mohanstudy.blogspot.com
मनुष्य हमेशा से बदलाव का
आग्रही रहा है इसलिए विज्ञान हो या कला हर क्षेत्र में पुरानी विचारधारा या
सिद्धान्त को खारिज करते हुए या फिर उसके समानान्तर नई विचारधारा या नए सिद्धान्त
स्थापित होते रहे हैं। रंगमंच का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रहा है। इसमे भी समय-समय
पर भिन्न-भिन्न विचारधाराओं से अभिप्रेरित आंदोलन होते रहे हैं। 20वीं शताब्दी के
मध्य में रंगमंच के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण आंदोलन हुआ। इस आंदोलन को एपिक
थिएटर की संज्ञा दी गई। यह थिएटर अलगाववाद के सिद्धान्त पर आधारित था और इसके
प्रणेता थे - ‘यूजीन बर्टोल्ट फ्रीडीज़ ब्रेख्त’।
ब्रेख्त का जन्म 10 फरवरी
1898 को आंग्सबर्ग, जर्मनी में हुआ था। 16 साल की उम्र
में उन्होने कविताएं लिखनी शुरू की थी। 1921 में एक नाटक देखकर एक उन्होने
आलोचनात्मक लेख लिखा और इसी वर्ष एक शॉर्ट स्टोरी लिखी। उन्होने पहला नाटक 1922 में
‘द ड्रम इन द नाइट’ नाम से लिखा जो
बालनाटक था। इसके बाद उन्होने कई फुल लेंथ नाटक लिखे। पूरी तरह से अलगाववाद
सिद्धान्त पर आधारित पहला नाटक था ‘राउंड हैडस एंड प्वाइंट्स
हैडस’। यह नाटक 1936 में लिखा गया था। अलगाववाद सिद्धान्त पर
आधारित ब्रेख्त का सबसे मशहूर नाटक है, ‘कोकेशियन चॉक सर्किल’। 1956 में
ब्रेख्त का निधन हो गया।
ब्रेख्त ने रंगमंच पर
अलगाववाद सिद्धान्त, कार्ल मार्क्स के नए सिद्धान्त, पृथक्करण
या एलिनेशन से ग्रहण किया था। मोटे तौर पर हम इस सिद्धान्त को ऐसे समझ सकते है कि पुरानी
मान्यताओं का निषेध कर नए मान्यताओं कि स्थापना ही इसका मूल है। वास्तव में
ब्रेख्त का अलगाववाद या एलिनेशन भी यही काम करता है। ब्रेख्त ने अपने एलिनेशन के
माध्यम से पूर्व प्रचलित यथार्थवाद की परंपरा को ही जारी रखा लेकिन उसे प्रस्तुत करने
का उनका तरीका दूसरा था। वह पुरानी यथार्थवाद की परंपरा को चित्रात्मक यथार्थवाद
यानि फोटोग्राफिक रियलिज़्म कहते थे। फोटोग्राफिक रियलिज़्म में दर्शक मंच पर जो
देखता है उससे उनकी भावनाओं का तादात्म्य इस तरह से होता है कि वह सोचकर भी कोई
विमर्श शुरू करने में सक्षम नहीं होता है। स्तनिस्लावस्की की यही पद्धति थी। यह
पद्धति भारतीय रस-सिद्धान्त के भी निकट पड़ती है।
ब्रेख्त के सैद्धान्तिक
लेखन का आधार साम्यवाद था। उनका मानना था कि प्रस्तुतीकरण जागृति उत्तपन्न करने के
पक्ष में होना चाहिए और यह तभी संभव है जब दर्शक प्रस्तुति को साक्षी भाव से देखें
न कि भावों की लयात्मक स्थिति में। दर्शकों को साक्षी भाव में रखने के लिए ब्रेख्त
ने नाट्य लेखन से लेकर प्रदर्शन तक में विभिन्न तकनीकों का उपयोग किया। ये सभी
तकनीक ब्रेख्त ने चाइनीज ओपेरा और भारतीय कला सहित विभिन्न देशों की लोक कलाओं से
ग्रहण किया था। इन बिभिन्न तकनीकों के प्रयोग से ब्रेख्त के नाटकों में महाकाव्यों
जैसी भव्यता आ जाती थी और इसलिए ब्रेख्त ने अपने नाटक को ‘एपिक थिएटर’ की संज्ञा दी।
अलगाववाद सिद्धान्त में
निहित बातें हैं।
·
जीवन से उन परिस्थितियों की और
ऐतिहासिक कारणों की तलाश, जिसमें वह मनुष्य को बदलाव अर्थात
नए रूपों के साथ प्रस्तुत कर सके।
·
प्रस्तुति द्वारा दर्शकों में ऐसे
सवाल खड़े करना जिससे वह परिस्थितियों के मूल को पहचानने की कोशिश में लग जाए।
·
अपने को समझो। स्वयं को जानो। मजबूर
इंसान को परिस्थितियों से निकलने का रास्ता सुझाना। अर्थात अपने लेखन मे रोमांटिक
समझ को नकारते हुए और उसे मानवीय अनुभूति से अनुरंजित करते हुए व्यक्ति अस्मिता को
एक नई दिशा देना।
·
यथार्थ को फोटोग्राफ़िकल नहीं
अपितु चेतना जगाने के लिए प्रस्तुत करना। इसके लिए प्रदर्शन में नरेशन, समालोचना, दर्शकों से संयोग,
भाषा संयोजन और वस्तु योजना और विन्यास इस तरह किया जाता है कि दर्शक वर्तमान
स्थिति से हटकर उसे बदलने के लिए बौद्धिक स्तर पर विचार कर सके।
ब्रेख्त
का सिद्धान्त तत्कालीन परिस्थितियों के चलते जल्दी ही कई देशों में फैल गया। भारत
सहित विभिन्न देशों में उनके नाटकों को अनूदित कर प्रदर्शित किया गया। भारत में
1955 के आसपास ब्रेख्त की चर्चा शुरू हुई। हिन्दी के अनेक निर्देशक, लेखक, और अभिनेता उस समय हिन्दी रंगमंच के लिए नए
नाट्यरूपों की खोज में लगे थे। समाज और साहित्य मे जनवादी प्रवृति का उफान था। ऐसे
में ब्रेख्त के सिद्धान्त बहुत प्रासंगिक लगे और वे उसे अपने नाटकों मे अपनाने
लगे। इस तरह भारतीय रंगमंच पर अलगाववाद सिद्धान्त का प्रभाव पड़ना शुरू हुआ।
भारतीय
रंगमंच पर अलगाववाद का सिद्धान्त नाट्यलेखन, विन्यास और अभिनय
से लेकर नुक्कड़ नाटकों तक में परिलक्षित होने लगा। इसका वर्णन मैं क्रमवार कर रहा
हूँ।
ब्रेख्त
से प्रभावित होकर हिन्दी में अनेक नाटक लिखे गए जिनमे से कुछ महत्वपूर्ण नाटकों का
नाम बता रहा हूँ। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का ‘बकरी’, ’लड़ाई’, ’अब गरीबी हटाओ’, सुशील कुमार सिंह का ‘सिंहासन खाली है’, राजानंद भटनागर का ‘खबरदार घड़ी’ , मुद्रराक्षस का ‘योर्स फेथफुली’, भीष्म साहनी का ‘हानुश’, हबीब तनवीर का ‘आगरा
बाजार’, ‘चरनदास चोर’, मणि मधुकर का ‘रस गंधर्व’
आदि। नुक्कड़ नाटकों मे, ‘जंगीराम की
हवेली’, ‘हल्ला बोल’, ‘पुलिस चरित्रम’, ‘ऑन ड्यूटि’, ‘जनता पागल हो गई’ आदि। समय की सीमा के चलते सभी नाटकों का नाम और विषय बताना संभव नहीं है।
तत्कालीन
सभी नाटककार किसी-न-किसी रूप मे ब्रेख्त से प्रभावित थे। लेकिन मैं उदाहरणस्वरूप
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का जिक्र कर रहा हूँ। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटकों मे
वस्तु योजन पर ब्रेख्त का बहुत प्रभाव था। ब्रेख्त की तरह वह भी बदलाव लाने का
स्वप्न देखते थे और मानते थे कि बदलाव न तो सत्ताधारी लाएगा और न वह जो सत्ता की
प्रतीक्षा में बैठा है बल्कि बदलाव वह लाएगा जो समाज की सबसे निचली सीढ़ी पर खड़ा
है। उनके विचार बहुत ही क्रांतिकारी थे। वे कहते थे, “वर्तमान स्थिति
को तलवार से बदलकर फिर सोचा जा सकता है कि भारत को कैसा बनाया जाए”। इनके नाटकों
में ब्रेख्त के नाटकों की तरह ही गीत की योजना होती थी,
हास्य-व्यंग की अधिकता रहती थी, लोकभाषा का प्रयोग होता था।
और कोई पात्र मुख्य नहीं बल्कि कथानक ही मुख्य होता था। उनके एक नाटक के गीत की
कुछ पंक्तियाँ हैं :
“तोंद
अड़ियल चिपके पेटों पर चलाएं गोलियां
हर
तरफ फिर न निकले क्रांतिकारी टोलियाँ,
फिर
बताओ किस तरह खामोश बैठा जाए है
अब
खौले खून रह-रहकर जुबां पर आए है।
बहुत
हो चुका अब हमारी है बारी
बदल
के रहेंगे ये दुनियाँ तुम्हारी।“
इन
पंक्तियों मे बिलकुल ब्रेख्त जैसे तेवर नज़र आते हैं।
नाट्यलेखन
के बाद अब हम प्रदर्शन की ओर बढ़ते हैं। जैसा कि मैंने पहले कहा है ब्रेख्त के
नाटकों को पहले अनुवाद करके खेला गया। तत्कालीन कई बड़े रंग निर्देशकों ने उन
नाटकों को निर्देशित किया। जैसे कार्तिक
अवस्थी और अमाल अल्लाना ने ‘द एक्सेप्शंस एण्ड द रूल’ को, एम॰के॰रैना ने ‘मदर कैरेज’ को, फ्रिट्ज़ बेनेविट्ज़ ने ‘मैन
इक्वल मैन’ को प्रस्तुत किया। इससे पहले एनएसडी मे कोकेशियन
चॉक सर्कल की प्रस्तुति हो चुकी थी। इस तरह की सभी प्रस्तुतियों मे लोक रंग मंच की
झलक थी। परिधान-परिकल्पना साधारण थी। दृश्यबंध साधारण था। लेकिन साधारण होने के
बाद भी इनमे बहुत कलात्मकता थी। इन सब के साथ-साथ चरित्रों की व्यवहारगत बारीकियाँ
आदि मिलकर नाटकों को बहुत ही सफल बना दिया। इसके बाद ‘ब्रेख्त
ऑन ट्रायल’ के अंतर्गत विमर्श शुरू हुआ और ब्रेख्त को भारतीय
संदर्भ मे देखने की शुरूआत हुई। फलतः भारत मे एक नई रंग पद्धति की शुरुआत हुई
जिसकी रंग तकनीक पूरी तरह से ब्रेख्त से प्रवावित थी। इस रंग पद्धति को ‘टोटल थिएटर’ नाम दिया गया। यह पद्धति पुरानी अन्य पद्धतियों
से बिकुल अलग प्रतीत होती थी। इस पद्धति के नाटकों मे शुरू से अंत तक समान्य
प्रकाश मंच पर रहता था। परिधान नित्यप्रति पहने जानेवाले परिधानों की तरह होते थे।
अभिनय मे अतिरंजना नहीं होती थी। लेकिन नृत्य, गीत और संगीत
की परिपूर्णता होती थी। अमूर्त चरित्रों को दिखाने के लिए मुखौटे का प्रयोग होता
था। इस पद्धति का सशक्त उदाहरण है, हबीब तनवीर निर्देशित ‘आगरा बाजार’, ब्रज मोहन शाह निर्देशित ‘त्रिशंकू’ और मणि मधुकर निर्देशित ‘रस गंधर्व’। टोटल थियेटर मे सार्थक नाटक मनोरंजक ढंग
से दिखाये जाते थे इसलिए यह बहुत लोकप्रिय हुआ। इस पद्धति का नाटक हमें आज भी
देखने को मिलता है।
अगर
हम नुक्कड़ नाटक की बात करें तो शुरू से लेकर आजतक उसका जो स्वरूप रहा है वह
ब्रेख्त से प्रभावित है। अगर हम यह कहें कि ब्रेख्तियन प्रभाव से ही नुक्कड़ नाटक
की शुरुआत हुई तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। नुक्कड़ नाटकों मे बस व्यवस्थित मंच और
मंचसज्जा का आभाव होता है नहीं तो लगभग सभी तकनीक ब्रेख्त की तकनीक से ही मिलते
हैं।
भारत
में ब्रेख्त का प्रभाव न केवल लेखन और मंचन पर बल्कि मंच की बनावट पर भी पड़ा। लोग
प्रोसेनियम से निकालकर गोलाकार और मुक्ताकाशी मंच पर नाटक करने लगे।
ब्रेख्त
के नाटकों की जो अभिनय तकनीक थी, जैसे- अभिनेता का उद्घोषक बन
जाना, एक ही व्यक्ति द्वारा विभिन्न पत्रों का अभिनय करना, दर्शकों के साथ संवाद करना, चित्राभिनय, रसभंग कर देना और गीत-संगीत की योजना आदि। यह सब हमारे यहाँ संस्कृत
रंगमंच या फिर लोकमंच पर पहले से ही प्रचलित थी। ब्रेख्त ने अपनी एक कविता ‘नाटककार का गीत’ में इसका समर्थन भी किया है।
पंक्तियाँ
हैं :
“अनुशीलन किया है मैंने नैतिकवादी
स्पेन वासियों का
भारतीयों का जो सुंदर भावना के आचार्य हैं।
और चीनियों का जो प्रदर्शन करते हैं
परिवारों, नगरों की नानाविध स्थितियों का।“
अतः
हम कह सकते हैं कि भारतीय रंगमंच पर ब्रेख्त का प्रभाव, बहुत बड़े अंशों में अपनी ही परंपरा से जुड़ने जैसा था। लेकिन जो भी हो
जुड़े हम ब्रेख्त के सिद्धान्त को अपना कर। इसलिए इसे “भारतीय
रंगमंच पर अलगाववाद सिद्धान्त का प्रभाव” कहना ही ज्यादा उचित होता है।
संदर्भ :
1. हिन्दी
नाटक और रंगमंच : ब्रेख्त का प्रभाव लेखक – डॉ॰ सुरेश वशिष्ठ।
2. भारतीय
और पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त
लेखक – डॉ॰ विश्वनाथ मिश्र।
3. रंगमंच
के सिद्धान्त
लेखक – डॉ॰ देवेंद्र राज अंकुर।
4. कक्षा-व्याख्यान
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें