भारत में प्राचीनकाल
से ही लोकनाटकों की समृद्ध परंपरा रही है। इसकी पुष्टि विद्वानो के इस मत से होती
है कि शास्त्र लोक का अनुगामी होता है। इस मत के अनुसार नाट्यशास्त्र जैसे ग्रंथ की रचना तभी संभव है जब लोक का सुदृढ़
आधार हो। लेकिन नाट्यशास्त्र में एक दो जगह लोक की चर्चा के अतिरिक्त तत्कालीन
लोकपरंपरा के विषय में कोई ठोस जानकारी नहीं मिलती है। वर्तमान समय में भारत में
लोक नाटकों की परंपरा है उसमे से अधिकांश का उद्भव संस्कृत रंगमंच की अवनति के बाद,
मध्यकाल में हुई है। इन लोकनाटकों में सबसे प्राचीनतम ‘कूडियट्ट्म’
को माना जाता है। लेकिन डॉ॰ विश्वनाथ प्रसाद मिश्रा का मानना है कि कथाकली और
कूडियट्ट्म जैसे दक्षिणी लोकनाट्य रूप का विकास पहली-दूसरी शताब्दी में हुआ था। लेकिन
वे यह भी कहते हैं,
“लोकमञ्च का व्यवस्थित विकास उपलब्द्ध सामाग्री के आधार पर सर्वप्रथम दक्षिण
में दृष्टिगत होता है। ईसवी सन की प्रारम्भिक शताब्दी में सूदूर दक्षिण में
लोकनाटक के एक विशिष्ट स्वरूप का उदय हुआ,
जिसे आज हम कथाकली के रूप में जानते हैं। विद्वानो का मानना है कि यह नृत्य- नाटक
किसी घटनाक्रम को नहीं,
वरन मात्र वीरता के मनोभाव का प्रदर्शन करता था। आगे चलकर उसमें कथावस्तु का भी
संयोजन होने लगा,
और फिर वह नृत्य से नाटक बन गया”।[1]
आगे कहना है कि प्रारम्भिक स्वरूप उसका नाट्यत्मक नहीं था
जी बाद में हुआ। यह भी प्रमाणित हो चुका है कि केरल के कुलशेखरवर्मन ने दसवीं
शताब्दी में कूडियट्टम की शुरुआत की थी[2]।
उपरोक्त प्रमाणो के
अतिरिक्त वर्तमान सभी लोकनाटकों में परंपरा के साथ-साथ नाट्यशास्त्र के कुछ
प्रावधानों (सूत्रधार की उपास्थिति,
पूर्वरंग योजना आदि ) के कारण इस बात को बल मिलता है कि उनका उद्भव संस्कृत रंगमंच
के बाद हुआ है। उपरोक्त उद्धरण भी इस मत को बल प्रदान करता है। एक मत यह भी है कि
अधिकांश लोकनाटको का अनुष्ठानिक स्वरूप भक्ति आंदोलन कि देन है। यह आंदोलन दक्षिण
में उपजा और सूदूर उत्तर तक लगभग सम्पूर्ण भारत को प्रभावित किया। इस मतानुसार भी
यह संकेत मिलता है कि लोकनाटकों का विकास पहले दक्षिण में हुआ। लेकिन कुछ लोकनाटक
ऐसे भी हैं जिनका स्वरूप अनुष्ठाणिक न होकर सामाजिक होता है। ऐसे लोकनाटकों को
अनुष्ठानिक लोकनाटकों का परवर्ती माना जाता है।
सांस्कृतिक विविधता
वाला भारतीय भूभाग में लगभग सभी कला की कई-कई लोक शैलियाँ प्रचलित है। नाटक इन सब
में प्रथम स्थान पर है। भारत के सभी राज्यों मे एक से अधिक लोकनाटकों की परंपरा
है। इन नाटकों में प्रमुख हैं : रासलीला,
रामलीला, असम के अंकिया नाट,
मणिपुर का थंगटा, बिहार के किरतनिया
नाट, विदापत और विदेसिया,
बंगाल
की जात्रा, मध्यप्रदेश का माँच,
राजस्थान के ख्याल और गम्मत, उत्तरप्रदेश,
हरियाणा और पंजाब के नौटंकी और सांग,
कश्मीर के भांडजश्न और भांडपथर, हिमाचल
प्रदेश का करियाल, गुजरात
का भवई, महाराष्ट्र का तमाशा,
उड़ीसा
के दांडनाट और पाला, आन्ध्रप्रदेश
में भामाकल्पम, वीथीनाटकम,
तमिलनाडु
का भगवतमेल और तेरुकुत्तू, केरल
का कूडियट्टम और चविट्टुनाटकम तथा कर्नाटक के होड्डत्ता, बयालता और यक्षगान।
यक्षगान
: दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में जब दक्षिण भारत में
भक्ति-आंदोलन का उदय हुआ तो उसका व्यापक प्रभाव लोकरंगमंच पर पड़ा। ऐसी कथाएँ
प्रदर्शित की जाने लगी जिसमें भगवान की महिमा का गुणगान होता था। इसके लिए
प्रदर्शन की विशिष्ट शैली का विकास हुआ। इसी क्रम में कर्नाटक राज्य में ‘यक्षगान’
नाम के एक विशेष लोक-नाट्य का विकास हुआ।[3] इस
लोकनाटक में कथावस्तु, रामायण,
महाभारत और भागवत से लिए जाते हैं। खासकर वे प्रसंग चुन जाता है जिसमें युद्ध का
वर्णन हो। ये नाटक अंत तक आते–आते विष्णु-भक्ति को जगानेवाले होते हैं। प्रदर्शन
रात भर चलता है। अगर एक कथा समाप्त हो जाता है तो दूसरी कथा समाप्त हो जाती है
लेकिन अगर कथा बड़ी हो तो उसे छोटा करके सूर्योदय से पहले खत्म कर दिया जाता है। यक्षगान
का आरंभ में दो बालक कृष्ण और बलराम की भूमिका में मंच पर आते हैं और पूरा
प्रदर्शन देखते हैं। अंत में उन्हें औपचारिक रूप से विदा किया जाता है।
चार खंभों पर खड़ा
यक्षगान का मंच मुक्ताकशी होता है जिसके चारों ओर बैठकर या खड़े होकर दर्शक
प्रदर्शन देखते हैं। मंच पर सामाग्री के तौर पर मंच पर एक नीची चौकी या फिर एक
सन्दूक रखा रहता है जिसे अवश्यकतानुसार कभी आसान तो कभी सिहासन के तौर पर उपयोग
किया जाता है ।मंच के एक तरफ भागवत बैठता है। उसी के आसपास वादकदल भी बैठता है।
पूरे प्रदर्शन में भागवत केंद्रीय महत्व वाला व्यक्ति होता है। ऐसा नहीं है कि
लोकनाटकों की महत्वपूर्ण विशेषता सूत्रधार इसमे नहीं होता है लेकिन संस्कृत नाटकों
में जो महत्व सूत्रधार का होता था वैसा महत्व भागवत का होता है। सूत्रधार तो
प्रारम्भ आकार बस सूचना देकर चला जाता है जबकि भागवत आदि से अंत तक मंच पर बना
रहकर सम्पूर्ण नाटकीय कार्यक्रम का संचालन करता है। वस्तुतः वह प्रस्तोता और
निर्देशक दोनों होता है। वही मूलपाठ का गायन करता है;
नृत्य-लय का निर्देश देता है। उसकी प्रतिष्ठा मंच पर आचार्य रूप में होती है।
यक्षगान के मंच पर
भागवत के अतिरिक्त एक अन्य पात्र ‘हनुमन्नायक’
या ‘कोदंगी’
होता है जो उसी की तरह अंत तक उपस्थित रहता है। कोदंगी दर्शकों का प्रीतिनिधि होता
है भागवत से प्रश्न उत्तर करके विषय को स्पष्ट करता है तो अपनी वाकपटुता से
दर्शकों को हँसाता रहता है। इसलिए इसे ‘हास्यागर’
भी कहा जाता है। कभी-कभी वह अनर्गल बात भी करता है। कोदंगी ही पात्रों का परिचय
करवाता है और कथा सूत्रों और प्रसंगों को आपस में जोड़ता भी है। वह आवश्यकता पड़ने
पर संदेशवाहक आदि की छोटी-मोटी भूमिका भी करता। प्रदर्शन की यह विशेषता लोक नाटकों
की शक्ति होती है। अगर संस्कृत नाटक के चरित्रों से इसकी तुलना करें तो कह ‘विदूषक’
के करीब होता है लेकिन यह विदूषक की भांति कथावस्तु से जुड़ा न रहकर स्वतंत्र होता
है। इसलिए इसकी वेश-भूषा और रूप-सज्जा कहानी के युग की नहीं बल्कि समसामयिक होती
है।
यक्षगान के प्रदर्शन
का आरंभ भागवत और कोदंगी की विनोद-क्रीड़ा के साथ आरंभ होता है।[4] पहले पूर्वरंग की व्यवस्था होती जिसमें विघ्नविनाशक गणेश के
साथ-साथ अन्य देवी-देवताओं की स्तुति की जाती है। गणेश के सामने वेषभूषा और
रूपसज्जा की सामाग्री उनके आगे रखी जाती है और उनका आशीर्वाद प्राप्त किया जाता
है। उनके द्वारा भागवत और वादकों को उपहार दिलाया जाता है और फिर मंच पर पात्रों
का प्रवेश होता है।
यक्षगान में पात्रों का प्रवेश एक विशेष तरीके से होता है। पहले दो लोग एक कपड़े
का टुकड़ा लेकर मंच पर खड़े हो जाते हैं। एक कलाकार पर्दे के आगे नृत्य करने लगता है
और नृत्य करते-करते पर्दे को थोड़ा नीचे झुका देता है और वह पात्र दर्शकों के आगे
प्रकट हो जाता है। यह क्रम तब तक चलता रहता रहता है जब तक दृश्य के सभी कलाकार मंच
पर आ नहीं जाते है। जब सभी कलाकार मंच पर आ जाते हैं तो पर्दा हटा दिया जाता है।
पर्दा हट जाने पर कोदंगी एक-एक पात्र का नाम लेकर बुलाता है और वह नृत्य करके मंच
पर एक कोने में खड़ा हो जाता है। पात्र-परिचय में नृत्य की अनिवार्यता होती है।
पात्र परिचय के बाद भागवत भूमिका रूप में कुछ पंक्तियों का गायन करता है। इस गायन
के बाद कोई पात्र कथा सूत्र का स्पष्टीकरण करता करता है और भागवत उसके वक्तव्य के
बीच में हुंकारी भरकर अथवा कोई अन्य चेष्टा करता रहता है।
यक्षगान के सभी चरित्र बहुत ही तड़क-भड़क वाला और प्रभावपूर्ण वेषभूषा पहनकर
मंचपर आते हैं। वेश-भूषा में चटख रंगों का प्रयोग होता है, विशेषकर हरे, नीले
और लाल रंगों का। कंठ और बाहों पर विशेष प्रकार के आभूषण होते हैं। संघर्षपूर्ण
प्रसंग को प्रभावशाली दिखने के लिए चरित्रों के वक्ष पर सुनहरा पट होता है। सिर पर
चमकदार मुकुट होता है। भुजाओं पर पंखे के आकार का विशेष विन्यास होता है। दुष्ट
आत्माएँ और दानवीय चरित्रों के लिए भयंकर मुखौटे का प्रयोग किया जाता है। दिव्य
चरित्रों का रूप बहुत ही सौम्य होता है। कभी-कभी उनके लिए भी मुखौटे का प्रयोग
किया जाता है। अर्धमानव जैसे गंधर्व आदि की रूप सज्जा भी बहुत ही मनमोहक होती है।
वेषभूषा की यह विशिष्टता परंपरा से विकसित हुई है और रूढ़ हो चुकी है।
यक्षगान की संघर्षपूर्ण वस्तुयोजना, खासकर देव-दानव युद्ध, के चलते संवाद बहुत ही
ओजस्वी होता है। युद्ध प्रदर्शन के चलते कभी-कभी किसी पात्र की मृत्यु दिखाना
आवश्यक होता है तो उसे स्पष्ट नहीं दिखाकर नाट्यशास्त्र की रूढ़ि का पालन करते हुए उस
पात्र को कपड़े की आड़ कर दिया जाता है और वह मंच से चला जाता है। संघर्षपूर्ण
वस्तुयोजना के चलते ही यक्षगान में स्त्री-चरित्रों को विशेष स्थान नहीं मिलता है।
यक्षगान में पात्रों को यह छूट होती है की वे अपने संवाद प्रसंगानुकूल बना
सकें इसके लिए भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ होना आवश्यक होता है। इसके साथ ही अपने
चरित्र का मनोविज्ञान और अपने प्रतिपक्षी के मनोविज्ञान की समझ के साथ-साथ तार्किक
होने की अपेक्षा की जाती है ताकि वे प्रसंग के अनुरूप वाणी-कौशल का उपयोग करके
उपयुक्त उद्धरण दे सके;
मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग कर सके।
भारत में लोकनाटकों का जो स्वरूप है उसे अङ्ग्रेज़ी शब्द ‘folk play’ का हिन्दी अनुवाद के संदर्भ
में देहाती और गवारों का नाटक कतई नहीं कहा जा सकता है। साहित्यिक आधार, अभिनय तकनीक, गीत संगीत आदि विशेषता के कारण इसे
कला की जो उत्कृष्टता प्राप्त होती है वह सहज ही शहरी प्रबुद्धजन को भी आकर्षित
करती है। शायद इसी कारण भारत में अधिकांश आधुनिक प्रख्यात नाट्यनिर्देशकों ने
लोकनाटक के तत्वों का सहारा लेकर अपनी शैली विकसित की है। लोकनाटकों की इस
व्यापकता के चलते ही ‘परंपरशील नाट्य’ के
ग्रंथकार जगदीशचन्द्र माथुर को इसे लोकनाटक कहना समीचीन नहीं लगता है। वे ऐसे
नाटकों के लिए ‘परंपरशील नाट्य’ कहने
के हामी हैं जो सर्वथा उचित प्रतीत होता है।
सहायक ग्रंथ :
1. मिश्र,
डॉ॰ विश्वनाथ, 2003 ई॰ (प्र॰प्र॰),
भारतीय और पाश्चात्य नाट्यसिद्धांत,
कुसुम प्रकाशन, मुजफ्फ़र नगर (नई दिल्ली)।
2. माथुर,
जगदीशचंद्र, 2006 ई॰ (प्र॰स॰),
परंपराशील नाट्य,
राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई
दिल्ली।
3. झा
‘श्याम’,
सीताराम, 2000 ई॰ (प्र॰स॰),
नाटक और रंगमंच,
बिहार राष्ट्रभाषा परिषद,
पटना।
4.
वर्मा, डॉ. उषा, 2014 ई॰ (प्र॰स॰), लोकरंग : बिहार, डी. एस. बुक्स
डिस्ट्रीब्यूटर, पटना।
5. चातक,
गोविंद, 1998 ई॰,
रंगमंच : कला और सृष्टि,
तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली।
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