सोमवार, 30 अप्रैल 2018

भारतीय लोककलाओं के बीच आदिवासी कला


मनुष्य की प्रमुख प्रवृतियाँ होती है, आनंद प्राप्त करना, मनोरंजन को संजोना तथा स्थितियों का अनुकरण करना। इन्हीं प्रवृतियों के कारण किसी भी सभ्यता में कला का विकास होता है। जब कला की शुद्धता को बनाए रखने के लिए उसे शास्त्र के नियमों में आबद्ध किया जाता है तो कला संस्कारित होती है और उसे शास्त्रीय कला कहा जाता है और यह साधारणतया प्रबुध्द वर्ग में लोकप्रिय होती है। इसके विपरीत कला का प्रारम्भिक रूप जनसामान्य के बीच प्रचलित रहता है और उसके विकास में नियमों से ज्यादा परंपरा का योगदान रहता है। कला का यही रूप लोककला कहलाती है। अगर हम कला को फूल मान लें तो तुलनात्मक रूप से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि गुलदस्ते में फूलों का संयोजन शास्त्रीय रूप है, तो घाटी में बेतरतीब खिले फूल लोक रूप। लेकिन सौन्दर्य दोनों में होता है इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता। अगर गुलदस्ते में सजे फूल हमें सम्मोहित करते हैं, तो घाटी में सजे फूल सम्मोहन के साथ-साथ अन्य प्रभावों से मिलकर मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखते हैं।

         कला के किसी भी प्रकार में शास्त्रीय और लोक दोनों स्वरूप होते हैं। लोक-कलाओं की अपनी विशेषताएँ होती है। इसमें शास्त्रीय नियमों की बाध्यता नहीं होने से नवीनता के समावेश का पर्याप्त अवसर होता है। लोक-कला जन-समान्य के जीवन से जुड़ी होती है और मूल संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। जन-समुदाय का रंग-ढंग और रहन-सहन, देश-काल और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार अलग-अलग होता है। इसलिए लोक-कलाओं में भी क्षेत्रीयता होती है। किसी भी सभ्यता में कला का प्रारम्भिक विकास के बाद ही उसे शास्त्र में आबध्द किया जाता है। इस आधार पर लोक-कला को शास्त्रीय कला की जननी भी कहा जा सकता है।

          भारत में हमेशा से ही कलाएँ और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक और परंपरागत प्रभाव को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। यहाँ के हर राज्य और संघक्षेत्रों में विभिन्न कला रूपों के अंतर्गत लोक-कलाओं की बहुत अधिक संख्यां है। सभी लोककलाओं के स्वरूपों की जानकारी, वर्णन और विश्लेषण एक बड़े प्रबंध की अपेक्षा रखता है। लेकिन मोटे तौर पर उन्हें चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य, नाट्य, संगीत, साहित्य आदि में बांटकर विचार किया जा सकता है.

चित्रकला : भारत के सभी प्रदेशों के विभिन्न अंचलों में चित्रकला की विभिन्न लोक-शैलियों का प्रचलन है। चित्रकला की सभी लोक-शैलियाँ किसी न किसी रूप में एक दूसरे से अलग हैं। इनमें से अधिकांश शैलियों का आनुष्ठानिक महत्व रहा है। इसलिए इनमें धार्मिक-आध्यात्मिक चित्रों और प्रतीकों को उभारा जाता है। इन लोक-शैलियों में प्रमुख है- बिहार की मधुबनी चित्रकारी, ओड़ीसा राज्य की पत्ता चित्रकारी, सीमांध्र और तेलंगाना की निर्मल चित्रकारी, तंजौर कला, महाराष्ट्र की वर्ली चित्रकारी, दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित कालमेजुयु, बंगाल में अल्पना, छोटा नागपुर प्रक्षेत्र के आदिवासियों में प्रचलित सोहराई कला आदि। इन सभी कलाओं की शुरुआत के केंद्र में अनुष्ठान या धार्मिक मान्यता रही है। अधिकांश शैलियों के चित्र पहले घर की दीवारों पर या जमीन पर गोबर या मिट्टी से लीपकर विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक चटख-रंगों से बनाये जाते थे। सिर्फ वर्ली चित्रकला अत्यंत सादी होती है, लेकिन उसकी भी प्रभावोत्पादकता अन्य शैलियों से कम नहीं होती है। आधुनिक समय में ये शैलियाँ बहुप्रचारित होकर प्रबुद्ध शहरी वर्ग के फैशनेबल कपड़ों तक पर दिखाई पड़ने लगी है।

मूर्तिकला : मूर्तिकला की भारतीय लोकशैली की झलक विभिन्न त्योहारों के अवसर पर बनाए जाने वाले देवी-देवताओं की मूर्तियों में मिलती है। इन मूर्तियों को अंग-प्रत्यंगो की सही नाप-तौल के अनुसार न बनाकर अपनी सुविधा या क्षेत्रिय चलन के अनुसार बनाई जाती है। बंगाल की मूर्तिकला में बड़ी-बड़ी तिरछी आँखें, छोटी नुकीली नाक के साथ सुंदर छोटे ओंठ का संयोजन दुर्गा और काली की मूर्ति में स्पष्टत: दिखाई पड़ता है। इसी तरह महाराष्ट्र की मूर्तियों, दक्षिण भारत की मूर्तियों और हिंदी क्षेत्र की मूर्तियों को बनावट और रूप-श्रृंगार के आधार पर तुरंत पहचाना जा सकता है।

नाटक : भारत के सभी प्रदेशों में लोक-नाटकों के विभिन्न रूप हैं। कश्मीर में भांडजशन और भांडपथर, हिमाचल प्रदेश में करियाल, हरियाणा में स्वांग, उत्तर प्रदेश में नौटंकी, बंगाल में जात्रा, असम में अंकिया, मणिपुर में थंगटा, मध्य प्रदेश में माच, महाराष्ट्र में तमाशा, आंध्रप्रदेश में भागवतमेल, उड़ीसा में पाला, केरल में थैयम, कर्नाटक में यक्षगान, गुजरात में गरबा आदि। इसके अतिरिक्त रामलीला और रासलीला किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है।

नृत्य : लोक नृत्य सहज उल्लास की अभिव्यक्ति होते हैं. भारत के सभी राज्यों में लोकनृत्यों की संख्यां को मिला दिया जाए तो इनकी संख्यां सैकड़ों होंगी. ये लोकनृत्य कृषि कार्य की समाप्ति, जन्म, विवाह और त्योहार आदि के अवसर पर किए जाते हैं। इनमे से अधिकांश अब मृतप्राय हो गई हैं. आज  प्रचलित लोकनृत्य हैं− छऊ, बिहू, पंथी, भांगड़ा, गिद्धा, लौंडानाच, डांडिया, सरहुल, कर्मा, गरबा, घूमर, कलबेलिया आदि।

लोकगीत : भारतीय जनमानस का संगीत से जुड़ाव विश्वप्रसिद्ध है। यहाँ जन्म से लेकर मरने तक के अवसर पर गीत गाए जाते हैं। पर्व त्यौहार की तो बात ही निराली है। भारतीय अंचलों में विभिन्न अवसरों पर गाए जानेवाले लोकगीत हैं, चैता, होली, कजरी, बरहमासा, झूमर, सोहर, बधाई, बटगवनि, बिरहा, विवाह गीत, समदाऊन (विदाई गीत), परिछन (स्वागत गीत), आदि। इन गीतों में कुछ गीत पुरुषों के द्वारा तो कुछ गीत महिलाओं के द्वारा गाए जाते हैं। विवाह गीत, जन्म उत्सव पर गाए जाने वाले गीत, झूमर आदि सामान्यत: महिलाएं ही गाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ धार्मिक लोकगीत भी होते है जैसे- नचारी, विद्यापति के पद, देवी गीत, प्रातकाली आदि। ऐसे गीत स्त्री और पुरुष दोनों गाते हैं। कुछ लोकगीत साज-वाज के साथ गाए जाते हैं, तो कुछ उसके बिना भी। लेकिन सामूहिकता उसका प्रधान गुण होता है। ढोल पर थाप और मजीरे के ताल पर गायक ऐसा समा बांधते हैं कि श्रोता सहज ही थिरकने लगता है।

लोकसाहित्य : भारत में लोकसाहित्य का स्वरूप प्रारम्भ में लिखित न होकर मौखिक ही था। प्राय: हर प्रदेश में पशु-पक्षी की प्रेरणास्पद कथा, राजा-महाराजाओं की गाथा और प्रेमाख्यानों की लोक-परंपरा रही है। आधुनिक काल में इन आख्यानो को लिपिबद्ध किया गया है। कई दन्त कथाओं को आधार बनाकर उच्च कोटी के साहित्य की रचना की गई है।

हस्तशिल्प : उपरोक्त लोक-कला रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप हस्तशिल्प भी है। इसमें भी प्रदेश के अनुसार अंतर और विविधता पायी जाती है। भारत के प्रमुख हस्तशिल्प में, दस्तकारी, फुलकारी, कढ़ाई के विभिन्न प्रकार, एप्लिक, मंजूषा, चिकनकारी, कठपुतली निर्माण, गुड़िया निर्माण, काठ के विभिन्न प्रकार के खिलौने, बांस की सजावटी और उपयोगी सामग्रियाँ आदि को माना जाता है।

         भारतीय लोककलाओं को दो प्रकार से विभेदित कर सकते हैं − समाज की मूलधारा में प्रचलित कला और वन-प्रांतर में रहनेवाली जनजातियों के बीच प्रचलित कला। वन-प्रांतर में रहने वाली जनजातियों को आदिवासी कहा जाता है। अत: उनके बीच में प्रचलित कला को आदिवासी कला के रूप में मान्यता दी जाती है। चूंकि लोककलाएँ लोगों के जीवन, परिवेश और प्रकृति के बेहद करीब होती हैं और उनके द्वारा उद्भाषित सौन्दर्य का मानक संबन्धित समाज के सापेक्ष होता है।  इसलिए आदिवासी कला में भी आदिवासीयों के जीवन दृष्टि के अनुसार एक अनगढ़पन होता है, लेकिन उसकी प्रभावोत्पादकता समाज की मुख्य-धाराओं की कला से किसी मायने में कम नहीं होती है, बल्कि उनका अनगढ़पन ही अनूठे सौन्दर्य की सृष्टि करता है।

        असम से लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्र-प्रदेश की जन-जतियों में भी विविधता है। उनके रहन-सहन रंग-ढंग में थोड़ा-बहुत अंतर होता है, फलत: आदिवासी कलाओं में भी विविधता दिखाई पड़ती है। मुंडा, उड़ाव, भील, बिरहोर, भुईयां आदि की कलाकृतियां सर्वथा एक जैसी नहीं होती है। समग्रता से विचार करने पर हम आदिवासी कला को छ: प्रकार में बाँट सकते है। वे हैं, काष्ठ कला, बांसकला, मिट्टी की कला, चित्र-कला और नृत्य-कला।

 

बाँस-कला : आदिवासी कला में बाँसकला का महत्वपूर्ण स्थान है। बाँस के द्वारा उपयोगी सामग्री जैसे- टोकरी आदि के अतिरिक्त सजावटी सामान जैसे कलम स्टैंड, फूलदान, नाव के आकार की टोकरियाँ, चटाईयाँ, रंगारंग बक्से, मंजूषा आदि का निर्माण किया जाता है। बाँस से उपयोगी सामग्री का निर्माण आदिवासियों की जीविका से सीधे जुड़ा है। साप्ताहिक हाट में उन्हें बेचकर कमाए गए पैसे उनके जीवन का आधार है। सजावटी सामान आदिवासी कला को प्रसिद्ध बनाती है। फैशन के बदले प्रारूप ने आदिवासी कला को सजावटी सामान के कारण, अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाया है।

काष्ठ-कला : आदिवासी काष्ठ से दैनिक उपयोग की छोटी-मोटी वस्तुएँ खिलौना और महिलाओं के लिए गहने का निर्माण करते हैं।

मिट्टी-कला : आज भी आदिवासी समाज में मिट्टी के बर्तनो का प्रयोग बहुतायत से होता है। इसलिए आदिवासी मिट्टी से उपयोग के लिए छोटे-बड़े बर्तन घड़े-सकोरे आदि के साथ-साथ खिलौने आदि का निर्माण करते है। आधुनिक समय में बाहरी दुनियाँ के संपर्क में आने से वे मिट्टी के सजावटी सामानो का भी निर्माण करने लगे हैं।

चित्रकला : समाज जैसा भी हो चित्र उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता ही है। आदिवासी समाज भी इससे अछूता नही है। वे भी पर्व-त्योहारों, उत्सवों आदि पर अपने मानसिक भावों की अभिव्यक्ति या अनुष्ठानिक महत्व के कारण, चित्र बनाते हैं। आदिवासियों में चित्रकला के दो प्रकार पिथौरा चित्रकला और सोहराई चित्रकला बहुत प्रचिलित है। पिथौरा चित्रकला मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में प्रचलित है। इस कला में आदिवासी अपने घर की दीवारों पर विभिन्न प्रकार के रंगों से देवताओं की आकृति के साथ-साथ पशु-पक्षियों की आकृति का निर्माण करते हैं। आदिवासियों में यह मान्यता है, कि देवता जब उसके घर पर अपनी तस्वीर देखेंगे तो खुश होंगे और उन्हें विपत्तियों से बचाते रहेंगे।

            सोहराई कला झारखंड के आदिवासियों में प्रचलित है। खासकर हजारीबाग के बादाम क्षेत्र में यह कला अत्याधिक प्रचलित है। इस क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं पुराने समय में दूधी मिट्टी से दीवार को लीपकर विभिन्न रंगों से चित्र बनाती थी। अब दूधी मिट्टी कि जगह चूने से लीपकर चित्र बनाया जाता है। सोहराई कला को बादाम क्षेत्र के राजाओं ने भी प्रश्रय दिया। जब राज परिवार के सदस्यों का विवाह होता था तो उनके दाम्पत्य का प्रथम क्षण जिस कमरे में बीतता था, वहाँ की दीवारों पर वे संकेत चिन्हों का निर्माण करवाते थे। इस प्रकार सोहराई कला मधुबनी चित्रकारी की कोहबर चित्र से साम्य रखता है।

 

नृत्य : मनोरंजन मनुष्य की आदिम प्रवृति है और नृत्य उसका मूलाधार। आदिवासियों में भी मनोरंजन के चलते नृत्य का विकास हुआ। इसके अतिरिक्त देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भी वे नृत्य करते हैं। आदिवासियों के प्रमुख नृत्य हैं- लांगी, मुन्दडी, करमा, घूर्मा, सुआ, सैसा आदि। इन नृत्यों में महिला और पुरुष वनस्पतियों से श्रंगार करके मिलजुलकर नृत्य करते हैं। अधिकांश नृत्य ढोल की थाप पर, चाँदनी रात में, खुले में होता है।

              उपयोगी कला की बात करें तो आदिवासियों द्वारा आजीविका के लिए सखुए के पत्ते से पत्तलों का निर्माण महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

                 भारत का सभ्य और जनजातीय, दोनों समाज लोककलाओं के मायने में बहुत ही समृद्ध है। ये लोककलाएँ भारतीय संस्कृति को मजबूत आधार और बहुरंगी छटा प्रदान करती हैं। निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि अतुलनीय भारत की अवधारणा को मूर्त करने में लोककलाएँ महत्वपूर्ण नियामक के रूप में स्थापित हैं।

 

शुक्रवार, 30 मार्च 2018

डिजाईन की परिकल्पना और नाट्य निर्देशन की प्रक्रिया


डिजाईन की परिकल्पना और नाट्य निर्देशन की प्रक्रिया पर विचार करने के क्रम में हम पहले डिजाईन पर विचार करेंगे फिर नाटक के संदर्भ में डिजाईन और उसके अवयव पर विचार करेंगे, इससे उसकी परिकल्पना और नाट्य निर्देशन की प्रक्रिया आसानी से स्पष्ट हो जाएगी।

डिजाईन : साधारणतः कोई वस्तु हमारी आँखों के सामने जिस  रूप में आती है उसे हम उसका डिजाईन समझते है। डिजाईन एक ऐसा शब्द है जिस पर अलग-अलग व्यक्ति का अलग-अलग मत हो सकता है। कोई इसे सिर्फ बनावट कह सकता है तो कोई इसे वस्तुओं की पहचान स्थापित करने का माध्यम। अगर हम सूक्ष्मता से विचार करे तो हम पाते हैं कि यह बात आंशिक रूप से ही सत्य है। वास्तव में डिजाईन की अवधारणा इस से अधिक व्यापक है। वस्तुओं के रूप और सौंदर्य अभिवृद्धि के साथ-साथ कई बातें भी डिजाईन की परिधि में आते हैं। एक अच्छा डिजाईन वही होता है जिसमें सौन्दर्य के साथ-साथ सुविधाजनक उपयोगिता, मजबूती आदि गुण होता है। डिजाईन किसी एक वस्तु का, वस्तुओं के समूह का, या फिर वस्तुओं के समूह के साथ स्थितियों के संयोग का भी होता है।

डिजाईन करते समय डिजाईनर को कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है।

·        इक्षित आकार ग्रहण करना संभव हो।

·        निर्माण संभव हो

·        प्रयोग संभव हो

·        वितरण संभव हो

·        उपयोगकर्ता और समकालीन पर्यावरण के अनुकूल हो

·        मात्र सौंदर्यानुभूति प्रदान करने वाली कृति के रूप में पहचान न हो

·        समयानुकुल रुचि को प्रतिबिम्बित एवं निर्देशित करने की क्षमता वाला हो।

कोई भी डिजाईन विभिन्न तत्वों के संयोग से बने होते है। ये तत्व चार प्रकार के होते हैं : अवधारणात्मक (conceptual), दृशयात्मक (visual), संबंधात्मक (relational), और व्यवहारात्मक (practical)। ये सभी तत्व मोटे तौर पर दो श्रेणी में बांटे जा सकते है, वास्तविक और आभासी। 

जिस तरह किसी भी कलाकृति का हमारी आंखो के सामने एक रूपाकृति होता है। उसी तरह दृश्यकला होने के कारण नाटक की भी एक रूपाकृति होती है जिसका स्वरूप निर्देशक के द्वारा स्थिर किया गया होता है। नाटक की यह रूपाकृति ही उसका डिजाईन होता है। नाटक पूर्ण मनोयोग से किया जाए, सोच समझ कर, या जैसे-तैसे, प्रकृतिनुसार उसमे डिजाईन आएगा ही। एक मूल प्रश्न पर विचार करने से नाटक मे डिजाईन की स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। वह मूलप्रश्न है - नाटक क्यों किया जाता है? इसका एक साधारण उत्तर होता है, किसी कथ्य या स्थिति से दृश्यात्मकत के साथ लोगों को अवगत करने के लिए। सोच के स्तर पर एक दूसरे से भिन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा एक ही कथ्य एवं स्थितियों को प्रस्तुत करने का तरीका भिन्न-भिन्न होता है फलतः डिजाईन व्यक्ति सापेक्ष होता है। इसलिए जब एक ही नाटक को दो अलग–अलग निर्देशक निर्देशित करते है तो दोनों प्रस्तुतियों में प्रयाप्त फर्क नज़र आता है। सभ्यता में विभिन्न वादों और उसकी मान्यताओं के चलते डिजाईन की विभिन्न शैलियों का विकास हुआ है। लेकिन एक ही शैली में भी दो अलग-अलग व्यक्तियों के डिजाईन में स्पष्ट फर्क दिखाई पड़ता ही है। यह आवश्यक नहीं है, एक नाटक में एक ही शैली के अनुसार डिजाईन किया जाए। निर्देशक अपनी परिकल्पना के अनुसार विभिन्न शैलियों की विशेषताओं का प्रयोग करता है। कभी-कभी एक शैली का नाटक बिलकुल दूसरी शैली में डिजाईन करके प्रस्तुत किया जाता है। प्रख्यात निर्देशक रतन थियम द्वारा कई यथार्थवादी शैली के नाटकों को मणिपूरी लोक शैली में खेला जाना इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। टोटल थिएटर के डिजाईन की अवधारणा तो पूरी तरह से विभिन्न शैलियों के संयोग पर ही टिका है। वास्तव में डिजाईन का पूरा मामला  निर्देशक की रचनात्मकता से जुड़ा होता है। 

अब हम नाटक में डिजाईन के कार्य पर विचार करते हैं। नाटक में डिजाईन के कार्य के विषय में अमेरिकी डिजाईनर ली सिमोन्सन का कहना है, “दृश्यकला दृश्याकृतियों एवं स्थान का सृजन है जो अभिनय का अभिन्न अंग है एवं उसके अर्थ को प्रक्षेपित करती है। शैल्डन चैनी का कहना है, “दृश्य को मंचीय क्रिया की पूर्ण एवं योग्य पृष्ठभूमि होना चाहिए। रॉबर्ट एडमंड जोन्स के अनुसार “दृश्य विन्यास को क्रिया का वातावरण तैयार करना चाहिए”। इन सब विद्वानो के वक्तव्यों और व्यावहार के निरीक्षण से यह निश्चित होता है कि डिजाईन के निम्नलिखित तीन कार्य होते हैं :

1.  नाट्य क्रिया के स्थल निर्धारण का कार्य

2.  नाट्य क्रिया मे अभिवृद्धि का कार्य

3.  नाट्य क्रिया को अलंकृत करने का कार्य।

उपरोक्त बातों से यह से यह स्पष्ट हो जाता है कि डिजाईन क्या है, नाटक में इसका महत्व क्या है और इसके कार्य क्या हैं। अब हम यह विचार करते हैं कि निर्देशक डिजाईन करता कैसे है।

किसी भी नाट्य प्रस्तुति के निम्नलिखित अवयव होते है :

·        अभिनेता

·        मंचसज्जा

·        परिधान

·        रूपसज्जा

·        मंच और पात्र सामग्री

·        प्रकाश

·        ध्वनि और संगीत।

निर्देशक नाटक के इन सभी अवयवों को अलग-अलग इस तरह से व्यवस्थित करता है कि वे प्रस्तुति के दौरान अलग-अलग अलग होकर भी एक दूसरे के सापेक्षिक और नाट्यनुकूल होते हैं। नाटक के किसी भी दृश्य में निर्देशक अभिनेता के माध्यम से समूहन करता है। समूहन और  मंच सज्जा एक दूसरे के सापेक्षिक होता है; परिधान मंचसज्जा मे प्रयुक्त द्रव्यो, रंगों और प्रकाश के सापेक्षिक होत है; रूप सज्जा और संगीत प्रकाश के रंगों और अभिनय के सापेक्षिक होता है। मंच सामाग्री और पात्र सामग्री भी विभिन्न शैलियों में डिजाईन के नियामक होते हैं। इन सभी अवयवों का एक दूसरे के सापेक्षिक डिजाईन ही समेकित रूप से नाट्य प्रस्तुति का डिजाईन समझा जाता है।

प्रस्तुति के लिए नाटक का चयन हो जाने पर निर्देशक उसका अध्ययन और विश्लेषण करता है। इस क्रम मे वह कई बातों पर विचार करता है। जैसे – नाटक किस तरह का है; प्रस्तावित बजट कितना है; प्रस्तुति कहाँ होगी और वहाँ मंच किस प्रकार का होगा; दर्शक किस तरह के होंगे; उसके अभिनेता और सहयोगी कितने कुशल हैं; संसाधनों के उपलब्ध होने की संभावना कितनी है आदि। ये सब व्यावहारिक प्रश्न हैं जिसपर विचार करने के बाद निर्देशक डिजाईन की परिकल्पना करता है। कई बार ऐसा होता है की नाटक के विश्लेषण के दौरान ही डिजाईन की परिकल्पना आकार लेने लगती है। इस डिजाईन को व्यवहार कुशल निर्देशक आसानी से साकार कर सकता है लेकिन कम अनुभवी निर्देशकों को इस डिजाईन को साकार करने में बहुत परेशानी होती है। ऐसे निर्देशकों के लिए पहली स्थिति ही निरापद होती है।

निष्कर्षतः हम कह सकते है कि डिजाईन प्रस्तुति के शरीर की तरह होता है और अभिनय होती है आत्मा। जिस तरह आत्मा के लिए शरीर आवश्यक होता है उसी तरह अभिनय के लिए डिजाईन आवश्यक होता है। जिस तरह आत्मा और शरीर का संयोग एक जीवन को साकार करता है उसी तरह अभिनय और डिजाईन के संयोग से प्रस्तुति साकार होती है। जीवन का नियंता ईश्वर की तरह ही प्रस्तुति का नियंता निर्देशक होता है और परिकल्पना होती है उसकी योजना।

 

संदर्भ :

1.  दृश्य विन्याश लेखक- रवि चतुर्वेदी

2.  नाट्य प्रस्तुति एक परिचय लेखक- रमेश राजहंश

3.  कक्षा व्याख्यान                                    
  व्याख्याता : डॉ॰ विधु खरे दास, हरीश इथापे, सौति चक्रवर्ती और प्रवीण कुमार गुंजन।

 

भारतीय सिनेमा में बाजारीकरण का परिदृश्य


सिनेमा अभिव्यक्ति के सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यमों में से एक है जो हमारे समाज को हर स्तर पर प्रभावित करता है। सिनेमा की उम्र बहुत लंबी नहीं है लेकिन इसका दखल हमारे जीवन में इतना अधिक है कि पारंपरिक सभी कला रूप इसके सामने बौने हो गए है। वैसे देखा जाए तो भारत में जो सिनेमा का रूप है वह सभी कलाओं का समुच्चय कहा जा सकता है। हमारी मेलोड्राइमेटिक शैली शुरू से ही रही है क्योंकि भारत में सिनेमा को मनोरंजन का साधन ही समझा जाता रहा है। हाँ बीच-बीच में ऐसी फिल्में बनी जो सिर्फ मनोरंजन से इतर सामाजिक पारिवारिक समस्याओं को स्वस्थ तरीके से दिखाते हुये परिवर्तन का विक्षोभ उत्पन्न करने का प्रयास करती नजर आयी। ऐसी फिल्मों को बहुतायत से बनने वाली फिल्मों से इतर समझा गया। भारत में  फिल्मों का जो मुख्य स्वरूप है उसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया और इससे अलग हट कर बनने वाली फिल्मों को समय- समय पर अलग-अलग संज्ञा दी गयी। समानान्तर फिल्में मुख्य धारा से अलग हट कर बनने वाली फिल्मों को कहा गया।

भारत में सिनेमा प्रारम्भ में ही व्यवसायियों के हाथों में आ गया। उनका मुख्य उद्देश्य सिनेमा के माध्यम से धन कमाना था इसलिए वे वैसी ही फिल्में बनाते रहे जो अधिकांश लोगो को खींचकर सिनेमा घर तक ला सकती थी।  इसके लिए वे मनोरंजक फिल्में बनाते रहे। मुख्य दौर में भक्ति प्रधान फिल्में भी बनी लेकिन उनका भी उद्देश्य दर्शक को खींचना ही था। क्योंकि तब की सामाजिक स्थिति ऐसी ही थी। अंततः मूल में वही बात थी धन कमाना। जब सिनेमा का सवाक दौर शुरू हुआ तब तो पूरी तरह से मनोरंजक फिल्में ही बनने लगी। विश्व में सिनेमा के दो ध्रुव थे, अमेरिकी सिनेमा और यूरोपिय सिनेमा। अमेरिकी सिनेमा शुरू से ही व्यवसाय आधारित था। इसलिए उसमें चमक-दमक फांतासी औए सेक्स का सहारा लिया जाता था। यूरोपिय सिनेमा अमेरिकी सिनेमा के अपेक्षा सभ्य और संतुलित था। लेकिन धन उससे भी कमाया जाता था। हालाँकि भारत में अमेरिकी सिनेमा के प्रारूप को ही अपनाया गया।

1945 में इटली में फासीवाद का अंत हो गया था। युद्ध कि विभीषिका पूरे यूरोप को जर्जर कर दिया था। ऐसे में बुद्धिजीवियों में विमर्श छिड़ गया। क्या जीवन का यही रूप होता है? इस विमर्श का असर तत्कालीन सभी कलारूपों पर पड़ा सिनेमा भी इससे अछूता नहीं रहा सिनेमा तो तत्कालीन स्थितियों के अनुरूप और विरोधाभासी था ही। क्योंकि समाज में युद्ध से विपन्नता थी तो सिनेमा रोमांस और सपनों कि दुनियाँ में लोगों को भटका रहा था। और ऐसी फिल्मों को बनाने में धन भी बहुत खर्च हो रहा था। इसलिए लोगों ने सोचा कि ऐसी फिल्में बनाई जाए जो हमारे जीवन से जुड़ी हुयी हो। लेकिन उनके पास धन नहीं था। इसलिए वे कथानक तो तत्कालीन साहित्यकारों कि अच्छी कृतियों से लिया लेकिन धनाभाव के चलते कलाकार सामान्य लोगों को बनाने लगे।  सिनेमा कि दुनिया में इसे नव यथार्थवाद कहा  गया। नव यथार्थवाद के जनक इतालवी फिल्म आलोचक अंबर्टों बरबरों को माना जाता है। इस न्यू वेब के तहत ही बनी फिल्में थी। डिसिका की बाइसिकिल थिव्स। उस समय कि स्थितियों के चलते इटली के साथ-साथ फ्रांस और जापान आदि में भी यह आंदोलन फैल गया। इटली में डिसिका, रोबेरतों, रोसेलिनी, लूचीनो, सिसरे आदि; फ्रांस में त्रुफ़ों, गोदार, शाबरोल आदि। जापान में अकीरा कुरुसोवा आदि न्यू वेब की फिल्मे बनाने लगे।

1950 के दशक में जब उपरोक्त निर्देशकों की फिल्में भारत में दिखाई गयी तो तत्कालीन भारतीय निर्देशकों, विमल रॉय, सत्यजित रॉय, राजकपूर आदि को बहुत प्रभावित किया। ये लोग ऐसी फिल्में बनाने का सोचने लगे फलतः भारत में जागते रहो, दो बीघा जमीन, बूटपालिश, दो आखें बारह हाथ, जैसी फिल्में आयी। ऐसी फिल्में समाज की किसी समस्या या सच को एक कथासूत्र में पिरोकर दर्शकों के सामने परोसा। ऐसी फिल्मों को सार्थक सिनेमा कहा गया। इस बीच 1954 में ही सत्यजित रॉय पाथेर पांचाली बना चुके थे। सार्थक सिनेमा बनती तो रही लेकिन सिनेमा का मुख्य चेहरा प्रेम और सपनों कि दुनियाँ ही बना रहा। राजेंद्र कुमार जुबली कुमार कहे गए और सुपर स्टारडम का दौर शुरू हुआ। 1960-65 तक आजादी के सपने टूटने लगे थे। राजनीति से लोगों का मोह भंग होने लगा था। लेकिन सिनेमा अपने मूलचरित्र के साथ जड़ बना रहा। इस स्थिति के चलते कुछ संवेदनशील फिल्माकार बेहद आहात हुये । वे सब फ़िल्मकारों ने ऐसी फिल्में बनाने का प्रयास किया जो व्यक्तिक और सामाजिक समस्याओं को व्याख्यायित करती थी। इस क्रम में 1969 पहली फिल्म बनी मृणाल सेन की भुवन शोम’, यह बनफूल के उपन्यास पर आधारित थी। 1969 में ही बासु चटर्जी ने राजेंद्र यादव के उपन्यास पर सारा आकाश बनाया और मणि कौल ने मोहन राकेश कि कहानी पर उसकी रोटी फिल्म बनाई। यहाँ से हिन्दी सिनेमा की मुख्य धारा के समानान्तर एक नयी धारा चल पड़ी। चुकीं यह धारा मुख्य धारा के समानान्तर चली थी इसलिए इसे समानान्तर सिनेमा कहा जाने लगा। समानान्तर सिनेमा की मुख्य विशेषता थी सार्थक कथानक, गीत-संगीत की उपेक्षा सामाजिक समस्याओं कि व्याख्या और प्रतिरोध का स्वर।

समानान्तर सिनेमा कि धारा 1969 से लेकर 80 तक अजस्य रूप से बहती रही। इस दरम्यान कई नए निर्देशक भी इस धारा से जुड़े। इनमे मुख्य थे :  श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, एम एस सत्थ्यु, प्रकाश झा, सईद मिर्जा आदि। फिल्में बनी अंकुर, निशांत, मंथन, मंडी, अर्धसत्य, तमस, गर्म हवा, अंधी गली, अर्थ, दामुल, जाने भी दो यारो आदि। 1990 तक आते-आते समानान्तर सिनेमा कि धारा एकदम छिन्न हो गयी। फलतः श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक समानान्तर सिनेमा के प्रारूप में मनोरंजन के लिए गीत-संगीत जोड़ने लगे ताकि दर्शकों को जोड़ा जा सके। समांतर सिनेमा के इस बदले रूप को कला सिनेमा कहा गया।

कला फिल्में आज भी बन रही है। पान सिंह तोमर, कहानी, गैंगस ऑफ वासेपुर जैसी फिल्में इसी श्रेणी की फिल्में मानी जाती है। मुख्य धारा की फिल्में भी विभिन्न उतार चढ़ाव से गुजरकर 100 करोड़ से अधिक की कमाई करने कि स्थिति में पहूँच गयी है। लेकिन इसका स्वरूप आज भी वैसा ही है। जो भी बदलाव आया है वह बदलते सामाजिक स्थिति के कारण आया है पर मूल चरित्र वही है। सूक्ष्मता से विचार करने पर हम पाते हैं कि विभिन्न कारणों से मुख्य धारा की फिल्मों को भी दर्शक मिलना कम हो गया है। तो फिर कला फिल्मों की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। पहले भी कला फिल्मों या समानान्तर फिल्मों को दर्शक कम ही मिलते थे। कला फिल्में पुरस्कार तो प्राप्त कर लेती है लेकिन कमाई के मामाले में पिछड़ी ही रहती है। इस सब के बावजूद भी निर्देशकों की नयी खेप उत्साहवश ऐसी फिल्में बनाते रहते हैं जिससे उन्हें सम्मान तो मिलता ही है। कला फिल्में किसी-न-किसी समस्या को उठाती है इसलिए इसकी प्रासंगिकता तो है ही। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते है, फिल्म निर्माण अत्यधिक खर्चीला कार्य है। कमाई नहीं होने से कला फिल्मों का निर्माण कब तक जारी रहेगा यह कहना मुश्किल है। 

संदर्भ :

1.     सिनेमा उदभव और विकास                            
   लेखक - डॉ॰ रयाज़ हसन

2.     समसामयिक सृजन                                
   अक्टूबर- मार्च 2012-13

3.     कक्षा व्याख्यान                                              व्याख्याता - डॉ॰ सुरेश शर्मा।

मकबूल फ़िदा हुसैन के चित्र


आधुनिक भारतीय चित्रकारों में मकबूल फिदा हुसैन को सबसे प्रमुख चित्रकार माना जाता है। हुसैन का जन्म पंढरपुर (महाराष्ट्र) में 1915 में एक गरीब सुलेमानी बोहरा परिवार में हुआ था। जन्म के कुछ ही महीने बाद माँ चलबसी और कुछ वर्षों बाद पिता। इसलिए उनका लालन पालन उनके नाना के यहाँ हुआ। हुसैन को भाषा-साहित्य-धर्म-कैलिग्राफी आदि की निर्णायक पृष्ठभूमि नाना के यहाँ ही मिली। हुसैन ने इंदौर में कला की शिक्षा के बाद बंबई के जे. जे. कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट में भी दाखिला लिया, लेकिन परिस्थितिवश वापस इंदौर लौट गए। कम उम्र में ही लोगों को हुसैन की प्रतिभा का परिचय मिला जब 17 साल की उम्र में उन्हें इंदौर के एक कला प्रदर्शनी में स्वर्ण पदक मिला। प्रतिभा सम्पन्न होने के वावजूद उनका प्रारम्भिक जीवन संघर्षपूर्ण रहा इसलिए बंबई में उन्हें फिल्मों के पोस्टर तक पेंट करना पड़ा। कला की दुनियाँ में हुसैन को सम्यक प्रसिद्धि 35 साल की उम्र में 1950 से मिलनी शुरू हुई।

कला समीक्षकों ने हुसैन की कला को विभिन्न चरणों में बांटने की कोशिश की है। 1947 के बाद के चार-पाँच वर्षों में चित्रों के कच्चेपन और सादगी को आसानी से पहचाना जा सकता है। 1947 का चित्र “चाक पर काम करता कुम्हार और 1950 की पेंटिंग “किसान जोड़ा” ऐसे ही उल्लेखनीय चित्र है। इसके बाद हुसैन ने लोकजीवन को अपनी प्रेरणा का प्रमुख आधार बनाया। इस क्रम में उन्होने तैलचित्र, जलरंग, म्यूरल आदि विभिन्न माध्यमों में लोकजीवन को उतारने की कोशिश की।

पचास के दशक के अंतिम वर्षों में उन्होनें भारतीय और पश्चिमी कला की टकराहट को अपनी कला में अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से आत्मसात किया, फलस्वरूप उन्होने सर्वश्रेष्ठ चित्रों की रचना की। हुसैन रचित तब के प्रमुख चित्र है: “दो स्त्रियों का संवाद (1957), “मकड़ी और लैम्प के बीच”(1955), “दुपट्टों में तीन औरतें”(1955), नीली रात’(1959), घोड़ा आदि। ये सभी चित्र हुसैन की कला की केंद्रीय बनावट को उभारते हैं। उस दशक के दो-तीन चित्रों ने ही उन्हे आधुनिक भारतीय कला में एक विशिष्ट स्थान दिला दिया। आज भी मकड़ी और लैम्प के बीच नामक मशहूर चित्र जैसा सादा और ताकतवर चित्र भारतीय कला के इतिहास में दूसरा नजर नहीं आता है। उस दशक में हुसैन सिर्फ सक्रिय ही नहीं बल्कि सार्थक भी थे।

बाद में हुसैन ने रागमाला, नृत्य, महाभारत, रामायण, राजस्थान, कश्मीर, बनारस, मैसूर, मध्यपूर्व, आत्मचित्र आदि उनके शृखलाओं को अपनी कला की प्रेरक शक्ति बनाया। इन श्रंखलाओं के माध्यम से हुसैन ने 1955-60 में अपने चित्रों की जो पहचान स्थापित की थी, उसके विभिन्न रूपों को उभारा। हुसैन ने अपनी कला के माध्यम से आधुनिक भारतीय कलाकार की छवि को लोकप्रिय बनाया क्योंकि उनकी कला आधुनिक भी थी और उसे भारतीय जीवन से आसानी से जोड़ा जा सकता था। 1960 के बाद के हुसैन के चित्रों की दुनियाँ के विषय थे- नृत्य, संगीत, घोड़े, हाथी, चंद्रमा पर मनुष्य का पहुँचना, महात्मा गांधी, आपातकाल, मदर टेरेसा आदि। ये सभी चित्र हुसैन की कला के स्वभाव को बता देते हैं। चित्रों की विषय की विविधता हुसैन की बेचैनी को बताता है। लेकिन हर बार हुसैन अपनी बेचैनी को स्थापित नही कर सके।

बाद के युवा चित्रकाओं ने उनकी लोकप्रियता को स्वीकार किया और भारतीय कला में उनके योगदान को महत्वपूर्ण माना लेकिन बेचैनी को स्थापित होने की असफलता को लक्ष्य करके कहा- वे इतने बेचैन हैं, कि शायद ही वे किसी कैनवास को जितना समय चाहिए उतना दे पते हैं। आकृतियों में अधीरता नजर आती है, स्ट्रोक्स शैली बद्ध हो जाते है। ऐसा लगता है कि उनकी आकृतियां स्पेस में असावधानी से बिना किसी पहचान के लटकी हुई हैं

1960 के बाद कला में मास्टरी के बावजूद  भी एक कैनवास पर ज्यादा देर न टिक पाने की मजबूरी या स्वभाव ने हुसैन के प्रभाव को कम कर दिया। 1950 के दशक में हुसैन अपने चित्रों में घोड़े और हाथी को चित्रित किया था। तब से घोड़े और हाथी उनके चित्र में प्रतीक रूप बार-बार दिखने लगे| प्रतीक के रूप घोड़ा तो ऐसा रुढ़ हुआ की अंत तक उनके चित्र में दिखाई पड़ता रहा| सीमित प्रतीकों के लगातार प्रयोग के कारण हुसैन पर दोहराव का आरोप लगने लगा। ऐसे आरोप भी हुसैन के प्रभाव को कम करने का महत्वपूर्ण कारक बना।

अपने चित्रों में दोहराव के सवाल पर हुसैन ने कहा था, हाँ यह ठीक है कि  मैं अपने को दोहराता हूँ। धनवाद, अमूर्तकला आप सभी जगह यह दोहराव पाएंगे। गुप्तकाल की कई शताब्दियों तक आप इस दोहराव को देख सकते है। में जब अपनी कला में कुछ नई चीजों, कुछ बातों को दोहराता हूँ, तो मेरा मकसद अपनी कला के खास तत्वों पर ज़ोर देना होता है। लेकिन नित नवीनता का आग्रही प्रेक्षक वर्ग और कला मर्मज्ञों का बड़ा समूह उनके इस तर्क या सफाई से सहमत नहीं हुआ। इसपर हुसैन ने अपनी प्रतिक्रिया अनूठे ढंग से दिया। जब सत्तर के दशक में यह लगने लगा की हुसैन अब हाथी-घोड़े और चेहरे बनाते-बनाते शायद थक चुके हैं। उनमें जीवंतता नहीं है और नया कुछ नहीं है तो नब्बे के दशक की शुरुवात में हुसैन कैमरा और रंगीन फिल्में लेकर दक्षिण की सड़कों पर पहुँच गए। दक्षिण की सड़को पर लगे फिल्मों के विशाल पोस्टरों को हुसैन ने जिस तरह से देखा वह दृष्टि सर्वथा नई थी। उन सड़को की फिल्म संस्कृति से हुसैन जो चीजें लाए उनमें एक नया कोण और नई बात थी। वास्तव में हुसैन ने कैमरे से पेंट किया था। हुसैन ने दक्षिण के उन पोस्टरों के साथ सचमुच के लोग बूढें-बच्चे आदि को संयोजित कर तरह-तरह की तीखी टिप्पणियाँ की। इस तरह विकृतियों के सहारे जीवन को पकड़ा और जाना। अपने ऊपर लगे आरोपों की प्रतिक्रिया में हुसैन का यह कार्य कला जगत की अद्वितीय परिघटना मानी जा सकती है|

शुरुआती कुछ वर्षों के बाद विभिन्न चरणों से गुजरते हुसैन की कला के चढ़ते-गिरते ग्राफ का एक अन्य प्रबल पक्ष विवाद भी रहा। हुसैन ने अपने चित्रों में सामान्य महिलाओं के अतिरिक्त भारतीय मिथकीय चरित्रों का नग्न चित्रण किया। खास कर दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसी हिन्दू देवियों का नग्न चित्रण ने विवाद को चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। हालांकि इन चित्रों में भी रेखाओं का संयोजन एवं कलात्मक उत्कृष्टता अद्वितीय है। लेकिन नग्नता सब पर भारी पड़ गई। देश विदेश के प्रख्यात कला मर्मज्ञों और समीक्षकों ने हुसैन के चित्रों की नग्नता को भारतीय कला मूल्यों के अनुकूल बताया। उन्होने प्राचीन काल की मूर्तियों और चित्रों में विभिन्न चरित्रों के साथ-साथ देवी-देवताओं के नग्न अंकन का उदाहरण देकर हुसैन का समर्थन किया। स्वयं हुसैन ने ऐसे चित्रों के विषय में कहा, “जब मैं औरत का नग्न चित्र बनाता हूँ तो उसकी नग्नता में नंगापन नहीं होता। उस तरह की नग्नता आपको मंदिर की कला में मिलती है। भारतीय दक्षिण-पंथियो ने हुसैन की कोई सफाई नहीं मानी बल्कि तर्क करते हुए कहा, “अगर हुसैन की कला, कला मूल्यों के अनुकूल है तो उन्होने अपनी माँ का चित्र पूरे कपड़े में क्यों बनाया?” हुसैन के पास इस तर्क का कोई उत्तर नही था। दक्षिण-पंथियो के तीव्र विरोध और मुकदमे के कारण हुसैन को जीवन के अंतिम चरण में स्वधोषित निर्वसन (कतर) का दंश झेलना पड़ा।

हुसैन के द्वारा बनाए गए सभी चित्रों पर समग्रता से विचार करने पर हम पाते हैं कि, उनके चित्रों के संसार में इतनी विविधता है, जीवन का विराट उत्सव है कि उसके बारे में अलग से बात करना आसान नहीं है। उन्होने अपनी कल्पना शक्ति को शुरू से ही विभिन्न स्त्रोतों से संबद्ध किया। पश्चिमी कला से भी वे सीखते रहे और जहां तक भारतीय स्त्रोतों से सीखने का सवाल है, उसका कोई आसान ग्राफ नहीं बनाया जा सकता है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों स्त्रोतों कि सामग्रियों के साथ-साथ भारतीय कला और मूर्तिशिल्प के विशाल भंडार को उन्होने अपनी प्रेरणा का स्त्रोत बनाया। इसलिए भारतीय संस्कृति को अनेक आयमी संसार उनके चित्रों में दिखाई पड़ता है। इन स्त्रोतों से वे इतनी बार प्रेरित हुए कि गिनती करना मुश्किल है। उनके चित्रों में चेहरे, प्रतीक, रंग, ब्रश-स्ट्रोक्स एक ऐसी दुनियाँ से निकलते है जहां कलाकार कि प्रेरक शक्ति असाधारण  किस्म कि ऊर्जा है। उस ऊर्जा से संवलित हुसैन के चित्र विशिष्ट सौंदर्य कि सृष्टि करते हैं।


संदर्भ :

1.     कला-चित्रकला – विनोद भारद्वाज।

2.     भारतीय चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास – वाचस्पति गैरोला।

3.     इंटरनेट (विकिपीडिया व अन्य लिंक)।

      

 

दृश्य-श्रव्य माध्यम से जुड़े लोगों के लिए अपेक्षित अंतरानुशासनिक विषय और उसकी जानकारी



अंतर अनुशासनिक अध्ययन की अवधारणा पर के मूल में एक दार्शनिक विचार है कि ज्ञान अखंड है और विभिन्न विषय उस अखंड ज्ञान की ओर पहुँचने के रास्ते हैं। इसलिए अंततः वे किसी न किसी रूप में एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। अगर हम व्यावहारिक रूप से भी विचार करें तो यह पता चलता है कि कोई भी विषय ऊपरी स्तर पर दूसरे विषयों से स्वतंत्र दिखाता है लेकिन ज्यों-ज्यों हम उसकी गहराई में उतरते जाते हैं त्यों त्यों उस पर अन्य विषयों का प्रभाव आसानी से दिखाई पड़ने लगता है। विज्ञान जिसका आधार भावना या कल्पना न होकर शुद्ध बौद्धिकता होती है, वह भी किसी न किसी रूप में दूसरे विषयों के प्रभाव में आता ही है तो मानविकी के विषयों की बात ही क्या है जिसकी संकल्पना ही भावना-कल्पना और अवलोकन के इर्द-गिर्द घूमती है। अपने स्वरूप के कारण ही मानविकी के विषयों में अंतर अनुशासनिक अध्ययन और शोध की आवश्यकता अधिक होती है।

साहित्य और हमारा विषय प्रदर्शनकारी कला जो दृश्य-श्रव्य माध्यमों के अंतर्गत आता है, मानविकी के महत्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए स्पष्टतः ही दूसरे विषयों से प्रभावित होते हैं। कहा जाता है कि साहित्य में सभी विषयों का समाहार होता है। लेकिन लिखित रूप में जबकि दृश्य श्रव्य माध्याम में साहित्य को दर्शकों या श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जिसके लिए विभिन्न कलाएं, जैसे – अभिनय, संगीत आदि के अतिरिक्त के अतिरिक्त वैज्ञानिक तकनीकों का भी उपयोग होता है। इस तरह दृश्य-श्रव्य  माध्यम अंतर अनुशासनिक स्तर पर साहित्य से भी कई कदम आगे निकल जाता है। दृश्य-श्रव्य माध्यामों की संबद्धता जिन प्रमुख अंतर अनुशासनिक क्षेत्रों यानि विषयों से है वे विषय हैं : इतिहास, दर्शन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, चित्रकला, संगीत, नृत्य, ध्वनि और प्रकाश। इसके अतिरिक्त सिलैबस में एक बिन्दु है प्रस्तुतीकरण के अन्य आधुनिक तकनीकी प्रसाधन। इसके अंतर्गत कई छोटी बातें आती हैं।

इतिहास :

जब कोई ऐसा नाटक, फीचर फिल्म, डॉक्यूमेंटरी,धारावाहिक आदि बनाया जाता है जिसका आधार ऐतिहासिक कहानी हो तो इसके लिए इतिहास की जानकारी आवश्यक हो जाती है न केवल तथ्यों या आंकड़ों के स्तर पर बल्कि कला और संस्कृति दोनों स्तर पर क्योंकि जिस काल खंड या चरित्र से जुड़ी कहानी होती है उस काल खंड के परिवेश और उस चरित्र को विश्वसनीय तरीके से दिखाना होता है। इसके लिए आवश्यक होता है कि फ़िल्मकारों और नाट्य निर्देशकों को इतिहास की जानकारी हो। बड़ी फिल्मों में, फिल्म यूनिट में इसके लिए इतिहासकार को रखा जाता है या रखा जा सकता है। लेकिन नाटकार या पटकथा लेखक व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा कर नहीं सकते। बजट आदि की परेशानी के चलते सभी फ़िल्मकार भी ऐसा नहीं कर सकते हैं। अगर इतिहासकार की सहायता ली भी जाए तो भी रचना-प्रक्रिया की जटिलता, माध्यम की सीमाओं आदि की जानकारी कलाकारों को होती है इतिहासकारों को नहीं। उनसे जानकारी तो मिल सकती है लेकिन उसे फिल्म या नाटक में किस प्रकार स्वभविक रूप से रखा जाए यह कलाकार ही कर सकते हैं। इसलिए उन्हें इतिहास की जानकारी होना आवश्यक हो जाता है। कला निर्देशक के लिए तो इतिहास की अच्छी जानकारी अनिवार्य ही है।

दर्शन :

जब दृश्य-श्रव्य माध्यम से कुछ भी प्रस्तुत किया जाता है तो प्रस्तोता वस्तुतः दर्शकों या श्रोताओं तक कोई विचार संप्रेषित करने का प्रयास किया जाता है। प्रस्तुतकर्ता का प्रयास सायास हो या अनायास पर कोई भी विचार ऐसा नहीं होता है जो किसी न किसी दर्शन के लपेटे में ना आता हो। नई रचनाएँ तो समकालीन दर्शन से प्रभावित होती ही है, पुरानी पुरानी रचनाएँ भी तत्कालीन दर्शन से अवश्य प्रभावित होती है। प्रस्तुति प्रभावशाली हो इसके लिए यह आवश्यक होता है कि उससे जुड़े लोगों को दर्शन की अच्छी समझ हो। किसी भी प्रस्तुति में  दर्शन ना केवल कथ्य और शैली बल्कि शिल्प तक भी व्याप्त हो सकता है। यहाँ तक की एक ही प्रस्तुति में कई दर्शनों का प्रभाव भी दिखाया जा सकता है बशर्ते की प्रस्तोता को उन दर्शनों की अच्छी समझ हो। अतः किसी भी तरह का संदेह विवाद और भ्रम उत्पन्न करनेवाली प्रस्तुति से बचने के लिए उससे जुड़े लोगों को दर्शन का ज्ञान हो यह अपेक्षित हो जाता है।

समाजशास्त्र :

जैसी भी प्रस्तुति हो उसमें दिखाई जानेवाली परिघटना समाज से संबन्धित होती है। मनुष्य की व्यतिगत भावनाएँ भी सामाजिक शक्तियों से प्रभावित होकर रूपाकार ग्रहण करती है। हमें कल्पना की उड़ान हमें जहां भी ले जाए लेकिन अंततः हमें पाँव समाज की धरातल पड़ टिकना ही पड़ता है। यही कारण है की फंतासी फिल्मों में भी किसी न किसी रूप में समाज दिखाई पड़ ही जाता है। कोई भी समस्या समाज से परे नहीं होती या उसका प्रभाव समाज पर होता है ऐसे में यह अनिवार्य है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम से जुड़े लोगों को सामाजिक संरचना और उसकी कार्यकारी शक्तियों का ज्ञान हो जो समाजशास्त्र के अध्ययन से ही संभव है।

मनोविज्ञान :

किसी भी नाटक और फिल्म की सफलता के लिए यह आवश्यक होता है कि निर्देशक और कलाकार दोनों को चरित्रों की मानसिकता की सही समझ हो। इसके अतिरिक्त  दृश्य-श्रव्य माध्यम से जो भी प्रस्तुत किया जाता है उसके केंद्र में होते हैं कलाकार और साथ ही बहुत सारे पार्श्वकर्मी भी होते हैं। ये सभी चेतनशील प्राणी होते हैं। खासकर प्रदर्शनकारी कलाओं के संदर्भ में कहा जाता है कि निर्देशकों का औज़ार जीवित प्राणी होता है जिससे वह रचना करता है। जीवित प्राणी मन से परिचालित होता है। इसलिए वाद-विवाद, आशा-निराशा, आक्रामकता-निष्क्रियता की संभावना प्रबल होती है। इसलिए किसी भी प्रकार की अवांछित स्थिति को प्रबंधित करने के लिए और प्रस्तुति की उत्कृष्टता  तभी संभव होती जब इससे जुड़े लोगों को मनोविज्ञान का ज्ञान हो। मनोविज्ञान के ज्ञान के विना सफल प्रस्तुति संभव नहीं हो सकती है।

चित्रकला :

फिल्म और नाटकों मे चित्र कला का योगदान प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष होता है। कोई भी अच्छा चित्रकार अपने चित्रों में प्रकाश और छाया, रंगों और आकृतियों के समूहन की बहुत ही सुंदर योजना करता है। अच्छे चित्रों को देखने से फिल्म और नाटकों में प्रकाश योजना, वस्त्र योजना, कलाकारों के बीच के समूहन को प्रभावी बनाने में सहायता मिलती है। फिल्मों में स्टोरी बोर्ड के निर्माण के लिए भी चित्रकला की जानकारी आवश्यक होती है।

संगीत और नृत्य :   

संगीत और नृत्य की स्वतंत्र लोकप्रियता तो है ही। नाटकों में फिल्मों में इसका प्रयोग प्रदर्शन को सरस और मनोहर बना देता है जिससे उसकी रंजकता बढ़ जाती है। लेकिन इन दोनों तत्वों का असंतुलित प्रयोग प्रदर्शन में विसंगति उत्तपन्न कर देते है क्योंकि प्रस्तुति में इसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है बल्कि इसे कथा वस्तु के साथ समायोजित किया जाता है। इस कार्य के लिए फिल्मों और नाटकों में अलग से संगीतकार और नृत्य निर्देशक रखे जाते हैं। लेकिन नृत्य और संगीत का समायोजन सम्यक तरीके से हो इसलिए  संबन्धित विधा कए निर्देशक को नृत्य और संगीत की न केवल समझ बल्कि उसके इतिहास की भी जानकारी होनी चाहिए।   

भारतीय लोकनाट्य की प्रमुख शैलियाँ और कर्नाटक का यक्षगान


भारत में प्राचीनकाल से ही लोकनाटकों की समृद्ध परंपरा रही है। इसकी पुष्टि विद्वानो के इस मत से होती है कि शास्त्र लोक का अनुगामी होता है। इस मत के अनुसार नाट्यशास्त्र जैसे  ग्रंथ की रचना तभी संभव है जब लोक का सुदृढ़ आधार हो। लेकिन नाट्यशास्त्र में एक दो जगह लोक की चर्चा के अतिरिक्त तत्कालीन लोकपरंपरा के विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती है। वर्तमान समय में भारत में लोक नाटकों की परंपरा है उसमे से अधिकांश का उद्भव संस्कृत रंगमंच की अवनति के बाद, मध्यकाल में हुई है। इन लोकनाटकों में सबसे प्राचीनतम कूडियट्ट्म को माना जाता है। लेकिन डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद मिश्रा का मानना है कि कथाकली और कूडियट्ट्म जैसे दक्षिणी लोकनाट्य रूप का विकास पहली-दूसरी शताब्दी में हुआ था। लेकिन वे यह भी  कहते हैं,लोकमञ्च का व्यवस्थित विकास उपलब्द्ध सामाग्री के आधार पर सर्वप्रथम दक्षिण में दृष्टिगत होता है। ईसवी सन की प्रारम्भिक शताब्दी में सूदूर दक्षिण में लोकनाटक के एक विशिष्ट स्वरूप का उदय हुआ, जिसे आज हम कथाकली के रूप में जानते हैं। विद्वानो का मानना है कि यह नृत्य- नाटक किसी घटनाक्रम को नहीं, वरन मात्र वीरता के मनोभाव का प्रदर्शन करता था। आगे चलकर उसमें कथावस्तु का भी संयोजन होने लगा, और फिर वह नृत्य से नाटक बन गया[1] आगे कहना है कि प्रारम्भिक स्वरूप उसका नाट्यत्मक नहीं था जी बाद में हुआ। यह भी प्रमाणित हो चुका है कि केरल के कुलशेखरवर्मन ने दसवीं शताब्दी में कूडियट्टम की शुरुआत की थी[2]

उपरोक्त प्रमाणो के अतिरिक्त वर्तमान सभी लोकनाटकों में परंपरा के साथ-साथ नाट्यशास्त्र के कुछ प्रावधानों (सूत्रधार की उपास्थिति, पूर्वरंग योजना आदि ) के कारण इस बात को बल मिलता है कि उनका उद्भव संस्कृत रंगमंच के बाद हुआ है। उपरोक्त उद्धरण भी इस मत को बल प्रदान करता है। एक मत यह भी है कि अधिकांश लोकनाटको का अनुष्ठानिक स्वरूप भक्ति आंदोलन कि देन है। यह आंदोलन दक्षिण में उपजा और सूदूर उत्तर तक लगभग सम्पूर्ण भारत को प्रभावित किया। इस मतानुसार भी यह संकेत मिलता है कि लोकनाटकों का विकास पहले दक्षिण में हुआ। लेकिन कुछ लोकनाटक ऐसे भी हैं जिनका स्वरूप अनुष्ठाणिक न होकर सामाजिक होता है। ऐसे लोकनाटकों को अनुष्ठानिक लोकनाटकों का परवर्ती माना जाता है।

सांस्कृतिक विविधता वाला भारतीय भूभाग में लगभग सभी कला की कई-कई लोक शैलियाँ प्रचलित है। नाटक इन सब में प्रथम स्थान पर है। भारत के सभी राज्यों मे एक से अधिक लोकनाटकों की परंपरा है। इन नाटकों में प्रमुख हैं : रासलीला, रामलीला, असम के अंकिया नाट, मणिपुर का थंगटा, बिहार के किरतनिया नाट, विदापत और विदेसिया, बंगाल की जात्रा, मध्यप्रदेश का माँच, राजस्थान के ख्याल और गम्मत, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और पंजाब के नौटंकी और सांग, कश्मीर के भांडजश्न और भांडपथर, हिमाचल प्रदेश का करियाल, गुजरात का भवई, महाराष्ट्र का तमाशा, उड़ीसा के दांडनाट और पाला, आन्ध्रप्रदेश में भामाकल्पम, वीथीनाटकम, तमिलनाडु का भगवतमेल और तेरुकुत्तू, केरल का कूडियट्टम और चविट्टुनाटकम तथा कर्नाटक के होड्डत्ता, बयालता  और यक्षगान।  

यक्षगान : दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में जब दक्षिण भारत में भक्ति-आंदोलन का उदय हुआ तो उसका व्यापक प्रभाव लोकरंगमंच पर पड़ा। ऐसी कथाएँ प्रदर्शित की जाने लगी जिसमें भगवान की महिमा का गुणगान होता था। इसके लिए प्रदर्शन की विशिष्ट शैली का विकास हुआ। इसी क्रम में कर्नाटक राज्य में यक्षगान नाम के एक विशेष लोक-नाट्य का विकास हुआ।[3] इस लोकनाटक में कथावस्तु, रामायण, महाभारत और भागवत से लिए जाते हैं। खासकर वे प्रसंग चुन जाता है जिसमें युद्ध का वर्णन हो। ये नाटक अंत तक आते–आते विष्णु-भक्ति को जगानेवाले होते हैं। प्रदर्शन रात भर चलता है। अगर एक कथा समाप्त हो जाता है तो दूसरी कथा समाप्त हो जाती है लेकिन अगर कथा बड़ी हो तो उसे छोटा करके सूर्योदय से पहले खत्म कर दिया जाता है। यक्षगान का आरंभ में दो बालक कृष्ण और बलराम की भूमिका में मंच पर आते हैं और पूरा प्रदर्शन देखते हैं। अंत में उन्हें औपचारिक रूप से विदा किया जाता है।

चार खंभों पर खड़ा यक्षगान का मंच मुक्ताकशी होता है जिसके चारों ओर बैठकर या खड़े होकर दर्शक प्रदर्शन देखते हैं। मंच पर सामाग्री के तौर पर मंच पर एक नीची चौकी या फिर एक सन्दूक रखा रहता है जिसे अवश्यकतानुसार कभी आसान तो कभी सिहासन के तौर पर उपयोग किया जाता है ।मंच के एक तरफ भागवत बैठता है। उसी के आसपास वादकदल भी बैठता है। पूरे प्रदर्शन में भागवत केंद्रीय महत्व वाला व्यक्ति होता है। ऐसा नहीं है कि लोकनाटकों की महत्वपूर्ण विशेषता सूत्रधार इसमे नहीं होता है लेकिन संस्कृत नाटकों में जो महत्व सूत्रधार का होता था वैसा महत्व भागवत का होता है। सूत्रधार तो प्रारम्भ आकार बस सूचना देकर चला जाता है जबकि भागवत आदि से अंत तक मंच पर बना रहकर सम्पूर्ण नाटकीय कार्यक्रम का संचालन करता है। वस्तुतः वह प्रस्तोता और निर्देशक दोनों होता है। वही मूलपाठ का गायन करता है; नृत्य-लय का निर्देश देता है। उसकी प्रतिष्ठा मंच पर आचार्य रूप में होती है।

यक्षगान के मंच पर भागवत के अतिरिक्त एक अन्य पात्र हनुमन्नायक या कोदंगी होता है जो उसी की तरह अंत तक उपस्थित रहता है। कोदंगी दर्शकों का प्रीतिनिधि होता है भागवत से प्रश्न उत्तर करके विषय को स्पष्ट करता है तो अपनी वाकपटुता से दर्शकों को हँसाता रहता है। इसलिए इसे हास्यागर भी कहा जाता है। कभी-कभी वह अनर्गल बात भी करता है। कोदंगी ही पात्रों का परिचय करवाता है और कथा सूत्रों और प्रसंगों को आपस में जोड़ता भी है। वह आवश्यकता पड़ने पर संदेशवाहक आदि की छोटी-मोटी भूमिका भी करता। प्रदर्शन की यह विशेषता लोक नाटकों की शक्ति होती है। अगर संस्कृत नाटक के चरित्रों से इसकी तुलना करें तो कह विदूषक के करीब होता है लेकिन यह विदूषक की भांति कथावस्तु से जुड़ा न रहकर स्वतंत्र होता है। इसलिए इसकी वेश-भूषा और रूप-सज्जा कहानी के युग की नहीं बल्कि समसामयिक होती है।

यक्षगान के प्रदर्शन का आरंभ भागवत और कोदंगी की विनोद-क्रीड़ा के साथ आरंभ होता है।[4] पहले पूर्वरंग की व्यवस्था होती जिसमें विघ्नविनाशक गणेश के साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है। गणेश के सामने वेषभूषा और रूपसज्जा की सामाग्री उनके आगे रखी जाती है और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता है। उनके द्वारा भागवत और वादकों को उपहार दिलाया जाता है और फिर मंच पर पात्रों का प्रवेश होता है।

यक्षगान में पात्रों का प्रवेश एक विशेष तरीके से होता है। पहले दो लोग एक कपड़े का टुकड़ा लेकर मंच पर खड़े हो जाते हैं। एक कलाकार पर्दे के आगे नृत्य करने लगता है और नृत्य करते-करते पर्दे को थोड़ा नीचे झुका देता है और वह पात्र दर्शकों के आगे प्रकट हो जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता रहता है जब तक दृश्य के सभी कलाकार मंच पर आ नहीं जाते है। जब सभी कलाकार मंच पर आ जाते हैं तो पर्दा हटा दिया जाता है। पर्दा हट जाने पर कोदंगी एक-एक पात्र का नाम लेकर बुलाता है और वह नृत्य करके मंच पर एक कोने में खड़ा हो जाता है। पात्र-परिचय में नृत्य की अनिवार्यता होती है। पात्र परिचय के बाद भागवत भूमिका रूप में कुछ पंक्तियों का गायन करता है। इस गायन के बाद कोई पात्र कथा सूत्र का स्पष्टीकरण करता करता है और भागवत उसके वक्तव्य के बीच में हुंकारी भरकर अथवा कोई अन्य चेष्टा करता रहता है।

यक्षगान के सभी चरित्र बहुत ही तड़क-भड़क वाला और प्रभावपूर्ण वेषभूषा पहनकर मंचपर आते हैं। वेश-भूषा में चटख रंगों का प्रयोग होता है, विशेषकर हरे, नीले और लाल रंगों का। कंठ और बाहों पर विशेष प्रकार के आभूषण होते हैं। संघर्षपूर्ण प्रसंग को प्रभावशाली दिखने के लिए चरित्रों के वक्ष पर सुनहरा पट होता है। सिर पर चमकदार मुकुट होता है। भुजाओं पर पंखे के आकार का विशेष विन्यास होता है। दुष्ट आत्माएँ और दानवीय चरित्रों के लिए भयंकर मुखौटे का प्रयोग किया जाता है। दिव्य चरित्रों का रूप बहुत ही सौम्य होता है। कभी-कभी उनके लिए भी मुखौटे का प्रयोग किया जाता है। अर्धमानव जैसे गंधर्व आदि की रूप सज्जा भी बहुत ही मनमोहक होती है। वेषभूषा की यह विशिष्टता परंपरा से विकसित हुई है और रूढ़ हो चुकी है।

यक्षगान की संघर्षपूर्ण वस्तुयोजना, खासकर देव-दानव युद्ध, के चलते संवाद बहुत ही ओजस्वी होता है। युद्ध प्रदर्शन के चलते कभी-कभी किसी पात्र की मृत्यु दिखाना आवश्यक होता है तो उसे स्पष्ट नहीं दिखाकर नाट्यशास्त्र की रूढ़ि का पालन करते हुए उस पात्र को कपड़े की आड़ कर दिया जाता है और वह मंच से चला जाता है। संघर्षपूर्ण वस्तुयोजना के चलते ही यक्षगान में स्त्री-चरित्रों को विशेष स्थान नहीं मिलता है।

यक्षगान में पात्रों को यह छूट होती है की वे अपने संवाद प्रसंगानुकूल बना सकें इसके लिए भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ होना आवश्यक होता है। इसके साथ ही अपने चरित्र का मनोविज्ञान और अपने प्रतिपक्षी के मनोविज्ञान की समझ के साथ-साथ तार्किक होने की अपेक्षा की जाती है ताकि वे प्रसंग के अनुरूप वाणी-कौशल का उपयोग करके उपयुक्त उद्धरण दे सके; मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग कर सके।

भारत में लोकनाटकों का जो स्वरूप है उसे अङ्ग्रेज़ी शब्द ‘folk play’ का हिन्दी अनुवाद के संदर्भ में देहाती और गवारों का नाटक कतई नहीं कहा जा सकता है। साहित्यिक आधार, अभिनय तकनीक, गीत संगीत आदि विशेषता के कारण इसे कला की जो उत्कृष्टता प्राप्त होती है वह सहज ही शहरी प्रबुद्धजन को भी आकर्षित करती है। शायद इसी कारण भारत में अधिकांश आधुनिक प्रख्यात नाट्यनिर्देशकों ने लोकनाटक के तत्वों का सहारा लेकर अपनी शैली विकसित की है। लोकनाटकों की इस व्यापकता के चलते ही परंपरशील नाट्य के ग्रंथकार जगदीशचन्द्र माथुर को इसे लोकनाटक कहना समीचीन नहीं लगता है। वे ऐसे नाटकों के लिए परंपरशील नाट्य कहने के हामी हैं जो सर्वथा उचित प्रतीत होता है।       

सहायक ग्रंथ :

1.     मिश्र, डॉ॰ विश्वनाथ, 2003 ई॰ (प्र॰प्र॰), भारतीय और पाश्चात्य नाट्यसिद्धांत, कुसुम प्रकाशन, मुजफ्फ़र नगर (नई दिल्ली)।

2.     माथुर, जगदीशचंद्र, 2006 ई॰ (प्र॰स॰), परंपराशील नाट्य, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली।

3.     झा श्याम’, सीताराम, 2000 ई॰ (प्र॰स॰), नाटक और रंगमंच, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना।

4.     वर्मा, डॉ. उषा, 2014 ई॰ (प्र॰स॰), लोकरंग : बिहार, डी. एस. बुक्स डिस्ट्रीब्यूटर, पटना।

5.     चातक, गोविंद, 1998 ई॰, रंगमंच : कला और सृष्टि, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली।

6.     चौबे, संतोष (प्र॰सं॰), अप्रैल-जून 2001, रंग संवाद (पत्रिका), वनमाली सृजन पीठ, भोपाल।    

[1] भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त, पृष्ठ-229।
[2] परंपरशील नाट्य, पृष्ठ-28 ।
[3] भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त, पृष्ठ-231।
[4] भारतीय और पाश्चात्य नाट्यसिद्धान्त, पृष्ठ-232।