की व्यवस्था कोई आसन काम नहीं हैं. व्यावसायिक नाट्य संस्थाएं टिकट बेचकर धन कमाती है. लेकिन शौकिया नाट्य संस्थाओं के लिए धन की व्यवस्था सर्वप्रमुख समस्या होती है. उन्हें सरकारी ग्रांट के भरोसे ही रहना पड़ता है. किसी भी नाट्य संस्था को जल्दी-जल्दी सरकारी ग्रांट तो मिल नहीं सकता है. इसलिए वे लम्बे समय अंतराल के बाद ही प्रदर्शन कर पाती है. सरकार से मिला ग्रांट इतना पर्याप्त नहीं होता है कि उससे कोई बहुत बड़ी और भव्य  प्रस्तुति करने के बाद कलाकारों को भी उचित पारश्रमिक दिया जा सके. इस कारण से शौकिया नाट्य संस्थाएं ना तो बेहद अच्छी प्रस्तुति दे पाती है और न ही कलाकारों को उचित पारश्रमिक दे पाती है. आज व्यवसायिक नाट्य संस्थाओं की भी स्थिति अच्छी नहीं है. देश भर की कुछ चुनिंदा संस्थाओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश संस्थाएं अर्थाभाव से जूझ  रही है. इन सब कारणों से कलाकार नाटक का रूख न करके फिल्मों की ओर जाते हैं. या फिर नाटक को फिल्मों की तरफ जानेवाली सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते है. यह सारी स्थिति नाटक के भविष्य के लिए शुभ नहीं है और इसका कारण अर्थाभाव ही है
  • प्रशिक्षित कलाकारों का आभाव : नाट्य प्रस्तुति के लिए प्रशिक्षित कलाकारों का आभाव बहुत बड़ी समस्या है. रोजगार की अनिश्चितता के कारण लोग इस क्षेत्र में प्रशिक्षण के लिए कम ही आते हैं. आज भी अधिकांश लोग शौकिया ही नाटक करते हैं और इसके लिए प्रशिक्षण आवश्यक नहीं समझते है. वैसे लोग ही विधिवत प्रशिक्षण लेना चाहते हैं जिन्हें इस क्षेत्र में कैरियर बनाना होता है. उनमें से अधिकांश सिनेमा की तरफ ही बढ़ाना चाहते हैं. देश में कुछ प्रशिक्षण संस्थान तो खुले हैं लेकिन उपरोक्त कारणों से उनमें से निकले प्रशिक्षित कलाकारों की संख्यां इतनी अधिक नहीं है कि उनकी उपलब्धता सर्वत्र हो. हम स्पष्टतः यह देखते हैं कि प्रशिक्षित कलाकारों के आभाव में बहुत कम ही उम्दा प्रस्तुति हो पाती है. अतः प्रशिक्षित कलाकारों का आभाव नाट्य प्रस्तुति के लिए प्रत्यक्ष समस्या है.
  • पूर्वाभ्यास के लिए स्थान : आज भी पूरे देश में अधिकांश जगहों पर, अधिकांश संस्थाओं के पास अपना प्रेक्षागृह नहीं है. उनका दफ्तर भी किराये के मकानों में ही चलता है. अर्थाभाव के कारण वे किराये पर कितना जगह ले पाते हैं इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. पूरे देश में फैली इप्टा जैसी संस्था का भी यही हाल है. ऐसी स्थिति में नाटक के लिए पूर्वाभ्यास की समस्या बहुत गंभीर हो जाती है. संस्थाएं कई तरह के उपाय करके छोटी जगहों पर या सार्वजानिक जगहों पर पूर्वाभ्यास कराती हैं. प्रदर्शन के दिन वे प्रेक्षागृह का इस्तेमाल कर पाती है क्योंकि इसके लिए उसे बड़ी राशि भुगतान करना पड़ता है. छोटी जगहों पर पूर्वाभ्यास करने और प्रस्तुति बड़े मंच पर होने से समूहन आदि की गलतियाँ सामान्य बात हो जाती है. इस प्रकार प्रस्तुति की गुणवत्ता प्रभावित होती है.  

  • नेपथ्य के कलाकारों की कुशलता : नाट्य प्रस्तुति के दौरान जो कलाकार मंच पर होते हैं उससे थोडा भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते हैं नेपथ्य के कलाकार. नाटक के केंद्रीय व्यक्ति निर्देशक से लेकर सेट, लाइट और म्यूजिक डिज़ाइनर के अतिरिक्त सम्बंधित संचालक तक नेपथ्य के कलाकार हैं. ये सभी मिलकर प्रस्तुति को सफल बनाते है. सामान्यतः लोगों की यह प्रवृति होती है कि वे मंच पर ही दिखना चाहते हैं. कम ही लोग नेपथ्य के कार्य सीखना चाहते हैं. इसलिए हमेशा से अभिनेताओं की अपेक्षा नेपथ्य के कलाकारों की संख्यां कम ही रही है. पहले तो नेपथ्य के कलाकारों की कम संख्यां, और फिर उनमें कार्य-कुशलता का आभाव, बेहद गंभीर समस्या उत्त्पन्न कर देती है.    
  • जनसंपर्क और प्रचार-प्रसार : प्रदर्शनकारी कलाओं की प्रस्तुति स्वान्तः सुखाय नहीं बल्कि दर्शकों के लिए होती है. लम्बे समय के परिश्रम के बावजूद प्रस्तुति को देखने पर्याप्त दर्शक नहीं आ पायें तो इस स्थिति में प्रस्तुति की सफलाता संदिग्ध हो जाती है क्योंकि कलाकार हतोत्साहित हो जाते हैं. प्रस्तुति देखने पर्याप्त दर्शक आएं इसके लिए यह आवश्यक होता है कि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक प्रस्तुति की जानकारी पहुंचाई जाए और उसकी विशेषताओं का उल्लेख किया जाए. इसके लिए जनसंपर्क और मीडिया के सहारे की जरूरत होती है. प्रस्तुति के बाद उसकी सम्यक समीक्षा उसके पुनरावृति की बारंबारता निर्धारित करती है. सभी संस्थाएं मजबूत जनसंपर्क कायम नहीं कर पाती हैं. अर्थाभाव के कारण बढ़िया प्रचार-प्रसार भी नहीं कर पाती है. आधुनिक मीडिया नाटकों के तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देती है. छोटे जगहों पर आज भी नाटकों को मीडिया कवरेज नहीं मिल पता है. इसलिए कई महत्वपूर्ण प्रदर्शनों की तरफ लोगों का ध्यान जाता ही नहीं है. अतः जनसंपर्क और समुचित प्रचार-प्रसार का आभाव भी नाट्य प्रदर्शन की सफलता में समस्या उत्तपन्न करती है.
अप्रत्यक्ष समस्याएँ :
  • समय की पाबंदी का आभाव : नाट्य प्रस्तुति, कला की ऐसी विधा है जिसमें अनुशासन की नितांत आवश्यकता होती है. समय की पाबंदी अनुशासन का महत्वपूर्ण घटक होता है. लेकिन ऐसा देखा जाता है कि नाटक के अधिकांश कलाकारों में समय की पाबंदी का आभाव की बुरी आदत होती है. अगर प्रस्तुति समूह में कोई कलाकार समय का पाबंद नहीं होता है तो पूर्वाभ्यास के समय उसके साथी कलाकार मानसिक तौर पर बिक्षुब्ध होते हैं. ऐसी स्थिति अगर लगातार बरक़रार रहे तो प्रस्तुति की गुणवत्ता निश्चय ही प्रभावित होती है. सिर्फ पूर्वाभ्यास ही नहीं हर स्तर पर, प्रस्तुति से जुड़े हर व्यक्ति के समय का पाबंद हुए बिना अच्छी प्रस्तुति कतई संभव नहीं है. इसे अप्रत्यक्ष समस्या इसलिए कहा जाता है क्योंकि किसी समूह के सभी कलाकार एक ही साथ समय का दुरूपयोग करनेवाले नहीं होते हैं. इसलिए प्रस्तुति तो संभव हो जाती है लेकिन उसकी उत्कृष्ठता कम हो संदिग्ध जाती है.
  • आपसी तालमेल : किसी भी नाट्य समूह के कलाकारों या अन्य सदस्यों बीच वैमनस्यता की स्थिति स्वभावतः ही रंगकर्म के शर्तों के विपरीत होती है. तो इस स्थिति में अच्छी प्रस्तुति कैसे संभव हो सकती है? नाटक साधारण कार्य नहीं बल्कि सृजनात्मक कार्य है जिसके लिए स्वस्थ तन के अतिरिक्त प्रसन्न मन की भी आवश्यकता होती है. समूह में तालमेल का आभाव सदस्यों के मन की प्रसन्नता को ख़त्म कर देता है. फिर नाट्यकर्म निपटाने जैसी स्थिति में पहुँच जाता है और इस स्थिति में सफल प्रस्तुति बहुत कम ही हो पाती है.
  • जनभावना और दर्शकों की रुचि : जब हम किसी नाटक की प्रस्तुति का विचार करते हैं तो हमारे सामने सबसे पहला प्रश्न होता है, क्या हमने जो आलेख चुना है वह जनभावना के अनुकूल है? क्या इससे कोई विवाद या दंगा फसाद भी होगा? बेशक विषय पूर्णतः सत्य हो फिर भी. भारत के सामाजिक ढांचे में यह प्रश्न और महत्वपूर्ण हो जाता है. व्यवसायिक संस्थाओं को तो हमेशा यह ध्यान रखना होता है कि क्या दर्शक मिल पाएंगे? ज्यादा दर्शक मिलें, इसलिए उन्हें हमेशा मनोरंजकता का ध्यान रखना होता है. इन  कारणों से संस्थाएं सक्षम होकर भी अच्छी और ज्वलंत मुद्दे पर आधारित नाटक नहीं प्रस्तुत कर पाती है. जनभावना के कारण, प्रस्तुति वैसी नहीं होती है जैसी होनी चाहिए. उसमें महत्वपूर्ण प्रश्नों और नग्न सत्य को नहीं दिखाया जाता है. यह स्थिति समाज के लिए अच्छी नहीं मानी जा सकती है. इसमें नाटक सामाजिक परिवर्तन के मूल उद्येश्य से च्युत हो जाता है.     
  •  आपदा प्रबंधन की समस्या : आपदा प्रबंधन के समुचित उपाय किये बिना नाट्य प्रदर्शन में हमेशा छोटी-बड़ी दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. संभावित आपदा के लिए हर ढंग से निश्चिन्त हुए बिना प्रस्तुति करने में पूरी संस्था हमेशा आशंकित और डरी हुई रहती है. आशंका और डर के साए में अच्छी प्रस्तुति संभव नहीं हो पाती है. अतः यह भी एक बड़ी अप्रत्यक्ष समस्या है.
  • उचित सरकारी संरक्षण : पहली बात, रंगकर्म के मूल में विद्रोह होता है और विद्रोह को कभी सत्ता का प्रश्रय नहीं मिलता है. दूसरी बात, रंगकर्म सभ्यता की बहुत बड़ी आवश्यकता है लेकिन किसी एक मनुष्य के लिए मूलभूत आवश्यकता, रोटी, कपड़ा और मकान, जैसी आवश्यकता नहीं है. इसलिए इसे जन सामान्य से ज्यादा सरकारी संरक्षण की आवश्यकता होती है. दोनों स्थितियां विरोधाभासी है. इसलिए रंगकर्म हमेशा संकटों से जूझता रहता है.     
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त समुचित सुरक्षा-व्यवस्था का आभाव, कभी-कभी कानूनी प्रावधान और विभिन्न संस्थाओं की आंतरिक प्रतिस्पर्धा आदि भी नाट्य प्रस्तुति के लिए अप्रत्यक्ष समस्याएं होती हैं.
  
    सन्दर्भ : पूरे सत्र के दौरान इस विषय और उपविषयों से सम्बंधित कक्षा व्याख्यान.  

आपदा प्रबंधन की नाट्य व्यवहारिकता



आपदा प्रबंधन की नाट्य व्यावहारिकता पर विचार करने से पहले हम आपदा प्रबंधन के स्वरूप पर चर्चा करते है. आखिर आपदा प्रबंधन है क्या? आपदा प्रबंधन, आपदा और प्रबंधन दो शब्दों के मेल से बना है. आपदा, की परिभाषा विभिन्न व्यक्ति विभिन्न तरह से दे सकते है. जैसे कोई कहता है: आपदा वह मानव जनित अथवा प्राकृतिक घटना है, जिसके परिणामस्वरूप जान-माल की व्यापक क्षति होती है. इसलिए इसका अंत मानवीय वेदना तथा कष्टों में होता है. दूसरी परिभाषा हो सकती है : आपदा एक असामान्य घटना है जो थोड़े ही समय के लिए आती है और विनाश के चिन्ह लंबे समय के लिए छोड़ जाती है.
Oxford dictionary में कहा गया है: an unexpected event, such as a very bad accident, a flood or a fire, that kills a lot of people or causes a lot of damage – अर्थात, कोई अनचाही घटना, जैसे कि कोई बुरी दुर्घटना, बाढ़ या आग जिसमें बहुत लोग मारे गए हों, बहुत अधिक क्षति हुई हो, आपदा कहलाती है. इन सभी परिभाषाओं में एक बात सामान्य है, वह है- unexpected event यानि अनचाही घटना. दूसरी बात oxford dictionary की परिभाषा से निकलकर आती है. वह है very bad accident. नाटकीय संदर्भ में आपदा प्रबंधन को समझने के लिए हमें इन दो बातों पर गौर करना चाहिए. छोटी दुर्घटना भी तो बहुत बुरी हो सकती है. अमूमन लोग आपदा को बड़े मायने में ही समझते हैं. लेकिन यह उचित नहीं है. आपदा को कार्य या तंत्र या व्यवस्था सापेक्षिक समझा जाना चाहिए. अगर छोटे कार्य में, छोटे तंत्र में या छोटी सी व्यवस्था में कोई अनचाही छोटी सी भी बात हो जाए, जिसके कारण वह कार्य, तंत्र या व्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हो जाए, तो वह घटना उसके लिए आपदा ही है. आपदा के सिवाय और कुछ नहीं. अब हम प्रबंधन पर विचार करते है. प्रबंधन वस्तुत: किसी भी स्थिति या स्थितियों के विरुद्ध की गई व्यवस्था को कहा जाता है. आपदा अनचाही ही सही एक स्थिति ही है. अत: उसके विरुद्ध की गई व्यवस्था, उससे निपटने के लिए, या उसके प्रभाव को यथा संभव कम करने के लिए, आपदा प्रबंधन कहलाता है. अब हम आपदा प्रबंधन को  नाट्य के सन्दर्भ में समझने का प्रयास करते है. इसके लिए हमें नाट्य के स्वरूप और संभावित आपदा पर विचार करना होगा. फिर आपदा प्रबंधन की नाट्य व्यावहारिकता आसानी से स्पष्ट हो जाएगी. नाट्य अपने प्रकारों से निरपेक्ष, कई लोगों के लंबे श्रम की अपेक्षा रखता है. इसमें विभिन्न कलाओं का समावेश होता है. सिनेमा के उलट प्रस्तुति के समय अभिनय के साथ-साथ मंच और पात्र सामग्री के अतिरिक्त सेट और विभिन्न अभिनय क्षेत्रों का समुचित और कुशलता पूर्वक उपयोग दर्शकों के सामने ही करना होता है. इस जटिल कार्य – व्यापार में अनेकों आपात स्थितियाँ हो सकती हैं. गिनती करने पर तो बहुत अधिक आपात स्थितियों को गिना जा सकता है लेकिन विषय को स्पष्ट करने के लिए मैं मुख्य आपात स्थितियों की ही चर्चा कर रहा हूँ.
  •   प्रस्तुति के दिन किसी कलाकार का आक्समिक बीमार पड़ जाना, दुर्घटना हो जाना या उसके परिजन का निधन हो जाना आदि.
  •   किसी कलाकार का अन्य कारणों से समय पर नहीं पहुँच पाना.
  •     भीषण आँधी-तूफान-वर्षा का आ जाना.
  • शॉर्ट-सर्किट से आग लग जाना.
  •   प्रदर्शन के समय किसी लाइट का फ्यूज हो जाना.
  •   अभिनय के दौरान किसी प्रकार की दुर्घटना हो जाना. जैसे-चाकू, लाठी आदि किसी कलाकार को लग जाना
  • अभिनय के दौरान किसी कलाकार द्वारा संवाद भूल जाना, दूसरे के संवाद बोल देना कई संवाद छोड़ देना आदि
  •   मंच-क्षेत्र में या दर्शक दीर्घा में साँप, बिच्छु आदि कीड़े-मकोड़े का निकाल आना.
  •   सेट का धंस जाना, टूट जाना, सेट बनाने में प्रयुक्त कील आदि का किसी कलाकार के पाँव में धंस जाना.
  •   प्रस्तुति के लिए दर्शकों की अनुमानित संख्यां के लिए की गई व्यवस्था से अधिक दर्शकों के आ जाने से या किसी प्रकार की अपवाह फैल जाने से अफरातफरी या भगदड़ मच जाना.
नाट्य प्रस्तुति के लिए ये सभी स्थितियां आपदा हैं. जिनका पूर्वानुमान बेहद कम होता है. कभी-कभी बिलकुल होता ही नहीं है. कुछ स्थितियाँ कम असरकारक तो कुछ अधिक असरकारक होती हैं. कम असरकारक स्थितियाँ प्रस्तुति में बाधा या अवरोध उत्पन्न करती हैं तो ज्यादा असरकारक स्थिति प्रस्तुति को असफल बना सकती है. अभी बताई गई सभी स्थितियों का परिणाम हम सभी लोग सहज ही समझ सकते है. लेकिन प्रस्तुति का वसूल, ‘show must go on’ हमें किसी भी स्थिति में उसे रोकने की इजाजत नहीं देता है. इसलिए हमें अपने विवेक और अनुभव का सहारा लेकर किसी भी संभावित आपात स्थिति से निपटने की व्यवस्था पहले ही कर लेनी चाहिए. नाट्य प्रस्तुति को प्रभावित करनेवाली संभावित किसी भी आपदा से निपटने की व्यवस्था कर लेना ही नाट्य के सन्दर्भ में आपदा प्रबंधन है.        
जब हम किसी प्रस्तुति की तैयारी करते हैं तो हमारा एक मात्र उद्देश्य उसकी सफलता होती है. इसे ही नाट्य शास्त्र में थोड़ा विश्लेषित करके सिद्धि कहा गया है. किसी भी प्रकार की आपदा नाट्य प्रस्तुति में बाधा उत्पन्न करके उसे विफलता की ओर ले जाती है. यानि की सिद्धि में बाधा उत्पन्न करती है. जबकि उचित प्रबंधन हमें समग्र सिद्धि यानि पूर्ण सफलता की निश्चितता की ओर ले जाती है. यही आपदा प्रबंधन की नाट्य व्यावहारिकता है.

 संदर्भ :
1. आपदा प्रबंधन – मानक लक्ष्य सिरीज
2. Oxford Advance Learner’s Dictionary    

रविवार, 5 अप्रैल 2015

निर्देशन पद्धति – सिद्धान्त एवं व्यवहार



नाट्य प्रस्तुति एक सामूहिक कार्य है जिसमें लगभग सभी कलाओं का समावेश होता है। हम व्यवहार में देखते हैं, अगर कोई कार्य सामूहिक होता है तो उस समूह में एक नेता की आवश्यकता होती है जो उस सामूहिक कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न करवा सके। समूह के सदस्य अलग-अलग पृष्ठभूमि और मानसिक स्तर के होते हैं इसलिए उनके सोचने, कार्य करने का तरीका और एक दूसरे से समंजस्य स्थापित करने का तरीका अलग-अलग होता है। ऐसी स्थिति में एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो सारी स्थितियों को नियंत्रित करते हुए समूह को लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर करे। नाट्य प्रस्तुति के लिए बिलकुल यही स्थिति की संभावना सौ प्रतिशत से भी अधिक होती है। इसलिए नाट्य प्रस्तुति करनेवाले समूह में भी एक नेता होता है. जिसे हम निर्देशक कहते हैं।
पश्चिम में निर्देशक की परंपरा शुरु से ही रही है। भारत में नाटक को चाक्षुष यज्ञ तो कहा गया है लेकिन उस यज्ञ के ऋत्विक का उल्लेख नहीं मिलता है। हाँ संस्कृत रंगमंच पर सूत्रधार की उपस्थिति और उसकी जिम्मेदारियों को देखकर हम उसका साम्य निर्देशक से समझते हैं। बेशक नाम कुछ भी हो लेकिन भारत में भी लोकमंच से लेकर शास्त्रीयमंच पर एक ऐसा व्यक्ति रहा है जिसका कार्य निर्देशक जैसा होता था। बहरहाल, आधुनिक समय मे भारतीय रंगमंच पर जो निर्देशक की अवधारणा है, पश्चिम से आई है। वर्तमान में निर्देशक प्रस्तुति प्रक्रिया में केंद्रीय व्यक्ति होता है। नाट्य प्रस्तुति की प्रक्रिया में वह विभिन्न चरणों से गुजरता है। इन चरणों का क्रम ही निर्देशन पद्धति के तौर पर जाना जाता है। निर्देशन पद्धति के विभिन्न चरणों का व्यवस्थित और मानक क्रम ही इसके सिधान्त के रूप में मान्य हैं। लेकिन व्यवहार भिन्न-भिन्न निर्देशकों की योग्यता और अनुभव के अनुसार भिन्न-भिन्न तरह से हो सकते हैं।
नाट्य प्रस्तुति की प्रक्रिया को मूलतः तीन भागों में बांटकर विचार किया जाता है। प्रस्तुति-पूर्व (preproduction), प्रस्तुति (production) और प्रस्तुति-पश्चात (postproduction)। इन तीनों भागों में निर्देशक अपने सहयोगियों की मदद से अपना काम करता है जो क्रमानुसार इस प्रकार है।
प्रस्तुति-पूर्व(preproduction) में :
1)     नाट्यालेख का चयन, पठन और विश्लेषण।
2)     नाटक के बजट का अनुमान।
3)     अभिनेता-अभिनेत्रिओं का चयन।
4)     समूह के साथ आलेख का पठन।
5)     प्रस्तुति की शैली का निर्धारण।
6)     विभिन्न सहयोगीयों, जैसे - लाइट डिज़ाइनर, कॉस्टयूम डिज़ाइनर आदि का चयन।
प्रस्तुति(production) के अंतर्गत आता है :
1)    पूर्वाभ्यास
2)    सेट डिज़ाइनर, लाइट डिज़ाइनर, कॉस्टयूम डिज़ाइनर, साउंड डिज़ाइनर से अपनी परिकल्पना समझाते हुए बातचीत करना। रिहर्सल दिखाना और आवश्यक डिज़ाइन करने का निर्देश देना।
3)    रूप-सज्जक से बातचीत और निर्देश।
4)    प्रस्तुति नियंत्रक के साथ ग्रांड रिहर्सल करवाना।
5)    प्रस्तुति का निरीक्षण।
प्रस्तुति-पश्चात (postproduction) :
इस भाग में निर्देशक प्रस्तुति की समीक्षा करता है और प्रस्तुति में उपुक्त सामाग्री को पुनर्व्यवस्थित करवाता है।
ये सिद्धान्त की बातें थी। अब हम व्यवहार की बातें करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि प्रोड्यूसर और डाइरेक्टर दो अलग-अलग व्यक्ति होते हैं, खासकर प्रोफेसनल थिएटर में। ऐसी स्थिति में स्क्रिप्ट और अभिनेता-अभिनेत्री के चयन में निर्देशक को स्वतन्त्रता नहीं रहती है।साधारणतः चयन प्रोड्यूसर के हाथ में होता है और निर्देशक को उसी के अनुसार काम करना होता है। हाँ कुछ विवेकी प्रोड्यूसर निर्देशक से सलाह लेते हैं या उसे ही चयन का अधिकार दे देते है। यह एक आदर्श स्थिति कही जा सकती है। इस स्थिति में या एमेच्योर थिएटर में जहां निर्देशक स्वतंत्र होता है, उसकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है क्योंकि प्रस्तुति की सफलता और असफलता का दारोमदार उसी पर समझा जाता है। अतः आलेख और अभिनेताओं के चयन में निर्देशक को समझदार होना चाहिए। आलेख के चयन के लिए निर्देशक को कुछ प्रश्नों का उत्तर स्वयं से पूछना चाहिय। ये प्रश्न हैं, प्रस्तुति कहाँ होगी? कब होगी? किसलिए होगी? और किसके साथ होगी ? इन प्रश्नों के सही उत्तर मिल जाने से प्रस्तुति का स्थान, समय, कारण और सहयोगियों के विषय में जानकारी मिल जाती है। इन बातों के स्पष्ट हो जाने से अच्छा और सटीक आलेख चुनना संभव हो जाता है। प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए एक मुहावरा कहा जाता है, ‘सटीक विषय तो आधी सफलता तय। आलेख का चुनाव हो जाने के बाद निर्देशक को चाहिए कि वह आलेख का कई बार अध्ययन करे, उसका विश्लेषण करे। इससे वह आलेख मे छिपी सूक्ष्म बातों को, द्वंद और चरित्रों के मनःस्थिति को प्रभावशाली तरीके से समझ सकेगा। इन बातों को समझे बिना उम्दा प्रस्तुति असंभव होती है। इन बातों को समझकर निर्देशक को प्रस्तुति कि शैली निर्धारित करना चाहिए। इसके बाद आलेख का पठन समूह मे करवाना चाहिए। इस दौरान बिट्वीन द लाइन आदि पर नोट लेना चाहिए।  समूह में एक से अधिक बार पठन के उपरांत ही अभिनेताओं को भूमिका वितरित करना चाहिए। समूह में आलेख के पठन से यह तय करने में आसानी होती है कि कौन अभिनेता किस चरित्र के साथ न्याय कर सकता है। भूमिका के वितरण में किसी भी तरह का दबाव और व्यक्तिगत संबंधो से निरपेक्ष रहना ही निरापद होता है। अन्यथा चरित्र के सापेक्ष अनुपयुक्त अभिनेताओं के चुनाव कि संभावना अधिक हो जाती है। अनुपयुक्त अभिनेताओं के चुनाव का परिणाम आसानी से समझा जा सकता है।
अभिनेताओं के चुनाव के बाद आलेख का एक दो पाठ भूमिकानुसार समूह में ही करवाना चाहिए और इस दौरान निर्देशक को डिक्शन पर काम करना चाहिए। फिर थोड़ा समय देकर अभिनेताओं से उनके संवाद याद करवाना चाहिए। इसके बाद रिहर्सल शुरू करना चाहिए। रिहर्सल के दौरान समूहन कार्य भिन्न-भिन्न निर्देशक अपने अनुभव और सुविधा के अनुसार करते हैं। समूहन होने तक अगर उसकी प्रारम्भिक परिकल्पना में कोई परिवर्तन हुआ हो तो उसे नोट करके नाटक का व्यवस्थित ढांचा तैयार कर लेना चाहिए।  इसके बाद लाइट डिज़ाइनर और सेट डिज़ाइनर को रिहर्सल दिखाकर अपनी जरूरत समझाना चाहिए और डिज़ाइन के लिए आवश्यक निर्देश देना चाहिए। प्रॉपर्टि सहायक को प्रॉपर्टि जमा करने का निर्देश और कॉस्टयूम इंचार्ज को कॉस्टयूम कि व्यवस्था करने का निर्देश देना चाहिए। थोड़े दिन रिहर्सल के बाद साउंड डिज़ाइनर से साउंड डिज़ाइन करवा लेना चाहिए। अंततः जरूरत अनुसार फ़ाइनल रिहर्सल(रन-थ्रू) करवाकर लाइट, साउंड कॉस्टयूम और संभव हो तो सेट के साथ ग्रांड रिहर्सल करवाना चाहिए। फ़ाइनल रिहर्सल से प्रस्तुति नियंत्रक को साथ रखना अनिवार्य होता है। अब बारी आती है प्रस्तुति की। प्रस्तुति के दिन निर्देशक को तानावमुक्त रहकर प्रस्तुति देखना चाहिए। लेकिन ऐसा कम ही हो पता है। और अगर निर्देशक स्वयं प्रस्तुति नियंत्रक हो तब तो असंभव ही है। प्रस्तुति के अगले दिन समूह के साथ बैठकर प्रस्तुति की समीक्षा करनी चाहिए। समीक्षा भविष्य में प्रस्तुति के दुहराव में होनेवाली त्रुटियों की कमी में सहायक होती है। समीक्षा के दौरान प्रस्तुति की अच्छाइओं का श्रेय पूरे समूह को देना चाहिए और गलतियों पर बिना विवादी हुए विचार करना चाहिए।
निर्देशन के व्यवहारिक पक्ष को प्रभावित करनेवाली अन्य बातें होती है, निर्देशक के ज्ञान का स्तर, सीमाओं को समझने की क्षमता, मानव मानोविज्ञान की समझ, विवादों को सुलझाने और सामंजस्य बैठाने की क्षमता, उत्साह और कम संसाधन में अधिक परिणाम देने का नजरिया आदि।
जब निर्देशक ही प्रोड्यूसर होता है तो बजट और मंच की व्यवस्था, प्रशासन से सुरक्षा की मांग, अतिथियों को आमंत्रित करना और प्रचार-प्रसार का कार्य की रूप-रेखा भी उसे ही तैयार करना पड़ता है।
निष्कर्षतः हम कह सकते है कि नाट्य निर्देशन का काम बहुत ही जटिल होता है। इसके लिए प्रयाप्त ज्ञान और रचनात्मक सोच के साथ-साथ व्यवहार कुशलता की भी आवश्यकता होती है।




संदर्भ :
1॰ नाट्यप्रस्तुति एक परिचय       लेखक – रमेश राजहंस।
२॰ कक्षा-व्याख्यान                डॉ॰ विधु खरे दास।
३॰ कक्षा-व्याख्यान                हरीश इथापे।
४॰ कक्षा-व्याख्यान                प्रवीण कुमार गुंजन।