आधुनिक
भारतीय चित्रकारों में मकबूल फिदा हुसैन को सबसे प्रमुख चित्रकार माना जाता है।
हुसैन का जन्म पंढरपुर (महाराष्ट्र) में 1915 में एक गरीब सुलेमानी बोहरा परिवार
में हुआ था। जन्म के कुछ ही महीने बाद माँ चलबसी और कुछ वर्षों बाद पिता। इसलिए
उनका लालन पालन उनके नाना के यहाँ हुआ। हुसैन को भाषा-साहित्य-धर्म-कैलिग्राफी आदि
की निर्णायक पृष्ठभूमि नाना के यहाँ ही मिली। हुसैन ने इंदौर में कला की शिक्षा के
बाद बंबई के जे. जे. कॉलेज ऑफ फाइन आर्ट में भी दाखिला लिया, लेकिन परिस्थितिवश वापस इंदौर लौट गए। कम उम्र में ही लोगों को हुसैन की
प्रतिभा का परिचय मिला जब 17 साल की उम्र में उन्हें इंदौर के एक कला प्रदर्शनी
में स्वर्ण पदक मिला। प्रतिभा सम्पन्न होने के वावजूद उनका प्रारम्भिक जीवन
संघर्षपूर्ण रहा इसलिए बंबई में उन्हें फिल्मों के पोस्टर तक पेंट करना पड़ा। कला
की दुनियाँ में हुसैन को सम्यक प्रसिद्धि 35 साल की उम्र में 1950 से मिलनी शुरू
हुई।
कला
समीक्षकों ने हुसैन की कला को विभिन्न चरणों में बांटने की कोशिश की है। 1947 के
बाद के चार-पाँच वर्षों में चित्रों के कच्चेपन और सादगी को आसानी से पहचाना जा सकता
है। 1947 का चित्र “चाक पर काम करता कुम्हार” और 1950 की
पेंटिंग “किसान जोड़ा” ऐसे ही उल्लेखनीय चित्र है। इसके बाद हुसैन ने लोकजीवन को
अपनी प्रेरणा का प्रमुख आधार बनाया। इस क्रम में उन्होने तैलचित्र, जलरंग, म्यूरल आदि विभिन्न माध्यमों में लोकजीवन को
उतारने की कोशिश की।
पचास
के दशक के अंतिम वर्षों में उन्होनें भारतीय और पश्चिमी कला की टकराहट को अपनी कला
में अपेक्षाकृत बेहतर ढंग से आत्मसात किया, फलस्वरूप
उन्होने सर्वश्रेष्ठ चित्रों की रचना की। हुसैन रचित तब के प्रमुख चित्र है: “दो
स्त्रियों का संवाद” (1957), “मकड़ी और
लैम्प के बीच”(1955), “दुपट्टों में तीन औरतें”(1955), ‘नीली रात’(1959), घोड़ा आदि।
ये सभी चित्र हुसैन की कला की केंद्रीय बनावट को उभारते हैं। उस दशक के दो-तीन
चित्रों ने ही उन्हे आधुनिक भारतीय कला में एक विशिष्ट स्थान दिला दिया। आज भी ‘मकड़ी और लैम्प के बीच’ नामक मशहूर चित्र जैसा सादा
और ताकतवर चित्र भारतीय कला के इतिहास में दूसरा नजर नहीं आता है। उस दशक में
हुसैन सिर्फ सक्रिय ही नहीं बल्कि सार्थक भी थे।
बाद
में हुसैन ने रागमाला, नृत्य,
महाभारत, रामायण, राजस्थान, कश्मीर, बनारस, मैसूर, मध्यपूर्व, आत्मचित्र आदि उनके शृखलाओं को अपनी कला
की प्रेरक शक्ति बनाया। इन श्रंखलाओं के माध्यम से हुसैन ने 1955-60 में अपने
चित्रों की जो पहचान स्थापित की थी, उसके विभिन्न रूपों को
उभारा। हुसैन ने अपनी कला के माध्यम से आधुनिक भारतीय कलाकार की छवि को लोकप्रिय
बनाया क्योंकि उनकी कला आधुनिक भी थी और उसे भारतीय जीवन से आसानी से जोड़ा जा सकता
था। 1960 के बाद के हुसैन के चित्रों की दुनियाँ के विषय थे- नृत्य, संगीत, घोड़े, हाथी, चंद्रमा पर मनुष्य का पहुँचना, महात्मा गांधी, आपातकाल, मदर टेरेसा आदि। ये सभी चित्र हुसैन की
कला के स्वभाव को बता देते हैं। चित्रों की विषय की विविधता हुसैन की बेचैनी को
बताता है। लेकिन हर बार हुसैन अपनी बेचैनी को स्थापित नही कर सके।
बाद
के युवा चित्रकाओं ने उनकी लोकप्रियता को स्वीकार किया और भारतीय कला में उनके
योगदान को महत्वपूर्ण माना लेकिन बेचैनी को स्थापित होने की असफलता को लक्ष्य करके
कहा- वे इतने बेचैन हैं, कि शायद ही वे किसी कैनवास को
जितना समय चाहिए उतना दे पते हैं। आकृतियों में अधीरता नजर आती है, ‘स्ट्रोक्स शैली बद्ध हो जाते है। ऐसा लगता है कि
उनकी आकृतियां स्पेस में असावधानी से बिना किसी पहचान के लटकी हुई हैं
1960
के बाद कला में मास्टरी के बावजूद भी एक
कैनवास पर ज्यादा देर न टिक पाने की मजबूरी या स्वभाव ने हुसैन के प्रभाव को कम कर
दिया। 1950 के दशक में हुसैन अपने चित्रों में घोड़े और हाथी को चित्रित किया था।
तब से घोड़े और हाथी उनके चित्र में प्रतीक रूप बार-बार दिखने लगे| प्रतीक के रूप घोड़ा तो ऐसा रुढ़ हुआ की अंत तक उनके चित्र में दिखाई पड़ता
रहा| सीमित प्रतीकों के लगातार प्रयोग के कारण हुसैन पर
दोहराव का आरोप लगने लगा। ऐसे आरोप भी हुसैन के प्रभाव को कम करने का महत्वपूर्ण
कारक बना।
अपने
चित्रों में दोहराव के सवाल पर हुसैन ने कहा था, “हाँ यह ठीक है कि मैं अपने को
दोहराता हूँ। धनवाद, अमूर्तकला आप सभी जगह यह दोहराव पाएंगे।
गुप्तकाल की कई शताब्दियों तक आप इस दोहराव को देख सकते है। में जब अपनी कला में
कुछ नई चीजों, कुछ बातों को दोहराता हूँ, तो मेरा मकसद अपनी कला के खास तत्वों पर ज़ोर देना होता है।” लेकिन नित नवीनता का आग्रही प्रेक्षक वर्ग और कला मर्मज्ञों का बड़ा समूह
उनके इस तर्क या सफाई से सहमत नहीं हुआ। इसपर हुसैन ने अपनी प्रतिक्रिया अनूठे ढंग
से दिया। जब सत्तर के दशक में यह लगने लगा की हुसैन अब हाथी-घोड़े और चेहरे
बनाते-बनाते शायद थक चुके हैं। उनमें जीवंतता नहीं है और नया कुछ नहीं है तो नब्बे
के दशक की शुरुवात में हुसैन कैमरा और रंगीन फिल्में लेकर दक्षिण की सड़कों पर
पहुँच गए। दक्षिण की सड़को पर लगे फिल्मों के विशाल पोस्टरों को हुसैन ने जिस तरह
से देखा वह दृष्टि सर्वथा नई थी। उन सड़को की फिल्म संस्कृति से हुसैन जो चीजें लाए
उनमें एक नया कोण और नई बात थी। वास्तव में हुसैन ने कैमरे से पेंट किया था। हुसैन
ने दक्षिण के उन पोस्टरों के साथ सचमुच के लोग बूढें-बच्चे आदि को संयोजित कर
तरह-तरह की तीखी टिप्पणियाँ की। इस तरह विकृतियों के सहारे जीवन को पकड़ा और जाना।
अपने ऊपर लगे आरोपों की प्रतिक्रिया में हुसैन का यह कार्य कला जगत की अद्वितीय
परिघटना मानी जा सकती है|
शुरुआती
कुछ वर्षों के बाद विभिन्न चरणों से गुजरते हुसैन की कला के चढ़ते-गिरते ग्राफ का
एक अन्य प्रबल पक्ष विवाद भी रहा। हुसैन ने अपने चित्रों में सामान्य महिलाओं के
अतिरिक्त भारतीय मिथकीय चरित्रों का नग्न चित्रण किया। खास कर दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसी हिन्दू देवियों का नग्न चित्रण ने विवाद को
चरमोत्कर्ष पर पहुंचा दिया। हालांकि इन चित्रों में भी रेखाओं का संयोजन एवं
कलात्मक उत्कृष्टता अद्वितीय है। लेकिन नग्नता सब पर भारी पड़ गई। देश विदेश के
प्रख्यात कला मर्मज्ञों और समीक्षकों ने हुसैन के चित्रों की नग्नता को भारतीय कला
मूल्यों के अनुकूल बताया। उन्होने प्राचीन काल की मूर्तियों और चित्रों में
विभिन्न चरित्रों के साथ-साथ देवी-देवताओं के नग्न अंकन का उदाहरण देकर हुसैन का
समर्थन किया। स्वयं हुसैन ने ऐसे चित्रों के विषय में कहा,
“जब मैं औरत का नग्न चित्र बनाता हूँ तो उसकी नग्नता में नंगापन नहीं होता। उस तरह
की नग्नता आपको मंदिर की कला में मिलती है।” भारतीय
दक्षिण-पंथियो ने हुसैन की कोई सफाई नहीं मानी बल्कि तर्क करते हुए कहा, “अगर हुसैन की कला, कला मूल्यों के अनुकूल है तो
उन्होने अपनी माँ का चित्र पूरे कपड़े में क्यों बनाया?”
हुसैन के पास इस तर्क का कोई उत्तर नही था। दक्षिण-पंथियो के तीव्र विरोध और
मुकदमे के कारण हुसैन को जीवन के अंतिम चरण में स्वधोषित निर्वसन (कतर) का दंश
झेलना पड़ा।
हुसैन
के द्वारा बनाए गए सभी चित्रों पर समग्रता से विचार करने पर हम पाते हैं कि, उनके चित्रों के संसार में इतनी विविधता है, जीवन
का विराट उत्सव है कि उसके बारे में अलग से बात करना आसान नहीं है। उन्होने अपनी
कल्पना शक्ति को शुरू से ही विभिन्न स्त्रोतों से संबद्ध किया। पश्चिमी कला से भी
वे सीखते रहे और जहां तक भारतीय स्त्रोतों से सीखने का सवाल है, उसका कोई आसान ग्राफ नहीं बनाया जा सकता है। हिन्दू-मुस्लिम दोनों
स्त्रोतों कि सामग्रियों के साथ-साथ भारतीय कला और मूर्तिशिल्प के विशाल भंडार को
उन्होने अपनी प्रेरणा का स्त्रोत बनाया। इसलिए भारतीय संस्कृति को अनेक आयमी संसार
उनके चित्रों में दिखाई पड़ता है। इन स्त्रोतों से वे इतनी बार प्रेरित हुए कि
गिनती करना मुश्किल है। उनके चित्रों में चेहरे, प्रतीक, रंग, ब्रश-स्ट्रोक्स एक ऐसी
दुनियाँ से निकलते है जहां कलाकार कि प्रेरक शक्ति असाधारण किस्म कि ऊर्जा है। उस ऊर्जा से संवलित हुसैन
के चित्र विशिष्ट सौंदर्य कि सृष्टि करते हैं।
संदर्भ
:
1.
कला-चित्रकला – विनोद
भारद्वाज।
2.
भारतीय चित्रकला का
संक्षिप्त इतिहास – वाचस्पति गैरोला।
3.
इंटरनेट (विकिपीडिया व अन्य
लिंक)।
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