(आई.एस.टी.आर. सेमिनार 2018 में प्रस्तुत पत्र)
कृष्ण
मोहन
8888033257
शेक्सपियर को आज तक
विश्व का सबसे बड़ा नाटककार माना जाता है. उनका जन्म कब हुआ इस विषय में ‘द जीनियस ऑफ शेक्सपियर’ के लेखक ‘जॉनथन बेडे’ लिखते हैं, “शेक्सपियर के जीवन के प्रारम्भिक वर्षों की जानकारी ईसा मसीह के जीवन की
तरह ही रहस्यों के गर्भ में है. इस लिए उस विषय में अनेक किवदंतियाँ चल पड़ीं.”[1] लेकिन उनके
जन्मस्थान का स्थानीय रिकॉर्ड, जीवन में हुए छोटे-मोटे
विवादों से संबंधित न्यायिक रिकॉर्ड, उन्होंने जिस नाटक
कंपनी में काम किया था और मालिक बने थे, उससे संबंधित
रिकॉर्ड के आधार पर उनके जीवन का सच जानने का प्रयास किया गया. इस आधार पर यह
स्पष्ट हुआ है कि शेक्सपियर का जन्म शायद 24 अप्रैल 1564 को ब्रिटेन में
वर्विकशायर के स्ट्रेटफोर्ड-ऑन-एवॉन में जॉन शेक्सपियर और मेरी आर्डन के घर हुआ था.
वे अपने भाई-बहनों में तीसरे स्थान पर तथा प्रथम पुत्र थे. 18 वर्ष की उम्र में
उनका विवाह उनसे कई साल बड़ी अन्ने हैथवे से हुआ.
पुनर्जागरण काल में
हुए इस इंग्लिश नाटककार ने नाट्यजगत में हर स्तर पर प्रतिरोध को बुना. न केवल
नाटकों में बल्कि उनके जीवन में भी प्रतिरोध का महत्वपूर्ण स्थान था. प्रतिरोध से
भरा जीवन और उसके प्रति विशेष दृष्टिकोण ने ही शायद उन्हें अपने नाटकों में
विभिन्न स्तर पर प्रतिरोध को गुनने-धुनने का माद्दा दिया. मध्यकाल के ब्रिटेन में
भी आज की तरह खुलापन नहीं था. उस परिवेश में किसी परिवार का बड़ा लड़का अपने से उम्र
में लगभग आठ साल बड़ी और पहले से ही गर्भवती लड़की से विवाह करे और यह बिना प्रतिरोध
के हुआ हो, असंभव लगता है. थोड़ी सूक्ष्मता से विचार करें तो आज भी अपनी उम्र से
बड़ी लड़की के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना मान्यताओं के प्रति शरीर और इच्छाओं
का विद्रोह ही तो है, और कोई भी विद्रोह प्रतिरोध की ही परिणति होता है.
शेक्सपियर के जीवन से
सम्बंधित जो कहानियां कही जाती हैं, उनसे पता चलता है कि किसान परिवार में जन्म और
गरीबी के कारण शेक्सपियर को उच्च शिक्षा नहीं मिली पाई. हालाँकि उनके पिता स्थानीय
सीनेट के सदस्य भी चुने गए थे, लेकिन कर्ज में डूबे होने के चलते गरीबी के शिकार
हो गए. विवाह से पूर्व शेक्सपियर गाँव में अध्यापन करते थे. विवाह के बाद उन पर एक जमींदार के खेत से हरिण
चुराने का आरोप लगा. उनकी पत्नी नाराज हो गई और मुकदमे से बचने के लिए उन्हें लंदन
भागना पड़ा. लंदन में उन्होंने नाटक कंपनी में घोड़ों की देखभाल से लेकर अभिनेता,
नाटककार और कंपनी के मालिक तक बने. अतः यह कहा जा सकता है कि उनका व्यावसायिक जीवन
भी प्रतिरोध और संयोग के मेल से ही निर्धारित हुआ था. व्यावसायिक जीवन में भी
उन्हें लगातार प्रतिरोध का सामना करना पड़ा जिसमें उल्लेखनीय है रॉबर्ट ग्रीन की
उनपर टिप्पणी. “yes trust them not : for there in an upstart crow,
beautified with our feathers, that with his Tiger’s heart
wrapped in a player’s hide, suppose he is well able to bombast out a blank
verse as the best of you and, being an absolute Johannes fac totum, is in his
own conceit the only shake-scene in a country”[2]. इस टिप्पणी से
यह आभास होता है कि क्रिस्टोफर मार्लो, जॉर्ज पील, रॉबर्ट ग्रीन और थॉमस नैश जैसे विश्वविद्यालयी
शिक्षाप्राप्त नाटककारों को पीछे छोड़ते हुए उनकी अपेक्षा मामूली शिक्षा प्राप्त
शेक्सपियर का आगे बढ़ना स्वाभाविक ही प्रतिरोध का कारण बना होगा. यह अलग बात है कि
किसी भी तरह के प्रतिरोध से निपटने में शेक्सपियर को कुशलता प्राप्त थी.
शेक्सपियर जिस समय
नाटकों की रचना कर रहे थे वह समय विश्व इतिहास में पुनर्जागरण का काल था.
पुनर्जागरण काल में, यूरोप में प्राचीन महान यूनानी और रोमन सभ्यता के आलोक में
नाटक लिखने का आग्रह था क्योंकि उससे पहले
वहां नाट्य इतिहास में अंधकार युग था. अंधकार युग में नाटकों की, रहस्यांकी, आचारंकी, बूथ थियेटर आदि की क्षीण
परंपरा तो थी लेकिन कोई स्पष्ट और उत्कृष्ट परंपरा नहीं थी. पुनर्जागरण में
कलाकारों ने सृजन की प्रेरणा के लिए जब अतीत में झाँका तो उन्हें स्पष्ट रूप से यूनान और रोम की गौरवशाली परंपरा
ही दिखाई पड़ी. इसलिए तब के नाटककार वैसा ही नाटक लिखने का प्रयास करने लगे जैसा उन
सभ्यताओं में लिखा गया था. उन सभ्यताओं से प्रेरित होने के कारण उनकी रचनाओं में,
उन सभ्यताओं की रचनात्मक विशेषताओं के साथ खामियां भी आ जाती थी. खामियां, उन प्राचीन सभ्यताओं की रचनात्मक रूढि़यों के रूप में थी. शेक्सपियर
के पूववर्ती और समकालीन लगभग सभी नाटककार किसी न किसी रूप में प्राचीन युनानी और
रोमन नाटकों की रूढ़ियों का पालन करते थे. इससे नाटक अच्छे तो होते थे लेकिन उसका
प्रभाव सीमित हो जाता था. दर्शकों में एक उब सी पैदा होती थी. इन रूढ़ियों का
उदहारण है − कोरस की योजना, त्रासदी का भाग्यवादी दृष्टिकोण और ‘संकलन-त्रय’[3] यानि
थ्री-यूनिटी का अनुपालन आदि. संकलन-त्रय के चलते यूनानी नाटकों में एक समय में, एक
स्थान पर, एक ही घटना दिखाई जाती थी. शेक्सपियर मंच के लिए नाटक लिखते थे और नाटक
के शिल्प के चलते दर्शकों में उब पैदा हो, प्रतिरोध का आग्रही शेक्सपियर को यह
पसंद नहीं था. इसलिए उन्होंने कथ्य और शिल्प, हर स्तर पर पूर्व धारणाओं और रूढ़ियों
को तोड़ दिया. थ्री-यूनिटी को तोड़कर नाटकों को नए शिल्प में रचा. उनके नाटकों में
थ्री-यूनिटी नहीं होने से कथानक की व्यापकता बढ़ गई, और उनकी लोकप्रियता भी.
शेक्सपियर ने अड़तीस
नाटकों की रचना की लेकिन सिर्फ एक नाटक थ्री यूनिटी के अनुसार लिखा. क्योंकि परम्परावादियों
ने उनपर आरोप लगाया कि वे थ्री-यूनिटी के अनुसार नाटक लिख ही नहीं सकते तो
उन्होंने ‘द टेम्पेस्ट’ लिख कर उनको जबाब
दिया. यह एक तरह का व्यवहारिक प्रतिरोध ही था कि वे लिख तो हर तरह के नाटक सकते थे
लेकिन लिखा वैसा ही जैसा उचित समझा. यह भी कहा जाता है कि शेक्सपियर ने मंच की
संरचना के कारण नाटकों के शिल्प में बदलाव किया. यह बात अंशतः सही है पूर्णतः नहीं:
क्योंकि किसी भी क्षेत्र में प्रतिरोध का मद्दा रखे बिना सिर्फ संसाधनों के बल पर
व्यापक बदलाव नहीं आता है.
शिल्प के सन्दर्भ में
हम संसाधनों की बात कर सकते हैं लेकिन कथ्य तो संसाधनों का मोहताज़ नहीं होता. शेक्सपियर
ने ट्रेजेडी और कॉमेडी दोनों प्रकार के नाटक लिखे. उनके ट्रेजेडी नाटकों में नायक
के पतन का कारण यूनानी नाटकों की तरह दुर्भाग्य या दैवी प्रकोप नहीं बल्कि उसके
अपने कर्मों का फल होता है. परम्परा के विरोधी शेक्सपियर ने अपने नाटकों में जीवन
की वास्तविकताओं को पकड़ने का प्रयास किया इसलिए नाटकों में जीवन के प्रति जो
दृष्टि रखी वह नितांत त्रासद या कामद नहीं रही बल्कि उन्होंने त्रासद नाटकों में
भी हर्ष और व्यंग के तथा कामदी नाटकों में भी विषाद के क्षणों की सृष्टि की जिससे
नाटक जीवन के ज्यादा करीब हो गया. ऐसा कोई चरित्र नहीं बचा जो उनके नाटकों में ना
आया हो. उन्होंने डायन और चुड़ैल जैसे सुपर नेचुरल चरित्रों की भी सृष्टि की
क्योंकि तब के समाज में उनकी सत्ता की मान्यता थी पर वैज्ञानिकता की ओर उन्मुख उस
समाज में भाग्य-अदृष्ट जैसी अवधारणाओं के प्रति लोगों का विश्वास घटता जा रहा था.
इसलिए यूनानी नाटकों के उलट शेक्सपियर ने अपने नाटकों में त्रासदी की सृष्टि
मानवीय भूल और कमजोरियों के आधार पर की.
कुछ बातें अवास्तविक
होकर भी हमारे जीवन से गहरा सम्बन्ध रखती हैं, जैसे − स्वप्न और कल्पना. शेक्सपियर
ने कथ्य के संयोजन में इसका भी ध्यान रखा. जब उनके नाटकों में जीवन इतना वास्तविक ढंग
से दिखा तो प्रतिरोध दिखाना भी स्वाभाविक ही था क्योंकि प्रतिरोध जीवन का आवश्यक
अंग होता है. चाहे या अनचाहे जीवन में प्रतिरोध तो घटता ही है, और नाटक जीवन ही को
तो दिखता है.
नाटक में प्रतिरोध के
कारण ही द्वन्द यानि कंफ्लिक्ट उत्पन्न होता है. कंफ्लिक्ट की योजना जितनी अच्छी होती
है, नाटक भी उतना ही सुन्दर माना जाता है. शेक्सपियर के सभी नाटकों में द्वन्द की
सुन्दर योजना हुई है. सिर्फ एक स्तर पर नहीं बल्कि बहुस्तरीय. अतः प्रतिरोध भी
बहुस्तरीय दिखता है. कई चरित्रों का बाह्य तथा आतंरिक प्रतिरोध भी हम आसानी से देख सकते
हैं. बाहरी द्वन्द क्रिया-प्रतिक्रिया के माध्यम से दिखाना सामान्य बात है, लेकिन मानसिक संघर्ष को भी कार्य रूप में दिखाना बहुत ही विलक्षण बात है.
शेक्सपियर ने अपने इस कौशल को बहुत ही सुंदर तरीके से कई नाटकों में दिखाया है. आतंरिक
प्रतिरोध को बताने के लिए उन्होंने आत्मकथन यानि असाइड की भी योजना की है.
शेक्सपियर के त्रासदी
नाटकों में प्रतिरोध तो समग्रता से दिखता ही है कामदी नाटकों में भी इसकी सम्यक
योजना हुई है. ‘अ मिड समर नाइट्स ड्रीम’ में हेलेना पिता की मर्जी से शादी नहीं
करती है और राजदंड से बचने के लिए प्रेमी के साथ जंगल में भाग जाती है. शेष घटना
जंगल में ही घटती है. ट्वेल्थ नाईट में व्यूला राजकुमार अर्सिनो को प्रेम करती है
लेकिन परिस्थितिवश पुरुष वेश में होती है और अपने स्त्रीत्व के प्रति प्रतिरोधी
बनकर राजकुमार का प्रेम निवेदन रईसजादी ओलिविया तक पहुंचती रहती है. यहाँ प्रतिरोध
आंतरिक है. एज यू लाइक इट में सीलिया अपने पिता का विरोध करती है और अपनी सहेली के
साथ महल छोड़कर जंगल में चली जाती है. द मर्चेंट ऑफ़ वेनिस में पोर्शिया अपनी नौकरानी
के साथ पुरुष वेश में कोर्ट जाती है और अपने पति के मित्र अंटोनियो को शायलॉक के
चंगुल से बचा लाती है. यह पुरुष सत्ता के प्रति महिला का प्रतिरोध ही तो है. यह
प्रतिरोध रोमियो और जूलियट में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है. जूलियट अपने पिता के
फैसले का मुखर विरोध करती है और गुपचुप रोमियो से शादी कर लेती है और पिता द्वारा
निर्धारित शादी के दिन पादरी से प्राप्त अर्क पीकर मृतप्राय हो जाती है. लोग उसे
मरा समझकर मकबरे में रख आते हैं. वहां जब
होश में आती है तो पास में रोमियो को मरा देखकर जीवन से ही विद्रोह कर देती है और
रोमियो की कटार अपने सीने में उतार लेती
है.
जीवन के प्रति
विद्रोह का सबसे सटीक उदहारण हैमलेट नाटक में ओफीलिया की आत्महत्या का प्रकरण है.
नाटक में ओफीलिया का जीवन दो ध्रुवों के बीच झूलता रहता है. एक तरफ उसका पिता
पोलोनियस है तो दूसरी तरफ उसका प्रेमी हैमलेट. वह दोनों को बहुत प्रेम करती है.
लेकिन जब अपने पिता की हत्या के प्रतिशोध के क्रम में हैमलेट पोलोनियास की हत्या
कर देता है तो ओफीलिया के पास कोई विकल्प नहीं बचता है. वह विक्षिप्त हो जाती है
और लोगों को फूल बांटने लगती है तथा गीत गाते-गाते ही फूल माला लिए पेड़ की डाल से झरने में गिरकर आत्महत्या कर लेती
है. प्रतिरोध का यह रूप और उसकी ऐसी मर्मस्पर्शी परिणति का सर्जक शेक्सपियर जैसा,
आज तक शेक्सपियर ही हैं.
शेक्सपियर की
त्रासदी-त्रयी हैमलेट, ऑथेलो और मैकबेथ में प्रतिरोध चरम पर होने के बाद भी
स्वाभाविक दिखाई पड़ता है. हैमलेट को जब पिता के प्रेत से यह पता चलता है कि उसका
चाचा, उसके पिता की हत्या करके राजा बना है और इस साजिश में उसकी मां शामिल है तो
वह प्रेत को प्रतिशोध का वचन देता है. हैमलेट के इर्द-गिर्द जो लोग और स्थितियां
हैं उस पर उसके चाचा का नियंत्रण है, तो उसके पास पागल का नाटक करके ही अपने
लक्ष्य की ओर बढ़ना, एक उपाय बचता है. माँ की हत्या नहीं करने के लिए वह बाध्य है,
ऐसे में उसके प्रति घृणा सम्पूर्ण स्त्रीजाति के प्रति व्यापक हो जाती है. इसलिए
वह अपनी प्रेयसी ओफिलिया को भी चुभती हुई बातें कहता रहता है. यह उसके आतंरिक
प्रतिरोध का प्रतिफल है जिसे ओफिलिया सह नहीं पाती है और वह सचमुच विक्षिप्तता की
और बढ़ने लगती है. हैमलेट को सिर्फ पिता की हत्या ही नहीं कष्ट देता है बल्कि यह भी
चुभता है कि उसकी मां हत्यारे चाचा के साथ सोती है. इसका खुलासा तब होता है जब वह
अपनी माँ के बुलाने पर मिलने जाता है तो कहता है, ‘मां तुम उसके बिस्तर से दूर
रहो’. संघर्ष के दौरान हैमलेट अपना प्यार
ओफिलिया को भी खो देता है, फिर उसके पास सब नष्ट कर देने और नष्ट हो जाने के सिवा
कोई विकल्प नहीं बचता है. आज भी किसी नवयुवा को यह पता चले कि उसके पिता की हत्या
हुई और हत्यारे से उसके माँ के अनैतिक सम्बन्ध हैं, तो वह हैमलेट ही तो बनेगा. वह
इस साजिश में शामिल सभी की जान लेना चाहेगा ही, बेशक उसके संघर्ष की परिणति जो हो.
ऑथेलो नाटक में एक
प्रतिरोध डेस्दीमोना का है. वह ऑथेलो के साथ घर से भाग कर विवाह कर लेती है. दूसरा
प्रतिरोध इयागो का है जिसके इर्द-गिर्द पूरा नाटक घूमता है. इयागो को यह शिकायत
होती है कि उसकी योग्यता के हिसाब से ऑथेलो ने उसे प्रोन्नत्ति नहीं देकर कैसियो
को दे दी; उसकी पत्नी से ऑथेलो के शारीरिक
सम्बन्ध हैं तथा डेस्दीमोना जैसी सुन्दर लड़की जिसे वह भी पसंद करता है उससे भी हब्सी
ऑथेलो ने विवाह कर लिया है. वह सीधे ऑथेलो से लड़ नहीं सकता तो रोडरिगो के साथ
मिलकर षडयंत्र रचता है. रोडरिगो भी ऑथेलो के चलते डेस्दीमोना से विवाह से वंचित हो
गया है. वे कैसियो को फंसाते हैं और ऑथेलो
के मन में शक पैदा करके उसी के हाथों डेस्दीमोना की हत्या करावा देते हैं जो उसकी
प्रियतमा है. अंत में ऑथेलो सत्य से अवगत होता है और अपने अस्तित्व के प्रति विद्रोह
कर देता है. वह आत्महत्या कर लेता है.
मैकबेथ नाटक की
कथावस्तु और जटिल है. सम्राट डंकन का प्रिय सेनापति डायनों की भविष्यवाणी के झांसे
में और पत्नी के बहकावे में आकर सम्राट की हत्या कर देता है. वास्तव में इस घटना
के पीछे मैकबेथ की दमित इच्छाओं का प्रतिरोध है. मैकबेथ ने राजा बनाने की इच्छा का
दमन किया है, यह इस बात से पता चलता है की जब डायने भविष्यवाणी करती हैं तो वह
पूछता है, दो उत्तराधिकारी होने के वावजूद उसका सम्राट बनाना कैसे संभव है? और जब
उसकी पत्नी सम्राट की हत्या करने के लिए कहती है तो वह उस समय स्थगित करना चाहता
है. डंकन की हत्या के बाद मैकबेथ उन सभी व्यक्तियों को मरवाना चाहता है जो उसके
लिए समस्या उत्त्पन्न कर सकते हैं. इस क्रम में वह बैंको की हत्या करवा देता है
लेकिन बैंको का बेटा फ्लींस, सरदार मैक्डफ आदि बच निकलते हैं. अंत में वे सभी डंकन
के पुत्र और अंग्रेजी सेना प्रमुख सिवार्ड के साथ मिलकर मैकबेथ की हत्या कर देते
हैं. इस नाटक में प्रतिरोध की अनुपम
सृष्टि हुई है. कई जगह चरित्रों का आन्तरिक प्रतिरोध कार्य रूप में दिखाया गया है.
मैकबेथ को बैंको का भूत दिखाई पड़ना और लेडी मैकबेथ का बार – बार हाथ धोना इसका
उदहारण है.
प्रतिरोध की चरम
स्थिति साधारणतया प्रतिशोध में परिणत हो जाती है.
शेक्सपियर की त्रासदी-त्रयी में यह स्पष्त रूप से दिखाई पड़ता है. शेक्सपियर
के अधिकांश नाटकों को आज भी प्रासंगिक कहा जाता है. हर युग में उन नाटकों की
प्रासंगिकता का कारण उसके प्रतिरोधी स्वर ही हैं जो उस युग की अलग-अलग समस्याओं से
जुड़कर उन समस्याओं को दर्शकों के सामने प्रभावशाली तरीके से उभारता रहा है. इसलिए सैकड़ों वर्षों से इस नाटककार के नाटकों को
पढ़ा और पढ़ाया तथा मंचित किया जाता रहा है.
सन्दर्भ :
1.
विद्यार्थी, दिवाकर प्रसाद (अनु॰), 1971 (प्र॰सं॰), ऑथेलो, साहित्य अकादमी, नई दिल्ली.
2.
राघव, रांगेय (अनु॰), 1975 (छ॰सं॰), मैकबेथ, राजपाल एण्ड संस,
दिल्ली.
3.
तुली, आर॰एल॰ और अशोक ग्रोवर (अनु॰), 2010, हैमलेट, साधना पॉकेट बुक्स, दिल्ली.
4.
मिश्र, विश्वनाथ, 2003 (प्र॰स॰), भारतीय और
पाश्चात्य नाट्य सिद्धांत, कुसुम
प्रकाशन, मुजफ्फरनगर (उ॰प्र॰).
5.
Griffith, Tom (Gen. Edt.), 2005,
William Shakespeare The Great Comedies and Tragedies, Wordsworth
Classics of World Literature, Hertfordshire (Great Britain).
6.
Bate, Jonathan, 1997, The Genius of Shakespeare, Picador, Londan.
[1] “His early years, like those of Jesus Christ, are
shrouded in mystery and consequently dressed up myth”.
Jonathan Bate, The Genius of Shakespeare, page : 5
[2] The Genius of Shakespeare, pg : 15
[3] संकजन त्रय : नाट्य लेखन के लिए
अरस्तू द्वारा दिया गया सिद्धांत है जिसमें वे मानते थे कि नाटक में स्थान, समय, और कार्य की
एकता होनी चाहिए। अर्थात, एक स्थान पर एक समय में एक ही कार्य यानि घटना दिखाना चाहिए। देखे, हिंदी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली. डॉ. अमरनाथ, पृष्ठ : 343
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