सिनेमा अभिव्यक्ति के
सर्वाधिक प्रभावशाली माध्यमों में से एक है जो हमारे समाज को हर स्तर पर प्रभावित
करता है। सिनेमा की उम्र बहुत लंबी नहीं है लेकिन इसका दखल हमारे जीवन में इतना
अधिक है कि पारंपरिक सभी कला रूप इसके सामने बौने हो गए है। वैसे देखा जाए तो भारत
में जो सिनेमा का रूप है वह सभी कलाओं का समुच्चय कहा जा सकता है। हमारी
मेलोड्राइमेटिक शैली शुरू से ही रही है क्योंकि भारत में सिनेमा को मनोरंजन का
साधन ही समझा जाता रहा है। हाँ बीच-बीच में ऐसी फिल्में बनी जो सिर्फ मनोरंजन से
इतर सामाजिक पारिवारिक समस्याओं को स्वस्थ तरीके से दिखाते हुये परिवर्तन का
विक्षोभ उत्पन्न करने का प्रयास करती नजर आयी। ऐसी फिल्मों को बहुतायत से बनने
वाली फिल्मों से इतर समझा गया। भारत में
फिल्मों का जो मुख्य स्वरूप है उसे मुख्य धारा का सिनेमा कहा गया और इससे
अलग हट कर बनने वाली फिल्मों को समय- समय पर अलग-अलग संज्ञा दी गयी। समानान्तर फिल्में
मुख्य धारा से अलग हट कर बनने वाली फिल्मों को कहा गया।
भारत में सिनेमा प्रारम्भ
में ही व्यवसायियों के हाथों में आ गया। उनका मुख्य उद्देश्य सिनेमा के माध्यम से
धन कमाना था इसलिए वे वैसी ही फिल्में बनाते रहे जो अधिकांश लोगो को खींचकर सिनेमा
घर तक ला सकती थी। इसके लिए वे मनोरंजक
फिल्में बनाते रहे। मुख्य दौर में भक्ति प्रधान फिल्में भी बनी लेकिन उनका भी
उद्देश्य दर्शक को खींचना ही था। क्योंकि तब की सामाजिक स्थिति ऐसी ही थी। अंततः मूल
में वही बात थी धन कमाना। जब सिनेमा का सवाक दौर शुरू हुआ तब तो पूरी तरह से
मनोरंजक फिल्में ही बनने लगी। विश्व में सिनेमा के दो ध्रुव थे, अमेरिकी सिनेमा और यूरोपिय सिनेमा। अमेरिकी सिनेमा शुरू से ही व्यवसाय
आधारित था। इसलिए उसमें चमक-दमक फांतासी औए सेक्स का सहारा लिया जाता था। यूरोपिय
सिनेमा अमेरिकी सिनेमा के अपेक्षा सभ्य और संतुलित था। लेकिन धन उससे भी कमाया
जाता था। हालाँकि भारत में अमेरिकी सिनेमा के प्रारूप को ही अपनाया गया।
1945 में इटली में फासीवाद
का अंत हो गया था। युद्ध कि विभीषिका पूरे यूरोप को जर्जर कर दिया था। ऐसे में
बुद्धिजीवियों में विमर्श छिड़ गया। क्या जीवन का यही रूप होता है? इस विमर्श का असर तत्कालीन सभी कलारूपों पर पड़ा सिनेमा भी इससे अछूता
नहीं रहा सिनेमा तो तत्कालीन स्थितियों के अनुरूप और विरोधाभासी था ही। क्योंकि समाज
में युद्ध से विपन्नता थी तो सिनेमा रोमांस और सपनों कि दुनियाँ में लोगों को भटका
रहा था। और ऐसी फिल्मों को बनाने में धन भी बहुत खर्च हो रहा था। इसलिए
लोगों ने सोचा कि ऐसी फिल्में बनाई जाए जो हमारे जीवन से जुड़ी हुयी हो। लेकिन उनके
पास धन नहीं था। इसलिए वे कथानक तो तत्कालीन साहित्यकारों कि अच्छी कृतियों से
लिया लेकिन धनाभाव के चलते कलाकार सामान्य लोगों को बनाने लगे। सिनेमा कि दुनिया में इसे नव यथार्थवाद
कहा गया। नव यथार्थवाद के जनक इतालवी
फिल्म आलोचक अंबर्टों बरबरों को माना जाता है। इस न्यू वेब के तहत ही बनी फिल्में
थी। डिसिका की बाइसिकिल थिव्स। उस समय कि स्थितियों के चलते इटली के साथ-साथ
फ्रांस और जापान आदि में भी यह आंदोलन फैल गया। इटली में डिसिका, रोबेरतों, रोसेलिनी, लूचीनो, सिसरे आदि; फ्रांस में त्रुफ़ों, गोदार, शाबरोल आदि। जापान में अकीरा कुरुसोवा आदि
न्यू वेब की फिल्मे बनाने लगे।
1950 के दशक में जब
उपरोक्त निर्देशकों की फिल्में भारत में दिखाई गयी तो तत्कालीन भारतीय निर्देशकों, विमल रॉय, सत्यजित रॉय,
राजकपूर आदि को बहुत प्रभावित किया। ये लोग ऐसी फिल्में बनाने का सोचने लगे फलतः
भारत में जागते रहो, दो बीघा जमीन,
बूटपालिश, दो आखें बारह हाथ, जैसी
फिल्में आयी। ऐसी फिल्में समाज की किसी समस्या या सच को एक कथासूत्र में पिरोकर
दर्शकों के सामने परोसा। ऐसी फिल्मों को सार्थक सिनेमा कहा गया। इस बीच 1954 में
ही सत्यजित रॉय पाथेर पांचाली बना चुके थे। सार्थक सिनेमा बनती तो रही लेकिन
सिनेमा का मुख्य चेहरा प्रेम और सपनों कि दुनियाँ ही बना रहा। राजेंद्र कुमार
जुबली कुमार कहे गए और सुपर स्टारडम का दौर शुरू हुआ। 1960-65 तक आजादी के सपने
टूटने लगे थे। राजनीति से लोगों का मोह भंग होने लगा था। लेकिन सिनेमा अपने मूलचरित्र
के साथ जड़ बना रहा। इस स्थिति के चलते कुछ संवेदनशील फिल्माकार बेहद आहात हुये ।
वे सब फ़िल्मकारों ने ऐसी फिल्में बनाने का प्रयास किया जो व्यक्तिक और सामाजिक समस्याओं
को व्याख्यायित करती थी। इस क्रम में 1969 पहली फिल्म बनी मृणाल सेन की ‘भुवन शोम’, यह ‘बनफूल’ के उपन्यास पर आधारित थी। 1969 में ही बासु चटर्जी ने राजेंद्र यादव के
उपन्यास पर ‘सारा आकाश’ बनाया और मणि
कौल ने मोहन राकेश कि कहानी पर ‘उसकी रोटी’ फिल्म बनाई। यहाँ से हिन्दी सिनेमा की मुख्य धारा के समानान्तर एक नयी
धारा चल पड़ी। चुकीं यह धारा मुख्य धारा के समानान्तर चली थी इसलिए इसे समानान्तर
सिनेमा कहा जाने लगा। समानान्तर सिनेमा की मुख्य विशेषता थी सार्थक कथानक, गीत-संगीत की उपेक्षा सामाजिक समस्याओं कि व्याख्या और प्रतिरोध का स्वर।
समानान्तर सिनेमा कि धारा
1969 से लेकर 80 तक अजस्य रूप से बहती रही। इस दरम्यान कई नए निर्देशक भी इस धारा
से जुड़े। इनमे मुख्य थे : श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, एम एस सत्थ्यु, प्रकाश झा, सईद मिर्जा आदि। फिल्में बनी अंकुर, निशांत, मंथन, मंडी, अर्धसत्य, तमस, गर्म हवा, अंधी गली, अर्थ, दामुल, जाने भी दो यारो आदि। 1990 तक आते-आते समानान्तर सिनेमा कि धारा एकदम
छिन्न हो गयी। फलतः श्याम बेनेगल जैसे निर्देशक समानान्तर सिनेमा के प्रारूप में
मनोरंजन के लिए गीत-संगीत जोड़ने लगे ताकि दर्शकों को जोड़ा जा सके। समांतर सिनेमा
के इस बदले रूप को ‘कला सिनेमा’ कहा
गया।
कला फिल्में आज भी बन रही
है। पान सिंह तोमर, कहानी, गैंगस
ऑफ वासेपुर जैसी फिल्में इसी श्रेणी की फिल्में मानी जाती है। मुख्य धारा की
फिल्में भी विभिन्न उतार चढ़ाव से गुजरकर 100 करोड़ से अधिक की कमाई करने कि स्थिति
में पहूँच गयी है। लेकिन इसका स्वरूप आज भी वैसा ही है। जो भी बदलाव आया है वह
बदलते सामाजिक स्थिति के कारण आया है पर मूल चरित्र वही है। सूक्ष्मता से विचार
करने पर हम पाते हैं कि विभिन्न कारणों से मुख्य धारा की फिल्मों को भी दर्शक
मिलना कम हो गया है। तो फिर कला फिल्मों की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता
है। पहले भी कला फिल्मों या समानान्तर फिल्मों को दर्शक कम ही मिलते थे। कला
फिल्में पुरस्कार तो प्राप्त कर लेती है लेकिन कमाई के मामाले में पिछड़ी ही रहती
है। इस सब के बावजूद भी निर्देशकों की नयी खेप उत्साहवश ऐसी फिल्में बनाते रहते
हैं जिससे उन्हें सम्मान तो मिलता ही है। कला फिल्में किसी-न-किसी समस्या को उठाती
है इसलिए इसकी प्रासंगिकता तो है ही। लेकिन जैसा कि हम सभी जानते है, फिल्म निर्माण अत्यधिक खर्चीला कार्य है। कमाई नहीं होने से कला फिल्मों
का निर्माण कब तक जारी रहेगा यह कहना मुश्किल है।
संदर्भ :
1. सिनेमा
उदभव और विकास
लेखक - डॉ॰ रयाज़ हसन
2. समसामयिक
सृजन
अक्टूबर-
मार्च 2012-13
3. कक्षा
व्याख्यान
व्याख्याता - डॉ॰ सुरेश शर्मा।
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