मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015

ड्रमैटिक एक्ट 1876 की प्रासंगिकता

mohanstudy.blogspot.com
ड्रमैटिक एक्ट 1876 यानि नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876’, 16 दिसम्बर 1876 को तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के द्वारा लाया गया था। अन्य अधिनियमों के भांति इस अधिनियम में भी दो भाग है। प्रथम भाग में अधिनियम में जो धाराएँ हैं उनकी सूची और दूसरे भाग में धाराओं के अंतर्गत प्रावधान वर्णित है। इस अधिनियम मे कुल 12 धाराएँ हैं। उन धाराओं में जो प्रावधान हैं वे संक्षेप में इस प्रकार हैं:

·       पहली धारा में यह बताया गया है कि “इस अधिनियम को नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876 कहा जाएगा।
·        दूसरी धारा में, मजिस्ट्रेट के बारे में बताया गया है जो अधिनिम के तहत कारवाई का अधिकारी होता था। इस मजिस्ट्रेट का मतलब तब के प्रेसीडेंसी नगरों में पुलिस मजिस्ट्रेट और अन्य जगहों पर जिला मजिस्ट्रेट से था।
·        तीसरी धारा में, वैसे खेल, मूकाभिनय या नाट्य जिसका स्वरूप कलंकात्मक या मानहानिकारक हो; विधि द्वारा स्थापित सरकार के प्रति दुर्भावना व्यक्त करनेवाला हो या फिर भ्रष्ट आचरण और दुराचार को बढ़ावा देनेवाला हो। ऐसे प्रदर्शनों को प्रतिषिद्ध यानि प्रतिबंधित करने का अधिकार राज्य सरकार को दिया गया है। इस धारा में एक स्पष्टीकरण भी है जिसमें वैसे भवनों और स्थानों को भी सार्वजनिक स्थल माना गया है जहां लोग लोग पैसे देकर प्रदर्शन देखने आते हों।
·        चौथी धारा में, प्रतिबंधित प्रदर्शनों में भाग लेनेवाले व्यक्ति पर और जहां ऐसा प्रदर्शन होने की संभावना हो, उस स्थल के मालिक अगर जान बूझकर प्रदर्शन होने देता हो तो उस पर  मजिस्ट्रेट के सामने आरोप सिद्ध हो जाने की स्थिति में दंड का प्रावधान है। दंड, तीन महीने तक का कारावास, जुर्माना या फिर दोनों हो सकता था।
·        पाँचवीं धारा में, प्रतिबंधित प्रदर्शन की जानकारी देने के लिए उद्घोषणा करने या सार्वजनिक जगहों पर लिखित नोटिस चिपकाने को अधिसूचित किया गया है ताकि जाने-अनजाने ऐसे प्रदर्शनो को देखने से लोगों को रोका जा सके।
·        छठी धारा में, प्रदर्शन प्रतिबंध अधिसूचित होने के बाद भी उसमें शामिल होनेवाले लोगों पर और प्रदर्शन स्थल के मालिक पर, मजिस्ट्रेट के आगे आरोप तय हो जाने की स्थिति में दंड का प्रावधान है।
·        सातवीं धारा में यह बताया गया है कि कोई भी संभावित प्रदर्शन से पूर्व उस प्रदर्शन का स्वरूप निर्धारित करने के लिए राज्य सरकार या सक्षम अधिकारी उस प्रदर्शन से जुड़े व्यक्तियों, मुद्रक या स्थल के मालिक से जानकारी मांग सकेगा। जिससे जानकारी मांगी गई हो, जानकारी देने के लिए बाध्य होगा। जानकारी नहीं देने कि स्थिति में उसे तब की धारा 176 के तहत अपराधी माना गया है।
·        आठवीं धारा में यह कहा गया है, अगर मजिस्ट्रेट को विश्वास करने का कारण हो कि किसी स्थल पर, इस अधिनियम के तहत प्रतिबंधित प्रदर्शन होता है तो वह वारंट द्वारा पुलिस के किसी अधिकारी को प्राधिकृत करेगा जो अपनी सुविधानुसार या बलपूर्वक उस स्थल पर प्रवेश करके उपस्थित व्यक्तियों को गिरफ्तार और शक के आधार पर उस प्रदर्शन में उपयोगी समग्रियों को जब्त कर सकेगा।
·        नौवीं धारा में यह प्रावधान है कि इस अधिनियम के अधीन दोष सिद्ध कोई भी भारतीय दंड संहिता (1850,45) की धारा 124क और 294 के तहत अभियोजना को वर्जित नहीं कर सकेगा।
·        दसवीं धारा में सरकार को यह शक्ति प्रदान किया गया है कि यदि किसी क्षेत्र में उसे आवयशक लगे तो वह अधिसूचित कर सकती है कि उस क्षेत्र में कोई भी प्रदर्शन, सक्षम अधिकारी से अनुज्ञप्ति (लाइसेन्स) के बिना नहीं किया जाएगा। पाठ की एक प्रति या यदि मूकाभिनय हो तो उसका विवरण कम से कम तीन दिन पहले सक्षम अधिकारी को देना होगा। अगर प्रदर्शन को अनुज्ञप्ति प्राप्त नहीं हो तो प्रदर्शन स्थल के मालिक पर दंदात्मक कार्यवाई कि जाएगी।
·        ग्यारहवीं धारा में गवर्नर जनरल द्वारा प्रयोक्त शक्तियाँ बताई गई हैं।
·        बरहवीं और अंतिम धारा में यह बताया गया है कि इस अधिनियम की कोई बात धार्मिक उत्सवों में, कोई यात्रा या उसी प्रकार के प्रदर्शन पर लागू नहीं होगी।
इस अधिनियम के उदेश्य और कारणों को कथन करते हुए एक विज्ञप्ति 9 मार्च 1876 को कलकत्ता से निकाला था जिसके अधोहस्ताक्षरी ए॰ हाबहाऊस थे। जैसा हर अधिनियम में व्यवस्था को आदर्श स्थिति में लाने की बात की जाती है वैसे ही उस विज्ञप्ति में भी यह कहा गया था - “इस विधेयक का मूल उदेश्य सरकार को ऐसे स्थानीय नाटकों को प्रतिषिद्ध करने लिए सशक्त करना है जो कलंकात्मक, मानहानिकारक राजद्रोहात्मक और अश्लील हैं। ऐसा कोई आद्योपाय आवश्यक है। यह बात कलकत्ता में एक गंदे बंगाली ड्रामा के प्रदर्शन से सिद्ध हो चुकी है जिसे निवारित करने में वर्तमान विधि अपर्याप्त थी”।  
जिस समय यह अधिनियम लाया गया था तब समाज में इतनी अश्लीलता नहीं थी। उस समय पारसी कंपनियों का भी शुरुआती चरण ही था। शुरुआती चरण के पारसी नाटकों में शायद ही अश्लीलता होती थी। जब हम इस अधिनियम के प्रावधानों का अध्ययन सूक्ष्मतापूर्वक करते हैं तथा तत्कालीन राजनैतिक और सामाजिक परिस्थितियों पर विचार करते हैं तो आसानी से समझ जाते हैं कि यह अधिनियम बुरे प्रदर्शनों की आड़ में अँग्रेजी सत्ता के विरुद्ध उठनेवाली किसी भी आवाज को दमन करने के लिए ही बनाया गया था। उस समय अँग्रेजी सत्ता के विरुद्ध आवाज उठाना राजद्रोह था और इस अधिनियम में राजद्रोह के लिए शास्तियों (दंड) का उल्लेख है। भारतीय समाज गर्त में चला जाएगा इसकी चिंता अँग्रेजी सरकार को कितनी थी, यह सर्व विदित है। अंग्रेज़ो ने भारत में जो भी किया अपने लाभ के लिए किया बस पर्दा भारत की बेहतरी का होता था। ऐसे बहुत दस्तावेज़ हैं जो इस तथ्य का समर्थन करते हैं। कुछ उदाहरणों का वर्णन प्रख्यात रंग चिंतक महेश आनंद द्वारा संकलित “रंग दस्तावेज़ सौ साल” पुस्तक के खंड 2 में, रंगपरिवेश नामक दूसरे अध्याय के प्रथम लेख “नाट्यप्रदर्शन अधिनियम-1876 और रंगमंच” में किया गया है। इसी अधिनियम के चलते नीलदर्पण नाटक प्रतिबंधित हुआ। प्रचार में सहायक होने के कारण माइकल मधुसूदन दत्त को सुप्रीम कोर्ट की नौकरी छोड़नी पड़ी। न केवल सैकड़ों नाटक बल्कि रामलीला तक प्रतिबंधित किए गए। यह अधिनियम गुलाम भारत में आजादी कि भावना को दमन करने का प्रमुख अस्त्र बना रहा।
इस अधिनियम में जो अच्छी बातें परिलक्षित होती है अंग्रेजों ने चाहे उसका जैसा उपयोग किया हो लेकिन स्वतंत्र भारत में इसी अधिनियम के आलोक में बुरे प्रदर्शनो को सेंसर करने के लिए कानून बना क्योंकि किसी की मानहानि, कलंकात्मकता, अश्लीलता और राजद्रोह किसी भी स्थिति में स्वीकार नहीं हो सकता। ये बुराइयाँ मानवता की दुर्दशा और देश में अराजक स्थिति उत्तपन्न कर सकती हैं।
स्वतन्त्रता के बाद प्रदर्शनों को सेंसर करने के लिए लगभग सभी राज्यों में कानून बनाए गए। विभिन्न राज्यों के कानून के प्रारूप में थोड़ा बहुत जो फर्क हो लेकिन आत्मा एक ही है। ये सभी कानून जनता को मौलिक अधिकारों के तहत अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को अतिक्रमित किए बिना बुरे प्रदर्शनों को रोकने मे सक्षम हैं। ब्रिटिश कानून में जो अधिकार मजिस्ट्रेट को प्राप्त था आधुनिक कानून में वह अधिकार मुनिसिपल कमेटी और कलेक्टर को प्राप्त है। कई बार मौलिक अधिकारों के हनन का आरोप लगने के कारण इन कानूनों में संशोधन भी किए गए हैं। हालांकि कानून कितना भी आदर्श हो बुरी व्यवस्था तोड़ निकाल ही लेती है।
बहरहाल, स्वतंत्र भारत में  प्रदर्शनों को सेंसर करने के लिए नए कानून बन जाने के कारण  ड्रमैटिक एक्ट 1876 अपने मूल प्रारूप में अप्रासंगिक हो गई है लेकिन इसका ऐतिहासिक महत्व तो है ही।





संदर्भ :
1.  कक्षा व्याख्यान – सतीश उपाध्याय।
2.  रंग दस्तावेज़ सौ साल – महेश आनंद।
3.  इंटरनेट से उक्त अधिनियम की प्रति।
      

   

1 टिप्पणी: