संसार के किसी भी कला की कोई भी सुंदर कलाकृति को जब हम देखते हैं तो
मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। संगीत जैसी कलाओं में हम सुनते हुए भी इसी स्थिति में
होते हैं। सामान्य प्रेक्षक तो आनंदोपलब्धि तक ही सीमित रहता है लेकिन विचारशील
प्रेक्षक के मन में यह प्रश्न जरूर कौंधता है की आखिर इतनी अच्छी कलाकृति या रचना
का निर्माण हुआ कैसे? इसी प्रश्न के उत्तर में छिपा होता है
सृजन की प्रक्रिया और कलाकार की सौंदर्यनुभूति।
सृजन की प्रक्रिया पर विभिन्न पश्चिमी और भारतीय विद्वानों ने विचार
किया है। कुछ प्रख्यात बहिर्मुखी कलाकारों ने भी अपनी आत्मकथा आदि में सृजन की
प्रक्रिया के दौरान मानसिक और बाह्य स्थितियों संतुलन और द्वंदों का वर्णन किया
है। कल्पना विभिन्न चरणों से गुजरकर और भौतिक आधार प्राप्त कर कलाकृति के रूप में
परिणत होती है। कल्पना पूरी तरह से मन का विषय है इसलिए मनोवैज्ञानिकों ने भी सृजन
की प्रक्रिया पर विचार किया है। इन्हीं आधारों पर सृजन की प्रक्रिया को समझने का
प्रयास किया जाता है।
दर्शनिकों,
कलाकारों और मनोवैज्ञानिकों में से किसी एक की बातों को ही तथ्यरूप में स्वीकार
करना एकांगी हो जाएगा इसलिए तीनों के मतों पर समग्रता से विचार करके ही सृजन की
प्रक्रिया पर ठोस धारणा बनती है। वर्तमान में सृजन प्रक्रिया के वर्णन विश्लेषण के
लिए ‘सृजनशास्त्र’ के नाम से एक अलग शास्त्र ही विकसित हो चुका है। अंग्रेजी में इसे ‘साइनेटिक्स’ कहते
हैं। ‘साइनेटिक्स’ ने सौंदर्यशास्त्र के अध्ययन में युगांतकारी पहल किया है।
सृजन की प्रक्रिया में कृति या कर्ता के अंतर्मुखी चरण और बहिर्मुखी
चरण का संयोग पर्यावरण की भूमिका के साथ निवेशित होकर कलाकृति के रूप में प्रतिफलित
होती है। यह कलाकृति एक भौतिक वस्तु होती है। कृति निर्माण के लिए रूपावदान में
माध्यम अंतर्मुखी चरण बहिर्मुखी चरण के रूप में रूपांतरित कर देता है। कला से एक
ऐसी प्रक्रिया का बोध होता है जो कलाकृति को अपने लक्ष्य, भावोद्भावना की ओर अग्रसर करती है। कलाकृति एक अभिव्यंजनात्मक और कुछ
अंशो में भावात्मक रूप है जो करने तथा रचने से प्राप्त होता है। यहाँ करना नाटक और
नृत्य जैसी कलाओं से संबन्धित है तो रचना चित्र, मूर्ति और काव्यकलाओं से। कलाकृति का रूप मानवीय प्रत्यक्षीकरण के
आनंदमूलक क्षेत्र से भी जुड़ा होता है जिसका भोग मन द्वारा होता है। इसप्रकार
कलाकृति में एक भौतिक वस्तु, मानवीय
क्रिया मानवीय आशंसा तीनों का मेल होता है। यह मेल ही कलाकृति को सामाजिक और
सांस्कृतिक मूल्य देता है।
प्रत्येक कला का किसी न किसी भौतिक वस्तु से वास्ता रहता है। वह भौतिक
वस्तु चाहे शरीर हो या शरीर से परे अन्य वस्तु। चाहे कोई उपकरण का इस्तेमाल हो या
नहीं निर्माण अवश्य होता है। यह निर्माण एक ओर वास्तविक जगत का होकर भी उससे स्वतंत्र होता है
तो दूसरी ओर कलात्मक एवं सांस्कृतिक परंपरा से संघटित होकर भी स्वकीय होता है। इसलिए
सृजन प्रक्रिया में मौलिकता एवं परंपरा,
वैयक्तिकता एवं सामूहिकता द्वंदात्मक रूप से साथ-साथ होता है। यह भी माना जाता है
की सृजन प्रक्रिया अवचेतन का आवेश मात्र होता होता है जिसमें संवेग ही प्रमुख होते
हैं। वास्तव में पूरा सृजनात्मक कार्य अचेतन के क्षेत्र से गुजरकर ही चेतना में
साकार होती है। यह कार्य चिंतन के द्वारा सम्पन्न होता है। इस तरह यह सिर्फ मानसिक
कार्य कहा जा सकता है लेकिन वास्तव में शरीर और मस्तिष्क का उचित समन्वय इसे जीवंत
और पूर्ण बनाता है।
सृजन प्रक्रिया चाहे करने से संबन्धित हो या फिर रचने से इसमें आंतरिक
तथा बाह्य संप्रेषणीयता और पर्यावरण की भूमिका संतुलित करके प्रत्यक्षीकरण का
कर्ता कलाकार होता है। कलाकार किसी प्रयोजन के लिए पदार्थ को जिस ढंग से आकृति
देने की कोशिश करता है वह कोशिश उसके कौशल पर आश्रित होता है। कौशल के माध्यम से
ही पदार्थ को आकृति देने में सृजनात्मक व्यवस्था का निवेश करता है। यह सृजनात्मक
व्यवस्था परम्परावर्ती न होकर मौलिक होती है।
कलाकार जब प्रकृति के कोई दृश्य या भावना से प्रेरित होता है तो वह
उसका हू-ब-हू अनुकृति का निर्माण नहीं कर डालता है। कलाकार की प्रेरणा के साथ-साथ
उसके अवचेतन में छिपे संस्कार और कल्पना का संयोग होता है। इस संयोग से एक मानस
मूर्ति उसके मन में बनती है। इस मानस मूर्ति का आधार बिम्ब और प्रतीक होते हैं।
कलाकार के मन में बनी मूर्ति का सौन्दर्य उसे प्रयाप्त आनंद प्रदान करता है। लेकिन
दूसरे लोग भी आनंद प्राप्त कर सकें इसलिए और सृजन के क्षणों का विलक्षण आनंद
प्राप्त करने के लिए वह अपने कौशल से संबन्धित भौतिक माध्यम का सहारा लेकर मानस
मूर्ति को ठोस रूपाकार प्रदान करता है। अब प्रश्न उठता है कि क्या कलाकृति हू-ब-हू
कलाकार कि मानस मूर्ति जैसी होती है?
कलाकार कि मानस मूर्ति और कलाकृति का साम्य कई बातों पर निर्भर करता
है। कलाकार जिस किसी भी माध्यम का उपयोग करता है उस माध्यम की एक सीमा होती है। वह
सीमा मानस मूर्ति के प्रत्यक्षीकरण में प्रतिरोध उत्पन्न करता है। प्रतिरोध के
अन्य तत्व होते हैं वातावरण, कलाकार
की प्रवणता और अर्थ। इन प्रतिरोधों की जटिलता जितनी कम होती है, मानस मूर्ति से कलाकृति का साम्य उतना ही अधिक होता है। इसके अतिरिक्त
कलाकार की मानसिक संचरणशीलता भी सृजन को प्रभावित करती है। वास्तव मे कलाकार की
मानस मूर्ति संवेगों, चिंतन, कल्पना, संस्कारों का घनीभूत रूप होता है। मनुष्य
के मन का स्वभाव ही ऐसा है की वह चिंतन और कल्पना को रूढ़ नहीं होने देता है। इसलिए
उनमें संचरणशीलता होती है। चिंतन की संचरणशीलता सृजन के क्षणों में भी बरकरार रहती
है। इस कारण से मानस मूर्ति का रूप भौतिक मूर्ति की तरह स्थिर नहीं रह पाता है
बल्कि सृजन के दौरान भी इसके रूप मे कामोबेश परिवर्तन होता रहता है। इसलिए यह
निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि कलाकृति ठीक वैसी नहीं होती है जैसी कलाकार कि
मानस मूर्ति होती है। लेकिन वह मानस मूर्ति से ज्यादा भिन्न भी नहीं होती है।
इसलिए कलकृति अपने सौन्दर्य के बल पर प्रेक्षकों को लगभग वैसा ही आनंद प्रदान करने
में सक्षम होती है जैसा कलाकार को प्राप्त हुआ रहता है। यह सौंदर्यबोध और संगत
आनंद की आदर्श स्थिति है जो आदर्श प्रेक्षकों के संदर्भ में ही सत्य होती है।
क्योकि कलाकृति के सौन्दर्य से मिलनेवाले आनंद का नियामक कलाकार की योग्यता, माध्यम, वातावरण के अतिरिक्त प्रेक्षकों की
सहृदयता भी होती है।
संदर्भ :
1. अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा – रमेश कुंतल
मेघ।
2. सौन्दर्य शास्त्र – डॉ॰ ममता चतुर्वेदी।
3. कक्षा व्याख्यान – डॉ॰ प्रभात त्रिपाठी।
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