प्रदर्शनकारी कलाओं
का आदि ग्रंथ, भारतमुनि विरचित नाट्यशास्त्र में वर्णित
सिद्धांतों की मीमांसा यानि व्याख्या-विश्लेषण की लंबी
परंपरा रही है। कई टीकाएँ लिखीं गई हैं जिनके केंद्र में मुख्यतः रस सिद्धान्त, अभिनय सिद्धान्त और रूपक भेद रहे हैं। रस सिद्धान्त कला संबंधी भारतीय
चिंतन परंपरा की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इस सिद्धान्त के प्रणेता भरतमुनि
को माना जाता है क्योकि सबसे पहले नाट्यशास्त्र में ही रस की चर्चा मिलती है।
हालांकि नाट्यशास्त्र के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि भारत मुनि से पहले भी रस
की परंपरा थी। यह स्पष्ट उल्लेख है कि उनसे पहले दुहिण और वासुकि नामक दो आचार्य
थे। दुहिण रस की संख्यां आठ मानते थे जबकि वासुकि शांत नामक नौवां रस भी मानते थे।
भरत ने दुहिण की परंपरा को आगे बढ़ाया और आठ रसों की सम्यक विवेचना की। वासुकि
द्वारा प्रस्तावित शांत रस को नौवें रस की मान्यता अभिनवगुप्त ने दिलवाई। इस आधार पर
यह कहना असंभव है कि भारतीय कला चिंतन में रस कब और कैसे शामिल हुआ। हमारे पास एक
मात्र साक्ष्य नाट्यशास्त्र है। वही हमें बताता है कि उससे पहले भी रस की बात होती
थी और उसके बाद तो हम देख ही रहे हैं कि रस आजतक विमर्श का विषय बना रहता है।
वास्तव में रस भारतीय कला चिंतन शरीर का रक्त रूप है। अनेक परवर्ती विद्वानो
द्वारा खंडन-मंडन करने तथा पाश्चात्य वादों से भारतीय मानस के प्रभावित होने से कई
नए सिद्धान्त मान्य तो हुए लेकिन रस सिद्धान्त गौण नहीं हुआ। भारत मुनि द्वारा यह
सिद्धान्त मूलतः दृश्यकाव्य यानि कि रूपक, या फिर आज के
संदर्भ में कहें तो नाटक के लिए दिया गया था। लेकिन बाद में इसकी व्यापकता
श्रव्यकाव्य से लेकर संगीत और वर्तमान समय में चित्रकला तक मानी जाती है। इसका
कारण है इस सिद्धान्त की वैज्ञानिकता जिसे विभिन्न विद्वानों ने तार्किक आधार लेकर
सत्यापित किया है। इस सिद्धान्त के समानान्तर अरस्तू का विरेचन या कैथारसिस का
सिद्धान्त माना जाता है जिसकी अवधारणा का आधार ही चिकित्साशास्त्र की विरेचन
पद्धति है पर वह सिद्धान्त सिर्फ दुखांतकी की बात करता है। वहाँ हास्य जैसे सुंदर
और संयोग शृंगार जैसे कोमल भाव सम्प्रेषण के लिए कोई विचार नहीं है जबकि रस
सिद्धान्त हर तरह के भाव सम्प्रेषण को अपने लपेटे में लेता है। इसलिए रस सिद्धान्त, कैथरासिस सिद्धान्त से ज्यादा वैज्ञानिक कहा जा सकता है। बहरहाल, हम अब अपने विषय पर केन्द्रित होते है जिसमें वस्तुतः दो प्राचीन आचार्यों
भट्ट नायक और भट्ट लोल्लट द्वारा भरत के रस सिद्धान्त की व्याख्या का तुलनात्मक विवेचन
करने को कहा गया है।
भरत ने नाट्यशास्त्र
के छठे अध्याय में रस और सातवें अध्याय में भाव का विस्तृत वर्णन किया है। रस का
सीधा अर्थ आनंद होता है जो विभिन्न भावों पर आधारित होता है पर इसके मूल में
स्थायी भाव होता है। अब नाट्य प्रयोग के समय प्रेक्षकों को यह आनंद किस तरह
प्राप्त होता है इस संदर्भ में भरत ने नाट्य शास्त्र के छठे अध्याय में एक सूत्र
दिया है जो हम सभी जानते हैं।
विभावानुभाव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:
अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस
कि निष्पत्ति होती है। इस सूत्र में भरत ने विभिन्न भावों के संयोग से रस
निष्पत्ति की बात तो कही लेकिन होती किस प्रकार है; रस की
उत्पत्ति प्रेक्षकों में होती है या अभिनेता में होती है या पात्रों में ही होती
है इसका कहीं उल्लेख नहीं किया। इसके अतिरिक्त भरत रस का आधार स्थाई भाव को मानते
हैं लेकिन रस सूत्र में इसका कहीं उल्लेख नहीं करते हैं। इसी अस्पष्टता के कारण भरत
के परवर्ती विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कों से और दर्शन का सहारा लेकर इस
सूत्र की व्याख्या करने का प्रयास किया है। उन विद्वानों में चार विद्वानों का मत
उल्लेखनीय माना जाता है। पहले व्यख्याकार भट्ट लोल्लट थे जिनका मत उत्पत्तिवाद या
आरोपवाद के नाम से जाना जाता है। दूसरे व्याख्याकार श्री शंकुक हैं, उनका मत अनुमितिवाद के नाम से जाना जाता है। तीसरे व्याख्याकार भट्टनायक
हैं उनका मत भुक्तिवाद के नाम से प्रचलित है। चौथे और अंतिम व्याख्याकार
अभिनवगुप्त हैं उनका मत अभिव्यक्तिवाद कहा जाता है। अभिनवगुप्त का मत आजतक सबसे
ज्यादा मान्य मत है। लेकिन अभिनवगुप्त ने अनायास ही व्यख्या नहीं कर डाली बल्कि भट्ट
लोल्लट, श्री शंकुक और भट्ट नायक के मतों के आधार पर ही
आभासवादी काश्मीरी शैव दर्शन का सहारा लेकर रस सिद्धान्त की मानक व्याख्या की है।
वस्तुतः अभिनवगुप्त से पहले के तीनों आचार्यों का कार्य रस सिद्धान्त की मानक
व्याख्या की ओर प्रगति का एक-एक कदम था। इसलिए इन मतों की जानकारी प्रत्येक
अध्येताओं के लिए आवश्यक मानी जाती है।
भुक्तिवाद और
उत्पत्तिवाद की ओर बढ्ने से पहले हम रससूत्र में उल्लेखित व उससे संबन्धित पदों का
परिचय प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि यही मत उन वादों के संदर्भ में उल्लेखित होंगे।
भावों के प्रकार से पहले हम भाव की बात करते हैं। भाव वस्तुतः है क्या? मन के विक्षोभ या सीधे कहें तो विचार ही भाव हैं। ये वाणी अंग रचना या
अनुभूति के द्वारा काव्य के अर्थ को भावन करवाते हैं इसलिए भाव कहे जाते है। भावन
करवाना क्रिया का व्यावहारिक अर्थ है महसूस करवाना। भाव दो तरह के होते हैं, स्थायी भाव और संचारी या व्याभिचारी भाव। स्थायी भाव सहृदय के मन में
संस्कार रूप में हमेशा स्थित होते हैं। भरत ने इसकी संख्या आठ बताई है, रति, हास, उत्साह, क्रोद्ध, शोक, जुगुप्सा, भय और विस्मय इनके संगत आठ रस हैं, शृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, करुण, वीभत्स, भयानक, और अद्भुत। शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद होता है। संचारी भाव वैसे भाव
होते हैं जो स्थायी भाव के जगने के बाद आते-जाते रहते हैं और रस को परिपुष्ट करते
हैं। अपनी संचरणशीलता यानि गतिशीलता के कारण इन्हें संचारी और एक से अधिक रसों से
संबन्धित होने के कारण इन्हें व्याभिचारी भाव भी कहा जाता है। अब बारी आती है
विभाव की। विभाव का सीधा अर्थ हमें कारण समझना चाहिए। वह व्यक्ति, वस्तु स्थान या स्थिति जिसके चलते स्थायी भाव जगता है और तीव्र होता है
विभाव कहलाता है। विभाव के दो प्रकार होते हैं आलंबन और उद्दीपन। पुनः आलंबन के दो
भाग होते हैं विषय और आश्रय।
विभाव के बाद हम
अनुभाव की बात करते हैं। जब किसी में स्थायी भाव जगता है तो उसकी चेष्टाएँ जो
स्थायी भाव के प्रकार की सूचना देती हैं, अनुभाव
कहलाती हैं। इसके चार प्रकार होते हैं आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। चुकीं अभिनेता किसी न किसी भाव के प्रभाव को सायास
संप्रेषित करता है, इसके लिए वह सायास चेष्टा करता है।
अभिनेता की सायास चेष्टाएँ ही अभिनय है। अतः अभिनय भी चार प्रकार के होते हैं, आंगिक, वाचिक, आहार्य और
सात्विक। जब अभिनेता अपनी चेष्टाओं के माध्यम से कैसे अपने भावों का सम्प्रेषण
प्रेक्षकों तक करता है, इस तथ्य को बताने के लिए ‘साधारणी
करण’ का सिद्धान्त आया। साधारणीकरण की बात सबसे पहले भट्ट नायक ने भुक्तिवाद के
अंतर्गत की। हालांकि इसके बीज नाट्यशास्त्र में ही छिपे हैं। भरत का यह कहना कि
‘सामान्य गुणयोगेन रसा निष्पद्यन्ते’
साधारणी करण का मूल
है। इसका अर्थ है जब प्रेक्षक भावों को सामान्य रूप से ‘मैं’ और ‘पर’ की भावना मुक्त होकर ग्रहण करते हैं तब रस कि निष्पत्ति होती है। नाटक
देखते समय प्रेक्षकों के लिए साधारणीकारण की स्थिति वह स्थिति है जब दर्शकों के मन
का तादात्म्य पात्रों से इस प्रकार होता है कि उसके विभाव सामान्य होकर प्रेक्षकों
के अपने लगने लगते हैं और उसके प्रभाव से उनके अपने स्थायी भाव उद्बुध हो जाता है, फलतः रस की निष्पत्ति होती है। लेकिन साधारणीकरण के द्वारा भावों का
उद्वेलन सामान्य स्थिति से अलग होता है। यही कारण है कि करूण रस के अभिनय के समय
प्रेक्षक रोता तो है लेकिन उसमें भी एक विश्रांति और आनंद होता है जो सामान्य जगत
के शोक की स्थिति से अलग होती है। यही कमोबेश सारे रसों के साथ होता है। भुक्तिवाद
में इसी साधारणीकरण की बात होती है।
भुक्तिवाद के आचार्य
भट्टनायक ने गंभीर चिंतन का आधार लेकर रस की व्याख्या करने का प्रयास किया। भरत की
तरह उन्होने भी रस को ब्रह्मानन्द सहोदर माना है जो अलौकिक है। उन्होने अपने
पूर्ववर्ती दोनों आचार्यों के मतों को खंडित करते हुए कहा कि रस ना तो आरोपित होता
है और न ही अनुमानित बल्कि भावित होता है। इस स्थिति के बाद दर्शक रस का उपभोग
करता है यानि कि भुक्ति होती है। इसके लिए उन्होने तीन शक्तियों की बात की है, अभिधा, भावकत्व और भोजकत्व। अभिधा शब्द शक्ति है।
इसके माध्यम से दर्शक शब्दों-संवादों के अर्थ ग्रहण करता है। भावकत्व में दर्शकों
का अहम लुप्त हो जाता है। फिर मंच पर के विशिष्ट पात्र उसे उसी रूप में सामान्य
लगाने लगते है। ऐसा विभावों के साधारणीकरण के चलते होता है। भोजकत्व में अहम के
लुप्त होने से दर्शकों के रजोगुण और
तमोगुण का नाश हो जाता है; चित्तवृतियाँ शांत हो जाती है और वह
शुद्ध सतोगुण के प्रभाव में आकर रस का उपभोग करता है। इस तरह भट्टनयक का तात्पर्य
है कि रस अगर कार्य है तो विभाव कारण। रस अगर लक्ष्य है तो विभाव उसका साधन। रस
अगर भोज्य है यानि कि खाने की चीज है तो विभाव भोजक मतलब खिलानेवाला। अब यहीं एक
महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है, क्या रस एक भौतिक पदार्थ है जो
उसका उपभोग किया जाता है? एक अन्य प्रश्न यह भी होता है कि
साधारणी करणबस विभावों का ही होता है, तो फिर स्थायी भाव की
स्थिति क्या होती है। इन प्रश्नों का उत्तर आचार्य अभिनवगुप्त ने अभिव्यक्तिवाद
में दिया। इसलिए वह सिद्धान्त सर्वाधिक तार्किक माना जाता है।
अब हम बात करते हैं
उत्पत्तिवाद की उत्पतिवाद के आचार्य भट्ट लोल्लट का मानना है कि विभाव से रस उत्तपन्न
होता है। रस स्थिति मूल पात्र में ही होती है। मूल पात्र वह पात्र होता है, अभिनेता जिसका अभिनय करता है। अभिनेता अभिनय कौशल से प्रेक्षकों को मूल
पात्र का विश्वास दिलाते हैं। प्रेक्षक अभिनेता के कौशल से चमत्कृत होकर उसे मूल
पात्र समझ बैठते हैं और आनंदित होते हैं। इस सिद्धान्त में निष्पत्ति का अर्थ
उत्पत्ति से लिया गया है इसलिए इसे उत्पत्तिवाद कहा जाता है। भट्ट लोल्लट ने
वेदान्त दर्शन से प्रभावित होकर ऐसी व्याख्या की थी। जिसमें संसार को मिथ्या माना
गया है। आद्यासिक ज्ञान इसका आधार है। यह ज्ञान उसे कहते हैं जिसमें वस्तु के नहीं
होने पर भी उसका ज्ञान होता है। जैसे रस्सी को देखकर साँप का ज्ञान होना या फिर
सीप के टुकड़े से चाँदी का ज्ञान होना आदि। इसका करण है किसी गुण के समानता के कारण हम एक वस्तु का आरोप दूसरे पर
कर देते हैं। भट्ट लोल्लट के अनुसार हम अभिनय के कारण हम मूल पात्र का आरोप
अभिनेता पर कर देते हैं और आनंदित होते हैं। इस आरोप की बात करने के चलते इस
सिद्धान्त को आरोपवाद भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त से कई प्रश्न उठे लेकिन मुख्य
प्रश्न यह था कि भावों का अनुभव किए बिना सिर्फ चमत्कार के कारण प्रेक्षक आनंदित
कैसे हो सकता है। यह असंभव स्थिति है। इसके विरोध में शंकुक ने अनुमितिवाद दिया
जिसमें उन्होने चित्र तुरंग न्याय की बात की अर्थात जिस प्रकार हम घोड़े का चित्र
देखकर हम उसे घोड़ा समझते हैं उसी प्रकार पत्रों में रस का अनुमान करके प्रेक्षक
आनंदित होता है। इसके विरोध में यह कहा गया कि चित्र देखकर घोड़ा समझा तो जा सकता
है लेकिन सवारी नहीं की जा सकती है। उसी तरह रस समझा तो जा सकता है लेकिन आनंदित
नहीं हुआ जा सकता है। इसलिए वह सिद्धान्त भी खारिज हो गया।
बहरहाल, भुक्तिवाद और उत्पत्तिवाद दोनों में एक समानता है कि विभाव को प्रधानता
दी गई और उसे रस निष्पत्ति का कारण माना गया। उत्पत्तिवाद में प्रेक्षकों को भावों
से अलग मानकर उपेक्षित रखा गया जबकि वास्तव में रस का असली भोक्ता वही होता है।
इसलिए इस सिद्धान्त को वैज्ञानिकता कि कसौटी पर सफलता नहीं मिली। भुक्तिवाद ने
साधारणीकरण जैसी नई स्थापना देते हुए रस की स्थिति प्रेक्षकों में माना लेकिन
निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति देते हुए रस को भौतिक पदार्थ बना दिया जबकि रस भौतिक
पदार्थ है ही नहीं। अतः यह सिद्धान्त भी वैज्ञानिकता के बहुत नजदीक जाकर भी वैज्ञानिक
साबित नहीं हो सका। लेकिन यह निर्विवाद है कि रस सिद्धान्त की व्याख्या में
भुक्तिवाद, उत्पत्तिवाद से ज्यादा व्यावहारिक और वैज्ञानिक
सिद्धान्त है।
संदर्भ :
1. नाट्यशास्त्र
की परंपरा और दशरूपक, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृथ्वीनाथ द्विवेदी।
2. भारतीय
नाट्य परंपरा और अभिनयदर्पण, वाचस्पति गैरला।
3. हिन्दी
आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉ॰ अमरनाथ।
4. भारतीय
और पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त, डॉ॰ विश्वनाथ मिश्रा।
5. सौन्दर्यशास्त्र, डॉ॰ ममता चतुर्वेदी।
6. हिन्दी
नाट्यशास्त्र, बाबूलाल शुक्ल शास्त्री।
7. नाट्यशास्त्र का इतिहास, डॉ॰ पारसनाथ द्विवेदी।