बुधवार, 12 अगस्त 2015

सिनेमा में दादा साहब फाल्के का योगदान



भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहब फाल्के का मूल नाम ढूंडिराज गोविंद फाल्के था। उन्हें आदर से दादा साहब फाल्के कहा जाता था। उनका जन्म 30 अप्रैल 1870 को नासिक जिले के त्रयब्म्केश्वर गाँव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। पारिवारिक परंपरानुसार उन्हें पुरोहताई की शिक्षा दी गई लेकिन उनका मन नाट्य अभिनय चित्रकला और जादूगरी में लगता था। दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद फाल्के बंबई के जे॰जे॰स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। वहाँ से पढ़ाई पूरी करने क बाद फाल्के ने बड़ौदा के काला भवन से फोटोग्राफी का प्रशिक्षण लिया। फोटोग्राफी के बाद मॉडलिंग और आर्किटेक्ट का भी प्रशिक्षण लिया। फिर रंगीन छपाई का काम सीखा। तत्कालीन मशहूर चित्रकार राजा रवि वर्मा के लिथोग्राफी प्रेस में उन्होने काम भी किया था।
दादा साहब फाल्के ने चालीस साल की उम्र में,1910 में बंबई के एक तम्बू सिनेमा घर में क्राइस्ट के जीवन पर आधारित फिल्म देखी तो यह विचार किया की ऐसी ही फिल्म रामायण और महाभारत की कथाओं पर बननी चाहिए और उसी दौरान फिल्मी जीवन को अपनाने की योजना बना ली। अगले सालभर तक वे लगातार सिनेमा घरों के चक्कर लगाकर फिल्में देखते रहे। वे देखे गए फिल्मों का तकनीकी विश्लेषण करते थे और बेहद साधारण कैमरे से फोटो खींचते थे। उनकी पत्नी सरस्वती काकी ने उनके इन उपक्रमों में पूरा सहयोग दिया।
रात-दिन लगातार फिल्में देखने और जागने के कारण उन्हें दिखाई पड़ना बंद हो गया। सलभर इलाज के बाद उनके आँखों की रौशनी वापस लौटी। बीमारी के दौरान किए गए चिंतन और अनुभव के कारण फाल्के फिल्म तकनीक को जल्दी सीख सके। स्वस्थ होकर उन्होने मटर के दाने को गमले में बो दिया और रोज एक फ्रेम उसकी तस्वीर खींचने लगे। पौधे के विकसित होने तक वे ऐसा करते रहे। जिस दिन मटर का पूरा पौधा उग आया फाल्के की पहली फिल्म मटर के बीज का विकास” भी बनकर तैयार हो गई। इस फिल्म को दिखाकर उन्होने अपने व्यवसायी मित्र नाड्कर्णी से बाजार भाव के सूद पर पैसे लिए और ए बी सी ऑफ सिनेमैटोग्राफी पुस्तक, सिनेमा के उपकरण बेचनेवाली कंपनियों के पते व मूल्य सूचियों के साथ 1 फ़रवरी 1912 को कैमरा खरीदने लंदन रवाना हो गए।
लंदन में बयास्कोप फिल्म पत्रिका के संपादक मि॰ कैबोर्न के सहयोग से “ए बी सी ऑफ सिनेमैटोग्राफी” पुस्तक के लेखक मि॰ सिसिल हेपवर्थ से मिले। हेपवर्थ वाल्टन फिल्म कंपनी चलाते थे। उन्होने फाल्के को फिल्म बनाने का प्रशिक्षण दिया और कंपनी के सभी विभागों को देखने का अवसर दिया। 1 अप्रैल 1912 को विलियम्सन कैमरा, कच्ची फिल्म, फिल्म धोने और प्रिंट बनाने के उपकरणों तथा परफ़ोरेटर लेकर दादा साहब फाल्के भारत लौटे।
भारत आकार दादा साहब फाल्के ने “सत्य हरिश्चंद्र” फिल्म बनाने का निश्चय किया क्योंकि उन्ही दिनों बंबे में सत्य हरिश्चंद्र नाटक बहुत लोकप्रिय हो रहा था। फाल्के दंपति के छह महीने की लगातार मेहनत के बाद वह फिल्म 3 मई 1913 को रिलीज हुई। फिल्म का नियमित शो मुंबई के कोरोनेशन सिनेमा मे तेईस दिनों तक हुआ। तब यह बहुत बड़ी सफलता थी। यह फिल्म बनाने का निश्चय उन्होने अपने अनुभव और व्यावसायिक समझ के आधार पर लिया था। उस फिल्म की सफलता से उत्साहित होकर दादा साहब फाल्के ने 1913 मे ही “मोहिनी भस्मासुर” और 1914 में “सावित्री सत्यवान” फिल्म का निर्माण किया। इसी बीच फाल्के ने नासिक में स्टुडियो स्थापित कर लिया क्योंकि वहाँ उन्हें नदी-नाले, पहाड़ियाँ, खुला मैदान सब मिल गया था। तब उनके साथ सौ से अधिक स्टाफ काम करते थे।
फिल्म के तीस से अधिक प्रिंट बनाने के लिए हाथ से चलने वाली मशीन की जरूरत थी इसलिए 1914 में फाल्के पुन: लंदन गए। इस बार उनके साथ उनकी बनाई हुई फिल्में भी थी जिसे वहाँ के निर्माताओं ने बहुत पसंद किया। दादा साहब इंगलेंड से भारत लौटे तो प्रथम विश्व युद्ध छिड़ चुका था। युद्ध के कारण फिल्में चलना कम हो गई थी। युद्ध 1918 तक चला, अनेक मशीने खराब हो गई फाल्के आर्थिक कठिनाई में पड़ गए। किसी तरह कर्ज लेकर फिल्में बनाने का कार्य जारी रखा लेकिन थोड़े समय बाद कर्ज मिलना बंद हो गया। लेकिन उन्होने अपने ससुर के सहयोग से लंकादहन फिल्म बनाकर अपनी प्रतिष्ठा पुन: स्थापित किया। इसके बाद फाल्के ने मूलशंकर भट्ट और बामनराव आपटे के सहयोग से हिंदुस्तान फिल्म कंपनी की स्थापना की। बाद के दौर में फाल्के ने अपनी बेटी मन्दाकिनी को कृष्ण की भूमिका में लेकर कालिया मर्दन और कृष्ण जन्म फिल्में बनाई। फाल्के ने एक शिक्षाप्रद फिल्म हाउ फिल्म्स आर मेड बनाकर लोगों को फिल्म विधा की जानकारी दी। उसके बाद अपने भागीदारों से विवाद के कारण वो बनारस चले गए। पाँच वर्ष बाद जब लौटे तो फिल्म उदद्योग का स्वरूप बिलकुल बादल गया था। कंपनियाँ अमेरिकी फिल्मों की नकल में लगी हुई थी। इस माहौल में फाल्के फिट नही हो पाए। लेकिन मायाशंकर भट्ट के प्रोत्साहन पर 1932 में उन्होने मूक फिल्म सेतु बंधन बनाई पर उन्हे पहले जैसी लोकप्रियता नही मिली। 64 साल की उम्र में उन्होने अपनी एकमात्र सवाक फिल्म गंगावतरण का निर्माण किया। 16 फरवरी 1944 को 71 वर्ष की उम्र में दादा साहब फाल्के का देहांत हो गया। तब तक लोग उन्हे लगभग भूल चुके थे।
दादा साहब फाल्के ने 1913 से 1933 तक 95 फीचर तथा 26 लघु फिल्में बनाई। इन संख्या से अधिक महत्वपूर्ण योगदान दादा साहब फाल्के का है सिनेमा की भाषा को समृद्ध करना, जिसकी शुरुआत उन्होने शून्य से की थी। वास्तव में दादा साहब फाल्के भारतीय सिनेमा के जनक थे। लोग एक कदम आगे बढ़कर उन्हे भारतीय सिनेमा का पितामह कहते हैं। उनके लिए यह सम्मान सर्वथा उचित है।










 संदर्भ :
1.  सिनेमा उद्भव और विकास – रयाज़ हसन।
2.  इंटरनेट (विकिपीडिया)।
    


सृजन प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यानुभूति



संसार के किसी भी कला की कोई भी सुंदर कलाकृति को जब हम देखते हैं तो मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। संगीत जैसी कलाओं में हम सुनते हुए भी इसी स्थिति में होते हैं। सामान्य प्रेक्षक तो आनंदोपलब्धि तक ही सीमित रहता है लेकिन विचारशील प्रेक्षक के मन में यह प्रश्न जरूर कौंधता है की आखिर इतनी अच्छी कलाकृति या रचना का निर्माण हुआ कैसे? इसी प्रश्न के उत्तर में छिपा होता है सृजन की प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यनुभूति।
सृजन की प्रक्रिया पर विभिन्न पश्चिमी और भारतीय विद्वानों ने विचार किया है। कुछ प्रख्यात बहिर्मुखी कलाकारों ने भी अपनी आत्मकथा आदि में सृजन की प्रक्रिया के दौरान मानसिक और बाह्य स्थितियों संतुलन और द्वंदों का वर्णन किया है। कल्पना विभिन्न चरणों से गुजरकर और भौतिक आधार प्राप्त कर कलाकृति के रूप में परिणत होती है। कल्पना पूरी तरह से मन का विषय है इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने भी सृजन की प्रक्रिया पर विचार किया है। इन्हीं आधारों पर सृजन की प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जाता है।
दर्शनिकों, कलाकारों और मनोवैज्ञानिकों में से किसी एक की बातों को ही तथ्यरूप में स्वीकार करना एकांगी हो जाएगा इसलिए तीनों के मतों पर समग्रता से विचार करके ही सृजन की प्रक्रिया पर ठोस धारणा बनती है। वर्तमान में सृजन प्रक्रिया के वर्णन विश्लेषण के लिए सृजनशास्त्र के नाम से एक अलग शास्त्र ही विकसित हो चुका है। अंग्रेजी में इसे साइनेटिक्स कहते हैं। साइनेटिक्स ने सौंदर्यशास्त्र के अध्ययन में युगांतकारी पहल किया है।
सृजन की प्रक्रिया में कृति या कर्ता के अंतर्मुखी चरण और बहिर्मुखी चरण का संयोग पर्यावरण की भूमिका के साथ निवेशित होकर कलाकृति के रूप में प्रतिफलित होती है। यह कलाकृति एक भौतिक वस्तु होती है। कृति निर्माण के लिए रूपावदान में माध्यम अंतर्मुखी चरण बहिर्मुखी चरण के रूप में रूपांतरित कर देता है। कला से एक ऐसी प्रक्रिया का बोध होता है जो कलाकृति को अपने लक्ष्य, भावोद्भावना की ओर अग्रसर करती है। कलाकृति एक अभिव्यंजनात्मक और कुछ अंशो में भावात्मक रूप है जो करने तथा रचने से प्राप्त होता है। यहाँ करना नाटक और नृत्य जैसी कलाओं से संबन्धित है तो रचना चित्र, मूर्ति और काव्यकलाओं से। कलाकृति का रूप मानवीय प्रत्यक्षीकरण के आनंदमूलक क्षेत्र से भी जुड़ा होता है जिसका भोग मन द्वारा होता है। इसप्रकार कलाकृति में एक भौतिक वस्तु, मानवीय क्रिया मानवीय आशंसा तीनों का मेल होता है। यह मेल ही कलाकृति को सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्य देता है।
प्रत्येक कला का किसी न किसी भौतिक वस्तु से वास्ता रहता है। वह भौतिक वस्तु चाहे शरीर हो या शरीर से परे अन्य वस्तु। चाहे कोई उपकरण का इस्तेमाल हो या नहीं निर्माण अवश्य होता है। यह निर्माण एक ओर  वास्तविक जगत का होकर भी उससे स्वतंत्र होता है तो दूसरी ओर कलात्मक एवं सांस्कृतिक परंपरा से संघटित होकर भी स्वकीय होता है। इसलिए सृजन प्रक्रिया में मौलिकता एवं परंपरा, वैयक्तिकता एवं सामूहिकता द्वंदात्मक रूप से साथ-साथ होता है। यह भी माना जाता है की सृजन प्रक्रिया अवचेतन का आवेश मात्र होता होता है जिसमें संवेग ही प्रमुख होते हैं। वास्तव में पूरा सृजनात्मक कार्य अचेतन के क्षेत्र से गुजरकर ही चेतना में साकार होती है। यह कार्य चिंतन के द्वारा सम्पन्न होता है। इस तरह यह सिर्फ मानसिक कार्य कहा जा सकता है लेकिन वास्तव में शरीर और मस्तिष्क का उचित समन्वय इसे जीवंत और पूर्ण बनाता है।
सृजन प्रक्रिया चाहे करने से संबन्धित हो या फिर रचने से इसमें आंतरिक तथा बाह्य संप्रेषणीयता और पर्यावरण की भूमिका संतुलित करके प्रत्यक्षीकरण का कर्ता कलाकार होता है। कलाकार किसी प्रयोजन के लिए पदार्थ को जिस ढंग से आकृति देने की कोशिश करता है वह कोशिश उसके कौशल पर आश्रित होता है। कौशल के माध्यम से ही पदार्थ को आकृति देने में सृजनात्मक व्यवस्था का निवेश करता है। यह सृजनात्मक व्यवस्था परम्परावर्ती न होकर मौलिक होती है।
कलाकार जब प्रकृति के कोई दृश्य या भावना से प्रेरित होता है तो वह उसका हू-ब-हू अनुकृति का निर्माण नहीं कर डालता है। कलाकार की प्रेरणा के साथ-साथ उसके अवचेतन में छिपे संस्कार और कल्पना का संयोग होता है। इस संयोग से एक मानस मूर्ति उसके मन में बनती है। इस मानस मूर्ति का आधार बिम्ब और प्रतीक होते हैं। कलाकार के मन में बनी मूर्ति का सौन्दर्य उसे प्रयाप्त आनंद प्रदान करता है। लेकिन दूसरे लोग भी आनंद प्राप्त कर सकें इसलिए और सृजन के क्षणों का विलक्षण आनंद प्राप्त करने के लिए वह अपने कौशल से संबन्धित भौतिक माध्यम का सहारा लेकर मानस मूर्ति को ठोस रूपाकार प्रदान करता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या कलाकृति हू-ब-हू कलाकार कि मानस मूर्ति जैसी होती है?
कलाकार कि मानस मूर्ति और कलाकृति का साम्य कई बातों पर निर्भर करता है। कलाकार जिस किसी भी माध्यम का उपयोग करता है उस माध्यम की एक सीमा होती है। वह सीमा मानस मूर्ति के प्रत्यक्षीकरण में प्रतिरोध उत्पन्न करता है। प्रतिरोध के अन्य तत्व होते हैं वातावरण, कलाकार की प्रवणता और अर्थ। इन प्रतिरोधों की जटिलता जितनी कम होती है, मानस मूर्ति से कलाकृति का साम्य उतना ही अधिक होता है। इसके अतिरिक्त कलाकार की मानसिक संचरणशीलता भी सृजन को प्रभावित करती है। वास्तव मे कलाकार की मानस मूर्ति संवेगों, चिंतन, कल्पना, संस्कारों का घनीभूत रूप होता है। मनुष्य के मन का स्वभाव ही ऐसा है की वह चिंतन और कल्पना को रूढ़ नहीं होने देता है। इसलिए उनमें संचरणशीलता होती है। चिंतन की संचरणशीलता सृजन के क्षणों में भी बरकरार रहती है। इस कारण से मानस मूर्ति का रूप भौतिक मूर्ति की तरह स्थिर नहीं रह पाता है बल्कि सृजन के दौरान भी इसके रूप मे कामोबेश परिवर्तन होता रहता है। इसलिए यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि कलाकृति ठीक वैसी नहीं होती है जैसी कलाकार कि मानस मूर्ति होती है। लेकिन वह मानस मूर्ति से ज्यादा भिन्न भी नहीं होती है। इसलिए कलकृति अपने सौन्दर्य के बल पर प्रेक्षकों को लगभग वैसा ही आनंद प्रदान करने में सक्षम होती है जैसा कलाकार को प्राप्त हुआ रहता है। यह सौंदर्यबोध और संगत आनंद की आदर्श स्थिति है जो आदर्श प्रेक्षकों के संदर्भ में ही सत्य होती है। क्योकि कलाकृति के सौन्दर्य से मिलनेवाले आनंद का नियामक कलाकार की योग्यता, माध्यम, वातावरण के अतिरिक्त प्रेक्षकों की सहृदयता भी होती है।




संदर्भ :
1.  अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा – रमेश कुंतल मेघ।
2.  सौन्दर्य शास्त्र – डॉ॰ ममता चतुर्वेदी।
3.  कक्षा व्याख्यान – डॉ॰ प्रभात त्रिपाठी।