सोमवार, 30 अप्रैल 2018

भारतीय लोककलाओं के बीच आदिवासी कला


मनुष्य की प्रमुख प्रवृतियाँ होती है, आनंद प्राप्त करना, मनोरंजन को संजोना तथा स्थितियों का अनुकरण करना। इन्हीं प्रवृतियों के कारण किसी भी सभ्यता में कला का विकास होता है। जब कला की शुद्धता को बनाए रखने के लिए उसे शास्त्र के नियमों में आबद्ध किया जाता है तो कला संस्कारित होती है और उसे शास्त्रीय कला कहा जाता है और यह साधारणतया प्रबुध्द वर्ग में लोकप्रिय होती है। इसके विपरीत कला का प्रारम्भिक रूप जनसामान्य के बीच प्रचलित रहता है और उसके विकास में नियमों से ज्यादा परंपरा का योगदान रहता है। कला का यही रूप लोककला कहलाती है। अगर हम कला को फूल मान लें तो तुलनात्मक रूप से विचार करने पर हम कह सकते हैं कि गुलदस्ते में फूलों का संयोजन शास्त्रीय रूप है, तो घाटी में बेतरतीब खिले फूल लोक रूप। लेकिन सौन्दर्य दोनों में होता है इससे कतई इंकार नहीं किया जा सकता। अगर गुलदस्ते में सजे फूल हमें सम्मोहित करते हैं, तो घाटी में सजे फूल सम्मोहन के साथ-साथ अन्य प्रभावों से मिलकर मंत्रमुग्ध करने की क्षमता रखते हैं।

         कला के किसी भी प्रकार में शास्त्रीय और लोक दोनों स्वरूप होते हैं। लोक-कलाओं की अपनी विशेषताएँ होती है। इसमें शास्त्रीय नियमों की बाध्यता नहीं होने से नवीनता के समावेश का पर्याप्त अवसर होता है। लोक-कला जन-समान्य के जीवन से जुड़ी होती है और मूल संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती है। जन-समुदाय का रंग-ढंग और रहन-सहन, देश-काल और भौगोलिक स्थितियों के अनुसार अलग-अलग होता है। इसलिए लोक-कलाओं में भी क्षेत्रीयता होती है। किसी भी सभ्यता में कला का प्रारम्भिक विकास के बाद ही उसे शास्त्र में आबध्द किया जाता है। इस आधार पर लोक-कला को शास्त्रीय कला की जननी भी कहा जा सकता है।

          भारत में हमेशा से ही कलाएँ और हस्तशिल्प इसकी सांस्कृतिक और परंपरागत प्रभाव को अभिव्यक्त करने का माध्यम बने रहे हैं। यहाँ के हर राज्य और संघक्षेत्रों में विभिन्न कला रूपों के अंतर्गत लोक-कलाओं की बहुत अधिक संख्यां है। सभी लोककलाओं के स्वरूपों की जानकारी, वर्णन और विश्लेषण एक बड़े प्रबंध की अपेक्षा रखता है। लेकिन मोटे तौर पर उन्हें चित्रकला, मूर्तिकला, नृत्य, नाट्य, संगीत, साहित्य आदि में बांटकर विचार किया जा सकता है.

चित्रकला : भारत के सभी प्रदेशों के विभिन्न अंचलों में चित्रकला की विभिन्न लोक-शैलियों का प्रचलन है। चित्रकला की सभी लोक-शैलियाँ किसी न किसी रूप में एक दूसरे से अलग हैं। इनमें से अधिकांश शैलियों का आनुष्ठानिक महत्व रहा है। इसलिए इनमें धार्मिक-आध्यात्मिक चित्रों और प्रतीकों को उभारा जाता है। इन लोक-शैलियों में प्रमुख है- बिहार की मधुबनी चित्रकारी, ओड़ीसा राज्य की पत्ता चित्रकारी, सीमांध्र और तेलंगाना की निर्मल चित्रकारी, तंजौर कला, महाराष्ट्र की वर्ली चित्रकारी, दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रचलित कालमेजुयु, बंगाल में अल्पना, छोटा नागपुर प्रक्षेत्र के आदिवासियों में प्रचलित सोहराई कला आदि। इन सभी कलाओं की शुरुआत के केंद्र में अनुष्ठान या धार्मिक मान्यता रही है। अधिकांश शैलियों के चित्र पहले घर की दीवारों पर या जमीन पर गोबर या मिट्टी से लीपकर विभिन्न प्रकार के प्राकृतिक चटख-रंगों से बनाये जाते थे। सिर्फ वर्ली चित्रकला अत्यंत सादी होती है, लेकिन उसकी भी प्रभावोत्पादकता अन्य शैलियों से कम नहीं होती है। आधुनिक समय में ये शैलियाँ बहुप्रचारित होकर प्रबुद्ध शहरी वर्ग के फैशनेबल कपड़ों तक पर दिखाई पड़ने लगी है।

मूर्तिकला : मूर्तिकला की भारतीय लोकशैली की झलक विभिन्न त्योहारों के अवसर पर बनाए जाने वाले देवी-देवताओं की मूर्तियों में मिलती है। इन मूर्तियों को अंग-प्रत्यंगो की सही नाप-तौल के अनुसार न बनाकर अपनी सुविधा या क्षेत्रिय चलन के अनुसार बनाई जाती है। बंगाल की मूर्तिकला में बड़ी-बड़ी तिरछी आँखें, छोटी नुकीली नाक के साथ सुंदर छोटे ओंठ का संयोजन दुर्गा और काली की मूर्ति में स्पष्टत: दिखाई पड़ता है। इसी तरह महाराष्ट्र की मूर्तियों, दक्षिण भारत की मूर्तियों और हिंदी क्षेत्र की मूर्तियों को बनावट और रूप-श्रृंगार के आधार पर तुरंत पहचाना जा सकता है।

नाटक : भारत के सभी प्रदेशों में लोक-नाटकों के विभिन्न रूप हैं। कश्मीर में भांडजशन और भांडपथर, हिमाचल प्रदेश में करियाल, हरियाणा में स्वांग, उत्तर प्रदेश में नौटंकी, बंगाल में जात्रा, असम में अंकिया, मणिपुर में थंगटा, मध्य प्रदेश में माच, महाराष्ट्र में तमाशा, आंध्रप्रदेश में भागवतमेल, उड़ीसा में पाला, केरल में थैयम, कर्नाटक में यक्षगान, गुजरात में गरबा आदि। इसके अतिरिक्त रामलीला और रासलीला किसी न किसी रूप में सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है।

नृत्य : लोक नृत्य सहज उल्लास की अभिव्यक्ति होते हैं. भारत के सभी राज्यों में लोकनृत्यों की संख्यां को मिला दिया जाए तो इनकी संख्यां सैकड़ों होंगी. ये लोकनृत्य कृषि कार्य की समाप्ति, जन्म, विवाह और त्योहार आदि के अवसर पर किए जाते हैं। इनमे से अधिकांश अब मृतप्राय हो गई हैं. आज  प्रचलित लोकनृत्य हैं− छऊ, बिहू, पंथी, भांगड़ा, गिद्धा, लौंडानाच, डांडिया, सरहुल, कर्मा, गरबा, घूमर, कलबेलिया आदि।

लोकगीत : भारतीय जनमानस का संगीत से जुड़ाव विश्वप्रसिद्ध है। यहाँ जन्म से लेकर मरने तक के अवसर पर गीत गाए जाते हैं। पर्व त्यौहार की तो बात ही निराली है। भारतीय अंचलों में विभिन्न अवसरों पर गाए जानेवाले लोकगीत हैं, चैता, होली, कजरी, बरहमासा, झूमर, सोहर, बधाई, बटगवनि, बिरहा, विवाह गीत, समदाऊन (विदाई गीत), परिछन (स्वागत गीत), आदि। इन गीतों में कुछ गीत पुरुषों के द्वारा तो कुछ गीत महिलाओं के द्वारा गाए जाते हैं। विवाह गीत, जन्म उत्सव पर गाए जाने वाले गीत, झूमर आदि सामान्यत: महिलाएं ही गाती हैं। इसके अतिरिक्त कुछ धार्मिक लोकगीत भी होते है जैसे- नचारी, विद्यापति के पद, देवी गीत, प्रातकाली आदि। ऐसे गीत स्त्री और पुरुष दोनों गाते हैं। कुछ लोकगीत साज-वाज के साथ गाए जाते हैं, तो कुछ उसके बिना भी। लेकिन सामूहिकता उसका प्रधान गुण होता है। ढोल पर थाप और मजीरे के ताल पर गायक ऐसा समा बांधते हैं कि श्रोता सहज ही थिरकने लगता है।

लोकसाहित्य : भारत में लोकसाहित्य का स्वरूप प्रारम्भ में लिखित न होकर मौखिक ही था। प्राय: हर प्रदेश में पशु-पक्षी की प्रेरणास्पद कथा, राजा-महाराजाओं की गाथा और प्रेमाख्यानों की लोक-परंपरा रही है। आधुनिक काल में इन आख्यानो को लिपिबद्ध किया गया है। कई दन्त कथाओं को आधार बनाकर उच्च कोटी के साहित्य की रचना की गई है।

हस्तशिल्प : उपरोक्त लोक-कला रूपों के अतिरिक्त एक अन्य रूप हस्तशिल्प भी है। इसमें भी प्रदेश के अनुसार अंतर और विविधता पायी जाती है। भारत के प्रमुख हस्तशिल्प में, दस्तकारी, फुलकारी, कढ़ाई के विभिन्न प्रकार, एप्लिक, मंजूषा, चिकनकारी, कठपुतली निर्माण, गुड़िया निर्माण, काठ के विभिन्न प्रकार के खिलौने, बांस की सजावटी और उपयोगी सामग्रियाँ आदि को माना जाता है।

         भारतीय लोककलाओं को दो प्रकार से विभेदित कर सकते हैं − समाज की मूलधारा में प्रचलित कला और वन-प्रांतर में रहनेवाली जनजातियों के बीच प्रचलित कला। वन-प्रांतर में रहने वाली जनजातियों को आदिवासी कहा जाता है। अत: उनके बीच में प्रचलित कला को आदिवासी कला के रूप में मान्यता दी जाती है। चूंकि लोककलाएँ लोगों के जीवन, परिवेश और प्रकृति के बेहद करीब होती हैं और उनके द्वारा उद्भाषित सौन्दर्य का मानक संबन्धित समाज के सापेक्ष होता है।  इसलिए आदिवासी कला में भी आदिवासीयों के जीवन दृष्टि के अनुसार एक अनगढ़पन होता है, लेकिन उसकी प्रभावोत्पादकता समाज की मुख्य-धाराओं की कला से किसी मायने में कम नहीं होती है, बल्कि उनका अनगढ़पन ही अनूठे सौन्दर्य की सृष्टि करता है।

        असम से लेकर झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश, महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्र-प्रदेश की जन-जतियों में भी विविधता है। उनके रहन-सहन रंग-ढंग में थोड़ा-बहुत अंतर होता है, फलत: आदिवासी कलाओं में भी विविधता दिखाई पड़ती है। मुंडा, उड़ाव, भील, बिरहोर, भुईयां आदि की कलाकृतियां सर्वथा एक जैसी नहीं होती है। समग्रता से विचार करने पर हम आदिवासी कला को छ: प्रकार में बाँट सकते है। वे हैं, काष्ठ कला, बांसकला, मिट्टी की कला, चित्र-कला और नृत्य-कला।

 

बाँस-कला : आदिवासी कला में बाँसकला का महत्वपूर्ण स्थान है। बाँस के द्वारा उपयोगी सामग्री जैसे- टोकरी आदि के अतिरिक्त सजावटी सामान जैसे कलम स्टैंड, फूलदान, नाव के आकार की टोकरियाँ, चटाईयाँ, रंगारंग बक्से, मंजूषा आदि का निर्माण किया जाता है। बाँस से उपयोगी सामग्री का निर्माण आदिवासियों की जीविका से सीधे जुड़ा है। साप्ताहिक हाट में उन्हें बेचकर कमाए गए पैसे उनके जीवन का आधार है। सजावटी सामान आदिवासी कला को प्रसिद्ध बनाती है। फैशन के बदले प्रारूप ने आदिवासी कला को सजावटी सामान के कारण, अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाया है।

काष्ठ-कला : आदिवासी काष्ठ से दैनिक उपयोग की छोटी-मोटी वस्तुएँ खिलौना और महिलाओं के लिए गहने का निर्माण करते हैं।

मिट्टी-कला : आज भी आदिवासी समाज में मिट्टी के बर्तनो का प्रयोग बहुतायत से होता है। इसलिए आदिवासी मिट्टी से उपयोग के लिए छोटे-बड़े बर्तन घड़े-सकोरे आदि के साथ-साथ खिलौने आदि का निर्माण करते है। आधुनिक समय में बाहरी दुनियाँ के संपर्क में आने से वे मिट्टी के सजावटी सामानो का भी निर्माण करने लगे हैं।

चित्रकला : समाज जैसा भी हो चित्र उनकी अभिव्यक्ति का माध्यम बनता ही है। आदिवासी समाज भी इससे अछूता नही है। वे भी पर्व-त्योहारों, उत्सवों आदि पर अपने मानसिक भावों की अभिव्यक्ति या अनुष्ठानिक महत्व के कारण, चित्र बनाते हैं। आदिवासियों में चित्रकला के दो प्रकार पिथौरा चित्रकला और सोहराई चित्रकला बहुत प्रचिलित है। पिथौरा चित्रकला मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासियों में प्रचलित है। इस कला में आदिवासी अपने घर की दीवारों पर विभिन्न प्रकार के रंगों से देवताओं की आकृति के साथ-साथ पशु-पक्षियों की आकृति का निर्माण करते हैं। आदिवासियों में यह मान्यता है, कि देवता जब उसके घर पर अपनी तस्वीर देखेंगे तो खुश होंगे और उन्हें विपत्तियों से बचाते रहेंगे।

            सोहराई कला झारखंड के आदिवासियों में प्रचलित है। खासकर हजारीबाग के बादाम क्षेत्र में यह कला अत्याधिक प्रचलित है। इस क्षेत्र की आदिवासी महिलाएं पुराने समय में दूधी मिट्टी से दीवार को लीपकर विभिन्न रंगों से चित्र बनाती थी। अब दूधी मिट्टी कि जगह चूने से लीपकर चित्र बनाया जाता है। सोहराई कला को बादाम क्षेत्र के राजाओं ने भी प्रश्रय दिया। जब राज परिवार के सदस्यों का विवाह होता था तो उनके दाम्पत्य का प्रथम क्षण जिस कमरे में बीतता था, वहाँ की दीवारों पर वे संकेत चिन्हों का निर्माण करवाते थे। इस प्रकार सोहराई कला मधुबनी चित्रकारी की कोहबर चित्र से साम्य रखता है।

 

नृत्य : मनोरंजन मनुष्य की आदिम प्रवृति है और नृत्य उसका मूलाधार। आदिवासियों में भी मनोरंजन के चलते नृत्य का विकास हुआ। इसके अतिरिक्त देवताओं को प्रसन्न करने के लिए भी वे नृत्य करते हैं। आदिवासियों के प्रमुख नृत्य हैं- लांगी, मुन्दडी, करमा, घूर्मा, सुआ, सैसा आदि। इन नृत्यों में महिला और पुरुष वनस्पतियों से श्रंगार करके मिलजुलकर नृत्य करते हैं। अधिकांश नृत्य ढोल की थाप पर, चाँदनी रात में, खुले में होता है।

              उपयोगी कला की बात करें तो आदिवासियों द्वारा आजीविका के लिए सखुए के पत्ते से पत्तलों का निर्माण महत्वपूर्ण माना जा सकता है।

                 भारत का सभ्य और जनजातीय, दोनों समाज लोककलाओं के मायने में बहुत ही समृद्ध है। ये लोककलाएँ भारतीय संस्कृति को मजबूत आधार और बहुरंगी छटा प्रदान करती हैं। निस्संदेह यह कहा जा सकता है कि अतुलनीय भारत की अवधारणा को मूर्त करने में लोककलाएँ महत्वपूर्ण नियामक के रूप में स्थापित हैं।

 

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