(नागपुर विश्वविद्यालय के 'रेनबो' जर्नल में प्रकाशित आलेख)
भारतवर्ष का बिहार
राज्य प्राचीन काल से ही ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ सांस्कृतिक रूप से भी बहुत ही
उन्नत प्रदेश रहा है। वहाँ लगभग सभी कलारूपों की लोक व शास्त्रीय शैलियाँ प्रचलित
रही हैं। ‘नारदी गायन’ उन्हीं
में से एक है। गायन की इस विशिष्ट लोक शैली में मृदंग और ताल वाद्य झांझ के साथ भक्ति
एवं धार्मिक पद तथा विषय-कीर्तन गाया जाता है। गेय पदों में देवी-देवताओं की
स्तुति, भजन, सोहर, समदाउन[1]
और निर्गुण होते हैं। विषय-कीर्तन में भगवान श्रीकृष्ण के आख्यानों की प्रधानता
होती है लेकिन द्रौपदी चीरहरण, लक्षमण शक्ति, सीता
वनवास, भक्त प्रहलाद, ध्रुव आदि के भी आख्यान सुनाए जाते हैं।
यह गायन खासकर चौपहरा या अठपहरा पूजा के अवसर पर आयोजित होता है।
बिहार में चौपहरा या अठपहरा पूजा भगवान
श्रीकृष्ण की विशेष पूजा होती है। लगभग तीन घंटे का एक पहर होता है। इसलिए चौपहरा
पूजा बारह घंटे यानि कि सिर्फ एक दिन या सिर्फ एक रात तक चलती है। जबकि अठहरा पूजा
चौबीस घंटे, एक दिन और रात, तक लगातार चलती है। कहीं-कहीं एक पहरा पूजा का भी
आयोजन होता है। इस पूजा में भक्तगण भगवान का आसन और मंडप बहुत सुन्दर ढंग से सजाते
हैं। मिथिलांचल में इसे ‘धाम लगाना’ कहा जाता है तो अंगक्षेत्र (भागलपुर) में
‘कुंज सजाना’। चूंकि यह पूजा भगवान श्रीकृष्ण की होती है और नारदी गायन में उन्हीं
के आख्यानों की प्रधानता होती है। संभव है, इसलिए इस पूजा के अवसर पर नारदी गाने
की परंपरा चल पड़ी।
गायन या कीर्तन की इस शैली का प्रचलन
बिहार के पूर्वी भाग में है। बिहार के इस भाग में, गंगा के उत्तर में मिथिलांचल और
दक्षिण में अंगिका क्षेत्र है। पुराने समय से ही मिथिलांचल में यह किसी भी शुभ
अवसर जैसे- मुंडन, उपनयन, चौपहरा पूजा, अठपहरा पूजा आदि के अवसर पर गाया जाता है।
वहां लोग नारदी करवाने की मन्नत भी रखते हैं और मनोकामना पूर्ण होने पर इसका आयोजन
करते हैं। साधारणतः ऐसे मन्नत पुत्रप्राप्ति की इच्छा से जुड़ी होती है। मिथिलांचल
के विपरीत गंगा के दक्षिण, अंग प्रदेश में, श्राद्ध के अंतिम दिन यानि तेरहवीं को
नारदी गाया जाता है। इधर किसी भी शुभ अवसर पर नारदी गाने की प्रथा नहीं है। यहाँ
के नारदी गायन में निर्गुण विशेष रूप से गाया जाता है। अन्य सब कुछ मिथिलांचल का
नारदी जैसा ही होता है। गंगा के उत्तर और दक्षिण में एक ही गायन शैली को बिलकुल
विपरीत अवसर पर आयोजित करने की परंपरा क्यों चल पड़ी? लोगों को इसका कारण ज्ञात
नहीं है। मंडली चलाने वाले लोग भी ठोस उत्तर नहीं दे पाते हैं। इस अंतर का कारण जो
भी हो, दोनों
क्षेत्रों में नारदी के आयोजन के मूल में शुभ, समृद्धि और
शांति की कामना ही होती है। अपने इसी आनुष्ठानिक महत्व के चलते बिहार के पूर्वी
क्षेत्र में आज भी नारदी गायन आयोजित होता है। कहा जाता है कि ‘पीढ़ियों पहले गोपघाट, भागलपुर के ‘माही बाबा’ इस कला को लेकर बिहार आये थे’।[2]
धीरे-धीरे इसकी बहुत सारी व्यावसायिक मंडलियाँ बन गईं । लेकिन बदलते दौर में
मंडलियों की संख्यां लगातार घटती जा रही है। वर्तमान समय में कुछ ही मंडलियाँ शेष
रह गई हैं।
नारदी
गायन की उत्पत्ति के विषय में जन समुदाय के बीच एक नहीं कई मत हैं। पहले मतानुसार, मृदंग
इन्द्रासन (देवलोक) में था। द्वापर युग में रासलीला के समय देवर्षि नारद इसे
मृत्युलोक में लाए और बताया कि यह वाद्य जहाँ भी बजेगा वहाँ सुख शांति और समृद्धि
आएगी। यह माना जाता है कि इस शैली की शुरुआत और प्रचार-प्रसार द्वापर युग में
नारदजी ने की। इसलिए इसे ‘नारदी’ कहा
जाता है। बाद में जिस भक्तिपूर्ण गायन में मुख्यतः मृदंग बजाया जाता था उसे ‘नारदी’ भजन कहा जाने लगा।
मृदंग को सुख प्रदान करनेवाली होने की
धरणा को भरत विरचित नाट्यशास्त्र भी बल प्रदान करता है। स्वयं महर्षि भरत ने
चौतीसवें अध्याय में एक स्थान पर कहा है, “सुख प्रदान करनेवाली
– मांगलिक होने के कारण इसे मृदंग कहते हैं”[3]।
दूसरे मतानुसार, इस शैली
में गायक स्वर नाद से निकालते हुए बहुत ऊंचाई पर जाता है। इसलिए इसे नारदी कहा
जाता है। लेकिन अगर नारदी शब्द नाद से सम्बंधित है तो इसे ‘नादी’ होना चाहिए। किसी
भी भाषा के शब्दों का स्वरुप लम्बे कालखंडों से गुजरकर जिस प्रकार बनता-बिगड़ता है,
इस पर विचार करने से यह बात अतार्किक नहीं लगती है कि हो सकता है इस गायन शैली का
नाम नादी रहा हो जो बाद में बिगड़कर नारदी हो गया।
राधा-कृष्ण विषयक आख्यानों की प्रधानता,
तीव्र स्वर में गाते हुए और नाचते हुए मंडलकार घूमना, मृदंग और झांझ जैसे वाद्यों
का उपयोग आदि बातों से नारदी गायन का जो स्वरुप बनता है उसकी तुलना जब भारत के
अन्य क्षेत्रों की कीर्तन शैली से की जाती है तो इस पर बंगाल के ‘नवद्वीपीय
कीर्तन’ का स्पष्ट प्रभाव दिखाई पड़ता है। मध्यकाल में लोकप्रियता के शिखर पर
पंहुचा ‘नवद्वीपीय कीर्तन’ में भक्त ढोलक, मृदंग, झाल, मंझीरा लेकर, मंडलाकार
घूमते हुए ऊँचे स्वर में गाते-नाचते बेसुध हो जाते थे। कहा जाता है- “इस शैली के
उद्भावक चैतन्य महाप्रभु जब भजन गाते थे तो ऐसा लगता था मानो वे ईश्वर का आह्वान
कर रहे हों”[4]। यह
बात उस कीर्तन शैली में स्वर की तीव्रता की और संकेत करती है। स्वर की तीव्रता
नारदी गायन की भी विशेषता है। नवद्वीपीय कीर्तन के प्रभाव से ही बिहार में
कीर्तनिया नाच की शुरुआत हुई थी। अधिकांश विद्वान नारदी को कीर्तनिया का ही एक रूप
मानते हैं।[5]
विद्वानों का यह मत हमें बताता है कि
नारदी गायन की शुरुआत मध्यकाल में हुई थी।
भारत में प्राचीन काल में विकसित लगभग
सभी कलाओं की उत्पत्ति का सम्बन्ध किसी-न-किसी देवी-देवता और आदिपुरुषों से जुड़े आख्यानों
से होता है। उदाहरणस्वरूप नाट्यकला, संगीत, चित्रकला आदि। लेकिन जब विभिन्न
स्रोतों से उस कला का प्रमाणिक इतिहास की जानकारी मिलती है; समाज में उसकी स्थिति
एवं उसके गुण-दोषों का तार्किक और वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाता है; तब उसकी उत्पत्ति
के मानवीय कारणों का पता चलता है। इस प्रकार उस कला की उत्पत्ति के दो मत होते हैं, दैवी मत
और मानवी मत। कई बार दैवी मत लचर होने के कारण कहानी मात्र प्रतीत होता है तो कई
बार हम चाहकर भी उसकी उपेक्षा नहीं कर पाते हैं क्योंकि वह कला के वर्त्तमान
स्वरूप के साथ सटीक बैठ रहा होता है। लेकिन सिर्फ साहित्यिक स्रोतों या श्रुति
परंपरा के आधार पर उसे पूर्णतः सत्य भी नहीं मान सकते। इसलिए हमें दोनों मतों को
मानना होता है। खासकर आनुष्ठानिक कलाएँ तो स्वभावतः दैवी मत से जुड़ ही जाती हैं।
नारदी गायन भी आनुष्ठानिक कला है। इसलिए बिना उलझे हमें दोनों प्रकार के मतों पर
विचार करना ही उचित लगता है। उपरोक्त मतों पर विचार करने पर हम पाते हैं कि अन्य
बातों की सत्यता चाहे जो हो पर एक बात निस्संदेह कही जा सकती है कि ‘नारदी गायन’
बहुत पुरानी लोककला है।
नारदी की मंडली में कम-से-कम पांच-छह और
अधिक-से-अधिक पंद्रह-सोलह कलाकार होते हैं। सभी कलाकार पुरुष ही होते हैं।
निर्धारित दिन, समय से, सभी कलाकार अपने वाद्ययंत्र - मृदंग, झांझ और हारमोनियम
लेकर आयोजक के यहाँ पहुंचते हैं। नारदी गायन में मृदंग मुख्य वाद्य होता है। यह एक
अवनद्ध[6]
वाद्य है। इसे उत्तर भारत में पखावज[7]
भी कहा जाता है। आयोजन स्थल पर सारे कलाकार गायन के लिए मंडलाकार बैठ जाते हैं और
साज मिलाते हैं। पूजा शुरू होने के समय कलाकार खड़े हो जाते हैं और वाद्य-वादन शुरू
करते हैं। सामान्यतः महंत[8]
मृदंग बजाता है। वह सबसे ज्यादा अनुभवी व्यक्ति होता है। एक कलाकार हारमोनियम
बजाता है। तीन-चार झाल[9]
बजाने वाले होते हैं। अगर मंडली में कलाकारों की संख्यां अधिक हो तो मृदंग वादक और
झालौतों[10]
की संख्यां अधिक भी होती है।
सबसे पहले मृदंग वादक कोई साधारण बोल
बजाना शुरू करता है। जैसे
धिधिग धिन ता तत तत गद गन धा।
ऐसा बोल तीन बार बजाया जाता है। इस बीच
अन्य वादक और कलाकार पूरी तरह से तैयार हो जाते हैं। फिर ‘सम’[11]
बजाने की शुरुआत होती है। पहले उठान लेते हैं। इसके लिए कई मात्राएँ, जैसे- दस
मात्रा, बारह मात्रा, सोलह मात्रा आदि बजायी जाती हैं। जैसा मृदंग का बोल होता है
झाल भी उसी अनुरूप बजाया जाता है। उसी तरह हारमोनियम वादक भी संगत शुरू कर देता है।
इसी तरह आगे बढ़ते हैं। पूरा वादक दल कभी स्थिर रहकर झूमते हुए तो कभी मंडलाकार
नाचते-थिरकते हुए वाद्य बजाता है। गायन-वादन न सिर्फ खड़े रहकर बल्कि बैठकर भी किया
जाता है।
नारदी गायन में समबाजी के दो उद्देश्य होते
हैं। पहला, पूर्वरंग की भांति दर्शकों को इकठ्ठा करना और दूसरा, कलाकारों का अपनी
कला-विज्ञता प्रदर्शित करना। क्योंकि गायन शुरू हो जाने पर उन्हें यह अवसर नहीं
मिलता है। एक गीत में एक ही तरह का ठेका बजाना उनकी मजबूरी होती है जबकि समबाजी के
समय वे वादन में हर तरह का प्रयोग कर पाते हैं। जैसे मृदंग पर सम, विषम और मिश्र
तीनों तरह के प्रचार[12]
करना आदि। कुछ विज्ञ दर्शकों का कहना है, समबाजी में जब कलाकार पूरे भावावेश में आ
जाते हैं और दो कलाकारों की युगलबंदी होती है तो दृश्य पश्चिमी ‘जैज’[13]
जैसा लगने लगता है।
समबाजी के बाद गायक गायन शुरू करते हैं।
गायन में अलाप लेते हुए, रामा हो रामा...और...कि...यो...जैसे
शब्दों का टेक लेकर गाते हैं। कई बार टेक नहीं लेकर पंक्तियों को ही बार-बार
दुहराया जाता है। पुराने समय में गायक गायन के लिए धीमा उठान लेकर गहरा अलाप लेते
हुए चौगुन पर पहुंचते थे। जैसे-जैसे मृदंग पर हथेली और उँगलियों की गति तेज होती
जाती थी उसी तरह स्वर भी उत्तरोतर तीव्र होता जाता था। जब स्वर की तीव्रता चरम पर
होती थी तो आवाज़ कई किलोमीटर दूर तक पहुँच जाती थी। अब वह चलन लगभग समाप्त हो गया
है। क्योंकि पुराने ज़माने में बजाये जानेवाले मृदंग के कठिन बोलों की जगह,
अपेक्षाकृत आसान ठेके ने ले लिया है। अब उतने कठिन बोल बजाने वाले कलाकार भी नहीं
के बराबर रह गए हैं और नई पीढ़ी वैसा गायन पसंद भी नहीं करती है।
गायन में सबसे पहले गणेश या शक्ति की
वंदना की जाती है। फिर कृष्ण सहित अन्य देवताओं के भजन गाये जाते हैं। उसके बाद कृष्ण
के जन्म से सम्बंधित सोहर गाया जाता है। तत्पश्चात भगवान कृष्ण से सम्बंधित आख्यान
शुरू होता है और फिर अलग-अलग तरह के आख्यान गाए जाते हैं। वे आख्यान, राजा
हरिश्चंद्र, ध्रुव, प्रह्लाद, मोरध्वज, भक्तमाल, सूरदास, द्रौपदी चीरहरण, राम
वनवास, सीता वनवास, सुदामा आदि के होते हैं। भागलपुर क्षेत्र में दर्शकों की मांग
पर कुछ अन्य धार्मिक-सामाजिक मिथकीय आख्यानों को भी सुनाया जाता है। जैसे- सती
नागचम्पा, शंकर-सुशीला, सीत-वसंत आदि। ऐसे आख्यान नारदी गायन की दूसरी पाली में
होते हैं। आख्यान गायन में मुख्य व्यक्ति जो मूलगैन[14]
या महंत होता है, आख्यान कहना शुरू करता है। बीच-बीच में उससे संबंधित पद गाता है।
झालौते और अन्य गायक पीछे-पीछे पद को दुहराते चलते हैं। नारदी गायन में गाये
जानेवाले पदों, गीतों और आख्यानों की भाषा को जानकर इसके भाषाई स्वरूप का भान होता
है। इसमें रामचरित मानस के दोहे और चौपाई गाए जाते हैं। जैसे-
कर्म प्रधान विश्व करि
राखा।
जे जस करइ से तस फल चाखा।।
मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवहु सु दसरथ अजिर
बिहारी।।
स्पष्ट है कि इसकी भाषा अवधी होती है।
कुछ मंडलियाँ, जैसे- पपौर (बेगूसराय) के रामसागर
पंडित की मंडली, अगर रामायण का कोई प्रसंग सुनाती है तो छंद, दोहा और चौपाई तो
रामचरित मानस से लेती है लेकिन अन्य पद राधेश्याम रामायण[15]
से लेती है। जैसे-
खुली जभी
योगेश की, वह समाधि अविराम।
मुख से निकला शब्द यह-‘जय मायापति राम’।।
गिरी गिरिसुता चरण में, तभी जोड़कर हाथ।
पूर्व जन्म की यादकर, बोल उठीं-‘हे नाथ’।।[16]
मुख से निकला शब्द यह-‘जय मायापति राम’।।
गिरी गिरिसुता चरण में, तभी जोड़कर हाथ।
पूर्व जन्म की यादकर, बोल उठीं-‘हे नाथ’।।[16]
गाने में आसान ये पद कवित्त शैली
में लिखे गये खड़ी बोली के हैं।
निर्गुण के अधिकांश पद कबीर के,
रामानंद के, और पल्टूदास रचित होते हैं। जैसे-
कवने ठगवा
नगरिया लूटल हो...
या
सुनो रे
आलि बलमा को ले गए थानेदार...
इत्यादि। कबीर की कोई निश्चित भाषा
नहीं है इसलिए उनकी भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ भाषा कहा जाता है। रामानंद और पल्टूदास के
पदों पर भी उनकी अपनी छाप रहती है।
माखन चोरी, दधिलीला, चीर चोरी, वियोग
श्रृंगार आदि में, लोककंठ में बसने वाले लोकगीत, स्थानीय लोकभाषा, मैथिली और अंगिका
बोली में गाये जाते हैं। जैसे-
खा गइले हे राते मोहन
दहिया...
या
एक दिन गेली राधा जमुना
किनारे हे कदमतर
करे असनान चीर धेलन उतार
हे कदमतर...
या
कोने कारण भगवन गोकुलगृह
तेजलन ए उधो...
अन्य पद सोहर, समदाउन, भजन और निर्गुण
आदि भी स्थनीय बोली में गाये जाते हैं। जैसे –
ललना रे एही पार देवकी
नहाय कि वही पार जशोमती रे...
या
सात रे भैया के दुलरी
बहिनियाँ चलली अपन ससुरार...
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त कथा प्रसंगों
में कलाकार अपनी बोलचाल की भाषा और खड़ीबोली हिंदी का इस्तेमाल करते हैं। कुछ
मंडलियों के अनुभवी और थोड़े पढ़े-लिखे गायक संस्कृत के श्लोक भी गाते हैं। इन सब
तथ्यों के आधार पर यह आसानी से कहा जा सकता है कि नारदी गायन की कोई एक परिष्कृत
भाषा नहीं है। बोलचाल में इसे मिलीजुली या खिचड़ी भाषा कहा जा सकता है। लेकिन ऐसी
ही भाषा में गाए गए पदों की मार्मिकता इतनी अधिक होती है कि श्रोता सहज ही
रोमांचित हो उठते हैं। खासकर निर्गुण गायन के समय उनकी आँखों से अश्रुपात तो
सामान्य बात है।
अंग क्षेत्र में श्राद्ध के अंतिम दिन जब
कर्म समाप्ति की ओर बढ़ रहा होता है तब गायन की शुरुआत होती है। वंदना आदि के बाद
निर्गुण गाने की शुरुआत होती है। निर्गुण के बाद आख्यानों का दौर शुरू होता है।
भागलपुर में नारदी गायन अनिवार्यतः एक दिन-रात का होता है। इसलिए यह दो पाली में
गाई जाती है। पहली पाली में दिन ढले गायन शुरू होता है और देर रात तक समाप्त हो
जात है। फिर दूसरे दिन सुबह से दूसरी पाली की शुरुआत होती है। मिथिलांचल में चौबीस
घंटे की अनिवार्यता नहीं होती है। अगर होती भी है तो रात में पहली पाली ख़त्म करके
दूसरी पाली सुबह नौ दस बजे से शुरू होती है जो दिन के दो-तीन बजे तक ख़त्म हो जाती
है। दूसरी पाली में भी गायन से शुरू करके कृष्ण की गोप लीला, बाल लीला, दधि लीला
आदि आख्यानों को सुनाते हुए समदाउन गाकर ख़त्म किया जाता है। अंग क्षेत्र में भी
ऐसा ही होता था। लेकिन अब दधिलीला दिखाई जाने लगी है। क्योंकि वर्तमान समय में
नारदी गायन में नृत्य और नाट्य का प्रवेश हो गया है। मिथिलांचल में थोड़ा कम जबकि
अंगक्षेत्र में नारदी का स्वरूप अब पूरी तरह से बदलकर नृत्य-नाट्यात्मक हो गया है।
मिथिलांचल में बेगुसराय जिले के खोदावंदपुर में ‘सतभैया मंडली’ एक मात्र ऐसी मंडली है जो नारदी गायन को मूल रूप में बचाए रखने के लिए
संघर्ष कर रही है। जबकि अन्य सभी मंडलियों में ‘नारदी’ का स्वरूप अंशतः या पूर्णतः बदल चुका है।
नारदी का स्वरूप बिगाड़ने में कलाकारों की
अपेक्षा जनरूचि का ही दोष है। नए दौर में, लोगों में आध्यात्मिकता द्रुत गति से
ख़त्म होती जा रही है। नई पीढ़ी पर भौतिकता इस तरह हावी हो गई है कि वह नारदी जैसे
भक्तिपूर्ण कला में भी मनोरंजन और उत्तेजना के क्षण तलाशने लगी है। हरिदासपुर
(भागलपुर) की मंडली के महंत चंदरदास ने कहा, हद तो तब हो जाती है जब लोग धार्मिक
प्रसंगों के बीच में भी नर्तकों से भोजपुरी गीत गाकर नाचने की फरमाइश कर देते हैं।
अस्तित्व रक्षा के लिए संघर्षरत कलाकार दर्शकों की जायज़-नाजायज़ मांगें पूरी करने
के लिए विवश हैं। किसी भी तरह की राजनैतिक सहायता-संरक्षण प्राप्त नहीं होने से नारदी
गायन का शुद्ध रूप तो इतिहास बनने के कगार पर पहुँच ही गया है। बदले हुए स्वरूप को
भी लगातार घटते सामाजिक संरक्षण के भरोसे गरीब किसान और खेतिहर मजदूर वर्ग से
आनेवाले कलाकार कब तक बचा सकेंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है।
प्रस्तुति
कृष्ण मोहन
शोध छात्र ( एम॰फिल॰)
प्रदर्शनकारी कला (फिल्म और नाटक) विभाग
म॰ गां॰ अ॰ हिन्दी
विश्वविद्यालय, वर्धा, महाराष्ट्र ।
संदर्भ :
पुस्तक :
1.
(डॉ) उषा वर्मा,
लोकरंग : बिहार, डी॰ एस॰ बुक्स डिस्ट्रीब्यूटर,
पटना – 800006, पृ॰
2.
(डॉ) लालमणि
मिश्र, भारतीय संगीत वाद्य, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली-110032, पृ॰
आलेख :
1.
नारदी विषय-कीर्तन, इप्टा पटना।
इंटरनेट :
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