मंगलवार, 27 मार्च 2018

हिंदी रंगमंच में पुनर्जागरण : पारसी रंगमंच और भारतेंदु



यूरोप में पुनर्जागरण या नवजागरण का काल चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी तक के काल खंड में माना जाता है। लेकिन भारत में पुनर्जागरण या नवजागरण की अवधारणा के विषय में अलग-अलग मत हैं − “कुछ लोग मानते हैं कि पहला नवजागरण गौतम बुद्ध के आविर्भाव के साथ आया। बुद्ध ने पुरानी जड़ अवधारणाओं को तोड़कर मनुष्य-मनुष्य के भीतर के भेद को मिटाया जिसका प्रभाव मध्य एशिया तक फैल गया। दूसरा नवजागरण भक्तिकाल में दिखाई पड़ता है। तीसरा नवजागरण अँग्रेजी सभ्यता के संपर्क में आने के बाद, खासतौर पर 1857 के प्रथम स्वाधीनता आंदोलन के बाद शुरू हुआ जिसका केंद्र बंगाल था। ....गुप्तकाल को भी कुछ लोगों ने नवजागरण का युग कहा है। हिन्दी नवजागरण का भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। जो भारतेन्दु से शुरू हुआ और जिसके अग्रदूत खुद भारतेन्दु थे” ।[1] अब विचारणीय यह हो जाता है कि भारत में पुनर्जागरण की शुरुआत कहाँ से माना जाए। लेकिन हम पुनर्जागरण या नवजागरण शब्द का अर्थ ही यूरोप में हुई सांस्कृतिक-वैज्ञानिक क्रांति के आलोक में ग्रहण करते हैं तो यही उपयुक्त प्रतीत होता है कि भारतीय संदर्भ में नवजागरण, उपरोक्त चारों काल में से उसी काल में माना जाए जो यूरोपीय नवजागरण के ठीक बाद में पड़ता है। इस हिसाब से भारत में पुनर्जागरण की शुरुआत औपनिवेशिक काल में ही मानना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। इस काल में रंगमंच के क्षेत्र में दो बड़ी घटनाएँ हुई पारसी रंगमंच की शुरुआत और हिन्दी रंगमंच का परिष्कार जिसकी शुरुआत भारतेंदु के कार्यों से मानी जाती है।

प्रख्यात संस्कृत रंगमंच के अवसान और इस काल में रंगमंच के क्षेत्र में आए नवजागरण के बीच सूत्र या आधार रूप में नाटकों की लोक परंपरा ही थी। पारसी रंगमंच ने अपनी अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त भारतीय नाटकों की लोक परंपरा की विशेषताओं को बहुत बड़े अंशों में ग्रहण किया था। इस रंगमंच की शुरुआत 1852 में बम्बई में परसियों द्वारा एक नाटक मंडली की स्थापना से हुई[2]। इसके बाद अनेकों कंपनियां अस्तित्व में आई। यह रंगमंच लगभग सौ साल तक जीवित रहा।

पारसी रंगमंच लोक नाटकों से कितना प्रभावित था यह उस मंच के नाटकों की रूपसज्जा और संवाद अदायगी के स्वरूप के विषय में जानकार स्पष्ट होता है। लोकनाटकों की वाचिक परंपरा के चलते उसके संवादों में तुकांतता और गीत संगीत का संयोजन होता है तथा अपेक्षाकृत खुले रंगमंच पर प्रदर्शन के कारण रूपसज्जा भड़कीली होती है और संवाद अदायगी ऊँची आवाज में। पारसी रंगमंच ने इन बातों को अंगीकार कर लिया क्योंकि ये बातें उसकी व्यवसायिकता के लिए अनुकूल थी।

व्यवसायिकता के चलते पारसी रंगमंच पर चमत्कार प्रदर्शन का महत्वपूर्ण स्थान था। । इस रंगमंच पर जो चमत्कार प्रदर्शन होता था उसके विषय में कहा गया है, “ पारसी नाट्य मंडलियों ने उपस्थित जन समुदाय को चमत्कृत करने के लिए अनेक दृश्यात्मक प्रभावों का भी प्रयोग किया था, आँधी चलती, अंधकार में बिजली चमकती और उसकी कड़क सुनाई देती, बादल गरजते तारे टूटते, विकराल, भयंकर और नारकीय आकृतियाँ दिखलाई देतीं। किसी के मुँह से आग और किसी के मुँह से साँप निकलते। अंतरिक्ष में इधर-उधर तीर चलते दिखाई देते देवी-देवता आकाश से उतरते। दर्शक इन दृश्यों को देखकर मंत्रमुग्द्ध हो जाते”।[3] यह स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि संस्कृत रंगमंच पर बिजली छिटकने जैसी क्रियाओं को भी नट विशेष मुद्राओं के माध्यम से दिखाते थे। पारसी रंगमंच ने भारतीय शास्त्रीय रंग परंपरा से कुछ ग्रहण किया हो इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। नाट्यशास्त्र के नियमों पर आधारित संस्कृत रंगमंच पर ऐसे चमत्कार प्रदर्शनों का स्थान नहीं था। लेकिन यह आसानी से कहा जा सकता है कि यह रंगमंच पाश्चात्य रंगमंच, खासकर एलिजाबेथ कालीन रंगमंच और प्राचीन यूनानी रंगमंच से अवश्य प्रभावित था। क्योंकि उन मंचों पर ऐसी घटनाएँ दिखाई जाती थीं। जैसे, एलिजाबेथ कालीन रंगमंच पर जमीन फाड़कर प्रेतों आदि का प्रवेश होता था तो यूनानी रंगमंच पर ड्यू-एक्स-मशीना द्वारा देवताओं को मंच पर उतरा जाता था। पारसी रंगमंच पर भी जमीन फाड़कर दैत्यों का प्रवेश तो आकाश मार्ग से देवताओं का आगमन होता था। पारसी रंगमंच की अभिनय शैली के विषय में स्पष्ट कहा गया है कि इस पर शेक्सपियरीय अभिनय शैली का प्रभाव मुख्य है”[4]

पारसी रंगमंच पर पौराणिक धार्मिक और ऐतिहासिक नाटक खेले जाते थे जिनकी कथावस्तु भारतीय धार्मिक कथानकों तथा लौकिक और अप्राकृतिक प्रसंगों, पर आधारित होते थे जिसकी भाषा हिन्दी-उर्दू होती थी। इस विषय में कहा जाता है कि  “ उनकी भाषा का आदर्श था – न खालिस उर्दू, न ठेठ हिन्दी,  जुबान गोया मिली-जुली हो। भाषा का यह खिचड़ी स्वरूप किसी प्रकार का गंभीर प्रभाव उत्तपन्न होने ही नहीं देता था”[5]। इस संदर्भ में डॉ॰ लक्ष्मी नारायण लाला का कहना था, “ अन्य भाषाओं की अपेक्षा सबसे अधिक पारसी नाट्य लेखन और उसका रंगमंच प्रदर्शन हिन्दी भाषा में ही हुआ है। इसलिए हिन्दी भाषा, हिन्दी क्षेत्र और हिन्दी संस्कृति के संदर्भ में उसे पारसी हिंदी रंगमंच और नाटक कहना ही अधिक युक्ति संगत है”[6]

पारसी रंगमंच की उपरोक्त विषताएँ, जिसे सहज ही हिन्दी रंगमंच में पुनर्जागरण का आधार कही जा सकती है, ढँक दी गई, यह कह कर कि उन नाटकों का स्तर अच्छा नहीं था और अभिनय कुरुचिपूर्ण और असंगत होते थे। इस संदर्भ में अधिकांश साहित्यिक श्रोतों से भारतेंदु द्वारा वर्णित, काशी में पारसी नाटक मंडली द्वारा शकुंतला नाटक का मंचन और उसमे दुष्यंत का मटकते हुए पतली कमर बल खाय... गाने वाला प्रसंग मिलता है। इसी से प्रभावित होकर भारतेंदु ने नाट्योद्धार का बीरा उठाया। इसके लिए उन्होंने नाट्य लेखन किया, मंचन के लिए मंडली की स्थापना की और अभिनय भी किया। भारतेंदु प्राचीन संस्कृत रंगमंच के नियमों के पक्षधर थे और पारसी नाटकों के विषय में उनकी राय क्या थी यह उनके इस कथन से पता चलता है – “उनकी भाषा में नाटक जैसा कुछ नहीं है; कविता, गीत, नृत्य और संवाद का अर्थ नाटक नहीं हो सकता। कथा निर्माण की चरित्र-चित्रण की, मंच पर पात्रों के आने जाने की एक टेक्निक होती है −  टेक्निक, जिसके नियम स्पष्ट रूप से संस्कृत में दिए गए हैं”[7]। लेकिन भारतेंदु भी बदले हुए समय में संस्कृत रंगमंच के सभी नियमों का पालन करने के पक्षधर नहीं थे। इस संदर्भ में उन्होंने कहा – “अब नाटक में आशी: प्रभृति नाट्यालंकार, कहीं प्रकरी, कहीं विलोभन, कहीं स्फोट, पंच संधि व ऐसे ही अन्य विषयों की कोई आवश्यकता नहीं रही”[8]

1868 ई॰ से लेकर 1885 ई॰ के बीच भारतेंदु ने लगभग पच्चीस-तीस नाट्य रचनाएँ की। उन्होंने नाट्यशास्त्र और उसके परवर्ती ग्रंथों में वर्णित रूपक-उपरूपक के लगभग सभी भेदों के आधार पर हिन्दी में नाटक और नाटिकाओं की रचना की। नाट्यशास्त्र के बाद के भी नाट्यसिद्धांत संबंधी सभी ग्रंथों की रचना संस्कृत में ही हुई। लंबे अंतराल के बाद भारतेंदु ने 1883 में नाटक अथवा दृष्यकाव्य शीर्षक नाम से हिन्दी में लगभग पचास पृष्ठों का एक लंबा निबंध लिखा[9] जिसमें नाट्य सिद्धांत की विवेचना की गई थी। वह निबंध वस्तुतः संस्कृत नाट्य सिद्धांत की हिन्दी में पुनर्व्यख्या ही थी। भारतेंदु के नक्शे-कदम पर चलते हुए भारतेंदु मंडली के अन्य रचनाकारों ने भी हिन्दी में नाटकों की रचना की। यह उल्लेखनीय है कि भरत के बाद भारतेंदु पहले व्यक्ति थे जो स्वयं, नाट्य-सिद्धांतकार, रचनाकार और प्रयोक्ता भी थे।

यूरोप में जो पुनर्जागरण हुआ उसकी प्रमुख विशेषता थी कला के क्षेत्र में प्राचीन शास्त्रीय सिद्धांतों के आलोक में नवसृजन का आग्रह। इस हिसाब से, भारतेंदु के कार्यों के चलते उन्हें हिन्दी रंगमंच में नवजागरण का अग्रदूत कहना गलत नहीं है। लेकिन पारसी रंगमंच कि जो विशेषता थी उस हिसाब से नवजागरण का वाहक उसे नहीं माना जाना, उचित नहीं हो सकता। भारतीय परिप्रेक्ष्य में नवजारण में, सिर्फ भारतीय शास्त्रीय सिद्धांतों के आलोक में सृजन मान्य हो तो फिर भारतेंदु पर भी एक बार रुककर सोचना होगा क्योंकि उन पर न केवल संस्कृत रंगमंच और लोक तत्व का प्रभाव था बल्कि पारसी रंगमंच का भी प्रभाव था जिसके वे विरोधी थे। जनसमान्य में पारसी नाटक बहुत लोकप्रिय था लेकिन उसकी कमियों के चलते तत्कालीन प्रबुद्ध वर्ग ने पारसी रंगमंच को हेय कहकर नाक-भौंह सिकोड़ा और हिन्दी नाटकों की एक अलग धारा चल पड़ी। आगे चल कर हिन्दी रंगमंच भी पाश्चात्य प्रभाव मुक्त कहाँ रह सका। अगर तब पारसी रंगमंच को परिष्कृत कर के स्थापति किया जाता तो आज हिन्दी रंगमंच का स्वरूप ही दूसरा होता। कम-से-कम हिन्दी रंगमंच आर्थिक दृष्टि से इतना विपन्न तो नहीं होता।

प्रस्तुति

कृष्ण मोहन

शोध छात्र ( एम॰फिल॰)

 प्रदर्शनकारी कला (फिल्म और नाटक) विभाग

म॰ गां॰ अ॰ हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र


संदर्भ :



[1]  डॉ॰ अमरनाथ, 2012 (छा॰सं॰), हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 2015
[2]  मिश्र, (डॉ॰) विश्वनाथ, 2003 (प्र॰सं॰), भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांत, कुसुम प्रकाशन, मुजफ्फर नगर (उ॰प॰), पृष्ठ : 287
[3]  वही, पृष्ठ : 288 
[4]  चातक, (डॉ॰) गोविंद, 1998, रंगमंच : कला और दृष्टि, तक्षशिला प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 188 
[5]  भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांत, पृष्ठ : 288
[6]  रंगमंच कला और दृष्टि, पृष्ठ : 188
[7]  भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धांत, पृष्ठ : 289
[8]  वही
[9]  अंकुर, देवेंद्र राज, 2008 (प॰सं॰), रंगमंच के सिद्धांत, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ : 281

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