शुक्रवार, 30 मार्च 2018

दृश्य-श्रव्य माध्यम से जुड़े लोगों के लिए अपेक्षित अंतरानुशासनिक विषय और उसकी जानकारी



अंतर अनुशासनिक अध्ययन की अवधारणा पर के मूल में एक दार्शनिक विचार है कि ज्ञान अखंड है और विभिन्न विषय उस अखंड ज्ञान की ओर पहुँचने के रास्ते हैं। इसलिए अंततः वे किसी न किसी रूप में एक दूसरे से प्रभावित होते हैं। अगर हम व्यावहारिक रूप से भी विचार करें तो यह पता चलता है कि कोई भी विषय ऊपरी स्तर पर दूसरे विषयों से स्वतंत्र दिखाता है लेकिन ज्यों-ज्यों हम उसकी गहराई में उतरते जाते हैं त्यों त्यों उस पर अन्य विषयों का प्रभाव आसानी से दिखाई पड़ने लगता है। विज्ञान जिसका आधार भावना या कल्पना न होकर शुद्ध बौद्धिकता होती है, वह भी किसी न किसी रूप में दूसरे विषयों के प्रभाव में आता ही है तो मानविकी के विषयों की बात ही क्या है जिसकी संकल्पना ही भावना-कल्पना और अवलोकन के इर्द-गिर्द घूमती है। अपने स्वरूप के कारण ही मानविकी के विषयों में अंतर अनुशासनिक अध्ययन और शोध की आवश्यकता अधिक होती है।

साहित्य और हमारा विषय प्रदर्शनकारी कला जो दृश्य-श्रव्य माध्यमों के अंतर्गत आता है, मानविकी के महत्वपूर्ण घटक हैं, इसलिए स्पष्टतः ही दूसरे विषयों से प्रभावित होते हैं। कहा जाता है कि साहित्य में सभी विषयों का समाहार होता है। लेकिन लिखित रूप में जबकि दृश्य श्रव्य माध्याम में साहित्य को दर्शकों या श्रोताओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है जिसके लिए विभिन्न कलाएं, जैसे – अभिनय, संगीत आदि के अतिरिक्त के अतिरिक्त वैज्ञानिक तकनीकों का भी उपयोग होता है। इस तरह दृश्य-श्रव्य  माध्यम अंतर अनुशासनिक स्तर पर साहित्य से भी कई कदम आगे निकल जाता है। दृश्य-श्रव्य माध्यामों की संबद्धता जिन प्रमुख अंतर अनुशासनिक क्षेत्रों यानि विषयों से है वे विषय हैं : इतिहास, दर्शन, समाजशास्त्र, मनोविज्ञान, चित्रकला, संगीत, नृत्य, ध्वनि और प्रकाश। इसके अतिरिक्त सिलैबस में एक बिन्दु है प्रस्तुतीकरण के अन्य आधुनिक तकनीकी प्रसाधन। इसके अंतर्गत कई छोटी बातें आती हैं।

इतिहास :

जब कोई ऐसा नाटक, फीचर फिल्म, डॉक्यूमेंटरी,धारावाहिक आदि बनाया जाता है जिसका आधार ऐतिहासिक कहानी हो तो इसके लिए इतिहास की जानकारी आवश्यक हो जाती है न केवल तथ्यों या आंकड़ों के स्तर पर बल्कि कला और संस्कृति दोनों स्तर पर क्योंकि जिस काल खंड या चरित्र से जुड़ी कहानी होती है उस काल खंड के परिवेश और उस चरित्र को विश्वसनीय तरीके से दिखाना होता है। इसके लिए आवश्यक होता है कि फ़िल्मकारों और नाट्य निर्देशकों को इतिहास की जानकारी हो। बड़ी फिल्मों में, फिल्म यूनिट में इसके लिए इतिहासकार को रखा जाता है या रखा जा सकता है। लेकिन नाटकार या पटकथा लेखक व्यक्तिगत स्तर पर ऐसा कर नहीं सकते। बजट आदि की परेशानी के चलते सभी फ़िल्मकार भी ऐसा नहीं कर सकते हैं। अगर इतिहासकार की सहायता ली भी जाए तो भी रचना-प्रक्रिया की जटिलता, माध्यम की सीमाओं आदि की जानकारी कलाकारों को होती है इतिहासकारों को नहीं। उनसे जानकारी तो मिल सकती है लेकिन उसे फिल्म या नाटक में किस प्रकार स्वभविक रूप से रखा जाए यह कलाकार ही कर सकते हैं। इसलिए उन्हें इतिहास की जानकारी होना आवश्यक हो जाता है। कला निर्देशक के लिए तो इतिहास की अच्छी जानकारी अनिवार्य ही है।

दर्शन :

जब दृश्य-श्रव्य माध्यम से कुछ भी प्रस्तुत किया जाता है तो प्रस्तोता वस्तुतः दर्शकों या श्रोताओं तक कोई विचार संप्रेषित करने का प्रयास किया जाता है। प्रस्तुतकर्ता का प्रयास सायास हो या अनायास पर कोई भी विचार ऐसा नहीं होता है जो किसी न किसी दर्शन के लपेटे में ना आता हो। नई रचनाएँ तो समकालीन दर्शन से प्रभावित होती ही है, पुरानी पुरानी रचनाएँ भी तत्कालीन दर्शन से अवश्य प्रभावित होती है। प्रस्तुति प्रभावशाली हो इसके लिए यह आवश्यक होता है कि उससे जुड़े लोगों को दर्शन की अच्छी समझ हो। किसी भी प्रस्तुति में  दर्शन ना केवल कथ्य और शैली बल्कि शिल्प तक भी व्याप्त हो सकता है। यहाँ तक की एक ही प्रस्तुति में कई दर्शनों का प्रभाव भी दिखाया जा सकता है बशर्ते की प्रस्तोता को उन दर्शनों की अच्छी समझ हो। अतः किसी भी तरह का संदेह विवाद और भ्रम उत्पन्न करनेवाली प्रस्तुति से बचने के लिए उससे जुड़े लोगों को दर्शन का ज्ञान हो यह अपेक्षित हो जाता है।

समाजशास्त्र :

जैसी भी प्रस्तुति हो उसमें दिखाई जानेवाली परिघटना समाज से संबन्धित होती है। मनुष्य की व्यतिगत भावनाएँ भी सामाजिक शक्तियों से प्रभावित होकर रूपाकार ग्रहण करती है। हमें कल्पना की उड़ान हमें जहां भी ले जाए लेकिन अंततः हमें पाँव समाज की धरातल पड़ टिकना ही पड़ता है। यही कारण है की फंतासी फिल्मों में भी किसी न किसी रूप में समाज दिखाई पड़ ही जाता है। कोई भी समस्या समाज से परे नहीं होती या उसका प्रभाव समाज पर होता है ऐसे में यह अनिवार्य है कि दृश्य-श्रव्य माध्यम से जुड़े लोगों को सामाजिक संरचना और उसकी कार्यकारी शक्तियों का ज्ञान हो जो समाजशास्त्र के अध्ययन से ही संभव है।

मनोविज्ञान :

किसी भी नाटक और फिल्म की सफलता के लिए यह आवश्यक होता है कि निर्देशक और कलाकार दोनों को चरित्रों की मानसिकता की सही समझ हो। इसके अतिरिक्त  दृश्य-श्रव्य माध्यम से जो भी प्रस्तुत किया जाता है उसके केंद्र में होते हैं कलाकार और साथ ही बहुत सारे पार्श्वकर्मी भी होते हैं। ये सभी चेतनशील प्राणी होते हैं। खासकर प्रदर्शनकारी कलाओं के संदर्भ में कहा जाता है कि निर्देशकों का औज़ार जीवित प्राणी होता है जिससे वह रचना करता है। जीवित प्राणी मन से परिचालित होता है। इसलिए वाद-विवाद, आशा-निराशा, आक्रामकता-निष्क्रियता की संभावना प्रबल होती है। इसलिए किसी भी प्रकार की अवांछित स्थिति को प्रबंधित करने के लिए और प्रस्तुति की उत्कृष्टता  तभी संभव होती जब इससे जुड़े लोगों को मनोविज्ञान का ज्ञान हो। मनोविज्ञान के ज्ञान के विना सफल प्रस्तुति संभव नहीं हो सकती है।

चित्रकला :

फिल्म और नाटकों मे चित्र कला का योगदान प्रत्यक्ष न होकर अप्रत्यक्ष होता है। कोई भी अच्छा चित्रकार अपने चित्रों में प्रकाश और छाया, रंगों और आकृतियों के समूहन की बहुत ही सुंदर योजना करता है। अच्छे चित्रों को देखने से फिल्म और नाटकों में प्रकाश योजना, वस्त्र योजना, कलाकारों के बीच के समूहन को प्रभावी बनाने में सहायता मिलती है। फिल्मों में स्टोरी बोर्ड के निर्माण के लिए भी चित्रकला की जानकारी आवश्यक होती है।

संगीत और नृत्य :   

संगीत और नृत्य की स्वतंत्र लोकप्रियता तो है ही। नाटकों में फिल्मों में इसका प्रयोग प्रदर्शन को सरस और मनोहर बना देता है जिससे उसकी रंजकता बढ़ जाती है। लेकिन इन दोनों तत्वों का असंतुलित प्रयोग प्रदर्शन में विसंगति उत्तपन्न कर देते है क्योंकि प्रस्तुति में इसकी स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है बल्कि इसे कथा वस्तु के साथ समायोजित किया जाता है। इस कार्य के लिए फिल्मों और नाटकों में अलग से संगीतकार और नृत्य निर्देशक रखे जाते हैं। लेकिन नृत्य और संगीत का समायोजन सम्यक तरीके से हो इसलिए  संबन्धित विधा कए निर्देशक को नृत्य और संगीत की न केवल समझ बल्कि उसके इतिहास की भी जानकारी होनी चाहिए।   

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