बुधवार, 9 दिसंबर 2015

भुक्तिवाद एवं उत्पत्तिवाद के आधार तथा अंतर



प्रदर्शनकारी कलाओं का आदि ग्रंथ, भारतमुनि विरचित नाट्यशास्त्र में वर्णित सिद्धांतों की मीमांसा यानि व्याख्या-विश्लेषण की लंबी परंपरा रही है। कई टीकाएँ लिखीं गई हैं जिनके केंद्र में मुख्यतः रस सिद्धान्त, अभिनय सिद्धान्त और रूपक भेद रहे हैं। रस सिद्धान्त कला संबंधी भारतीय चिंतन परंपरा की सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। इस सिद्धान्त के प्रणेता भरतमुनि को माना जाता है क्योकि सबसे पहले नाट्यशास्त्र में ही रस की चर्चा मिलती है। हालांकि नाट्यशास्त्र के अनुशीलन से यह ज्ञात होता है कि भारत मुनि से पहले भी रस की परंपरा थी। यह स्पष्ट उल्लेख है कि उनसे पहले दुहिण और वासुकि नामक दो आचार्य थे। दुहिण रस की संख्यां आठ मानते थे जबकि वासुकि शांत नामक नौवां रस भी मानते थे। भरत ने दुहिण की परंपरा को आगे बढ़ाया और आठ रसों की सम्यक विवेचना की। वासुकि द्वारा प्रस्तावित शांत रस को नौवें रस की मान्यता अभिनवगुप्त ने दिलवाई। इस आधार पर यह कहना असंभव है कि भारतीय कला चिंतन में रस कब और कैसे शामिल हुआ। हमारे पास एक मात्र साक्ष्य नाट्यशास्त्र है। वही हमें बताता है कि उससे पहले भी रस की बात होती थी और उसके बाद तो हम देख ही रहे हैं कि रस आजतक विमर्श का विषय बना रहता है। वास्तव में रस भारतीय कला चिंतन शरीर का रक्त रूप है। अनेक परवर्ती विद्वानो द्वारा खंडन-मंडन करने तथा पाश्चात्य वादों से भारतीय मानस के प्रभावित होने से कई नए सिद्धान्त मान्य तो हुए लेकिन रस सिद्धान्त गौण नहीं हुआ। भारत मुनि द्वारा यह सिद्धान्त मूलतः दृश्यकाव्य यानि कि रूपक, या फिर आज के संदर्भ में कहें तो नाटक के लिए दिया गया था। लेकिन बाद में इसकी व्यापकता श्रव्यकाव्य से लेकर संगीत और वर्तमान समय में चित्रकला तक मानी जाती है। इसका कारण है इस सिद्धान्त की वैज्ञानिकता जिसे विभिन्न विद्वानों ने तार्किक आधार लेकर सत्यापित किया है। इस सिद्धान्त के समानान्तर अरस्तू का विरेचन या कैथारसिस का सिद्धान्त माना जाता है जिसकी अवधारणा का आधार ही चिकित्साशास्त्र की विरेचन पद्धति है पर वह सिद्धान्त सिर्फ दुखांतकी की बात करता है। वहाँ हास्य जैसे सुंदर और संयोग शृंगार जैसे कोमल भाव सम्प्रेषण के लिए कोई विचार नहीं है जबकि रस सिद्धान्त हर तरह के भाव सम्प्रेषण को अपने लपेटे में लेता है। इसलिए रस सिद्धान्त, कैथरासिस सिद्धान्त से ज्यादा वैज्ञानिक कहा जा सकता है। बहरहाल, हम अब अपने विषय पर केन्द्रित होते है जिसमें वस्तुतः दो प्राचीन आचार्यों भट्ट नायक और भट्ट लोल्लट द्वारा भरत के रस सिद्धान्त की व्याख्या का तुलनात्मक विवेचन करने को कहा गया है।
भरत ने नाट्यशास्त्र के छठे अध्याय में रस और सातवें अध्याय में भाव का विस्तृत वर्णन किया है। रस का सीधा अर्थ आनंद होता है जो विभिन्न भावों पर आधारित होता है पर इसके मूल में स्थायी भाव होता है। अब नाट्य प्रयोग के समय प्रेक्षकों को यह आनंद किस तरह प्राप्त होता है इस संदर्भ में भरत ने नाट्य शास्त्र के छठे अध्याय में एक सूत्र दिया है जो हम सभी जानते हैं।
विभावानुभाव्यभिचारीसंयोगाद्रसनिष्पत्ति:
अर्थात, विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग से रस कि निष्पत्ति होती है। इस सूत्र में भरत ने विभिन्न भावों के संयोग से रस निष्पत्ति की बात तो कही लेकिन होती किस प्रकार है; रस की उत्पत्ति प्रेक्षकों में होती है या अभिनेता में होती है या पात्रों में ही होती है इसका कहीं उल्लेख नहीं किया। इसके अतिरिक्त भरत रस का आधार स्थाई भाव को मानते हैं लेकिन रस सूत्र में इसका कहीं उल्लेख नहीं करते हैं। इसी अस्पष्टता के कारण भरत के परवर्ती विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कों से और दर्शन का सहारा लेकर इस सूत्र की व्याख्या करने का प्रयास किया है। उन विद्वानों में चार विद्वानों का मत उल्लेखनीय माना जाता है। पहले व्यख्याकार भट्ट लोल्लट थे जिनका मत उत्पत्तिवाद या आरोपवाद के नाम से जाना जाता है। दूसरे व्याख्याकार श्री शंकुक हैं, उनका मत अनुमितिवाद के नाम से जाना जाता है। तीसरे व्याख्याकार भट्टनायक हैं उनका मत भुक्तिवाद के नाम से प्रचलित है। चौथे और अंतिम व्याख्याकार अभिनवगुप्त हैं उनका मत अभिव्यक्तिवाद कहा जाता है। अभिनवगुप्त का मत आजतक सबसे ज्यादा मान्य मत है। लेकिन अभिनवगुप्त ने अनायास ही व्यख्या नहीं कर डाली बल्कि भट्ट लोल्लट, श्री शंकुक और भट्ट नायक के मतों के आधार पर ही आभासवादी काश्मीरी शैव दर्शन का सहारा लेकर रस सिद्धान्त की मानक व्याख्या की है। वस्तुतः अभिनवगुप्त से पहले के तीनों आचार्यों का कार्य रस सिद्धान्त की मानक व्याख्या की ओर प्रगति का एक-एक कदम था। इसलिए इन मतों की जानकारी प्रत्येक अध्येताओं के लिए आवश्यक मानी जाती है।
भुक्तिवाद और उत्पत्तिवाद की ओर बढ्ने से पहले हम रससूत्र में उल्लेखित व उससे संबन्धित पदों का परिचय प्राप्त कर लेते हैं क्योंकि यही मत उन वादों के संदर्भ में उल्लेखित होंगे। भावों के प्रकार से पहले हम भाव की बात करते हैं। भाव वस्तुतः है क्या? मन के विक्षोभ या सीधे कहें तो विचार ही भाव हैं। ये वाणी अंग रचना या अनुभूति के द्वारा काव्य के अर्थ को भावन करवाते हैं इसलिए भाव कहे जाते है। भावन करवाना क्रिया का व्यावहारिक अर्थ है महसूस करवाना। भाव दो तरह के होते हैं, स्थायी भाव और संचारी या व्याभिचारी भाव। स्थायी भाव सहृदय के मन में संस्कार रूप में हमेशा स्थित होते हैं। भरत ने इसकी संख्या आठ बताई है, रति, हास, उत्साह, क्रोद्ध, शोक, जुगुप्सा, भय और विस्मय इनके संगत आठ रस हैं, शृंगार, हास्य, वीर, रौद्र, करुण, वीभत्स, भयानक, और अद्भुत। शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद होता है। संचारी भाव वैसे भाव होते हैं जो स्थायी भाव के जगने के बाद आते-जाते रहते हैं और रस को परिपुष्ट करते हैं। अपनी संचरणशीलता यानि गतिशीलता के कारण इन्हें संचारी और एक से अधिक रसों से संबन्धित होने के कारण इन्हें व्याभिचारी भाव भी कहा जाता है। अब बारी आती है विभाव की। विभाव का सीधा अर्थ हमें कारण समझना चाहिए। वह व्यक्ति, वस्तु स्थान या स्थिति जिसके चलते स्थायी भाव जगता है और तीव्र होता है विभाव कहलाता है। विभाव के दो प्रकार होते हैं आलंबन और उद्दीपन। पुनः आलंबन के दो भाग होते हैं विषय और आश्रय।
विभाव के बाद हम अनुभाव की बात करते हैं। जब किसी में स्थायी भाव जगता है तो उसकी चेष्टाएँ जो स्थायी भाव के प्रकार की सूचना देती हैं, अनुभाव कहलाती हैं। इसके चार प्रकार होते हैं आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। चुकीं अभिनेता किसी न किसी भाव के प्रभाव को सायास संप्रेषित करता है, इसके लिए वह सायास चेष्टा करता है। अभिनेता की सायास चेष्टाएँ ही अभिनय है। अतः अभिनय भी चार प्रकार के होते हैं, आंगिक, वाचिक, आहार्य और सात्विक। जब अभिनेता अपनी चेष्टाओं के माध्यम से कैसे अपने भावों का सम्प्रेषण प्रेक्षकों तक करता है, इस तथ्य को बताने के लिए ‘साधारणी करण’ का सिद्धान्त आया। साधारणीकरण की बात सबसे पहले भट्ट नायक ने भुक्तिवाद के अंतर्गत की। हालांकि इसके बीज नाट्यशास्त्र में ही छिपे हैं। भरत का यह कहना कि
सामान्य गुणयोगेन रसा निष्पद्यन्ते
साधारणी करण का मूल है। इसका अर्थ है जब प्रेक्षक भावों को सामान्य रूप से मैं और पर की भावना मुक्त होकर ग्रहण करते हैं तब रस कि निष्पत्ति होती है। नाटक देखते समय प्रेक्षकों के लिए साधारणीकारण की स्थिति वह स्थिति है जब दर्शकों के मन का तादात्म्य पात्रों से इस प्रकार होता है कि उसके विभाव सामान्य होकर प्रेक्षकों के अपने लगने लगते हैं और उसके प्रभाव से उनके अपने स्थायी भाव उद्बुध हो जाता है, फलतः रस की निष्पत्ति होती है। लेकिन साधारणीकरण के द्वारा भावों का उद्वेलन सामान्य स्थिति से अलग होता है। यही कारण है कि करूण रस के अभिनय के समय प्रेक्षक रोता तो है लेकिन उसमें भी एक विश्रांति और आनंद होता है जो सामान्य जगत के शोक की स्थिति से अलग होती है। यही कमोबेश सारे रसों के साथ होता है। भुक्तिवाद में इसी साधारणीकरण की बात होती है।
भुक्तिवाद के आचार्य भट्टनायक ने गंभीर चिंतन का आधार लेकर रस की व्याख्या करने का प्रयास किया। भरत की तरह उन्होने भी रस को ब्रह्मानन्द सहोदर माना है जो अलौकिक है। उन्होने अपने पूर्ववर्ती दोनों आचार्यों के मतों को खंडित करते हुए कहा कि रस ना तो आरोपित होता है और न ही अनुमानित बल्कि भावित होता है। इस स्थिति के बाद दर्शक रस का उपभोग करता है यानि कि भुक्ति होती है। इसके लिए उन्होने तीन शक्तियों की बात की है, अभिधा, भावकत्व और भोजकत्व। अभिधा शब्द शक्ति है। इसके माध्यम से दर्शक शब्दों-संवादों के अर्थ ग्रहण करता है। भावकत्व में दर्शकों का अहम लुप्त हो जाता है। फिर मंच पर के विशिष्ट पात्र उसे उसी रूप में सामान्य लगाने लगते है। ऐसा विभावों के साधारणीकरण के चलते होता है। भोजकत्व में अहम के लुप्त होने  से दर्शकों के रजोगुण और तमोगुण का नाश हो जाता है; चित्तवृतियाँ शांत हो जाती है और वह शुद्ध सतोगुण के प्रभाव में आकर रस का उपभोग करता है। इस तरह भट्टनयक का तात्पर्य है कि रस अगर कार्य है तो विभाव कारण। रस अगर लक्ष्य है तो विभाव उसका साधन। रस अगर भोज्य है यानि कि खाने की चीज है तो विभाव भोजक मतलब खिलानेवाला। अब यहीं एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है, क्या रस एक भौतिक पदार्थ है जो उसका उपभोग किया जाता है? एक अन्य प्रश्न यह भी होता है कि साधारणी करणबस विभावों का ही होता है, तो फिर स्थायी भाव की स्थिति क्या होती है। इन प्रश्नों का उत्तर आचार्य अभिनवगुप्त ने अभिव्यक्तिवाद में दिया। इसलिए वह सिद्धान्त सर्वाधिक तार्किक माना जाता है।
अब हम बात करते हैं उत्पत्तिवाद की उत्पतिवाद के आचार्य भट्ट लोल्लट का मानना है कि विभाव से रस उत्तपन्न होता है। रस स्थिति मूल पात्र में ही होती है। मूल पात्र वह पात्र होता है, अभिनेता जिसका अभिनय करता है। अभिनेता अभिनय कौशल से प्रेक्षकों को मूल पात्र का विश्वास दिलाते हैं। प्रेक्षक अभिनेता के कौशल से चमत्कृत होकर उसे मूल पात्र समझ बैठते हैं और आनंदित होते हैं। इस सिद्धान्त में निष्पत्ति का अर्थ उत्पत्ति से लिया गया है इसलिए इसे उत्पत्तिवाद कहा जाता है। भट्ट लोल्लट ने वेदान्त दर्शन से प्रभावित होकर ऐसी व्याख्या की थी। जिसमें संसार को मिथ्या माना गया है। आद्यासिक ज्ञान इसका आधार है। यह ज्ञान उसे कहते हैं जिसमें वस्तु के नहीं होने पर भी उसका ज्ञान होता है। जैसे रस्सी को देखकर साँप का ज्ञान होना या फिर सीप के टुकड़े से चाँदी का ज्ञान होना आदि। इसका करण है किसी गुण के  समानता के कारण हम एक वस्तु का आरोप दूसरे पर कर देते हैं। भट्ट लोल्लट के अनुसार हम अभिनय के कारण हम मूल पात्र का आरोप अभिनेता पर कर देते हैं और आनंदित होते हैं। इस आरोप की बात करने के चलते इस सिद्धान्त को आरोपवाद भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त से कई प्रश्न उठे लेकिन मुख्य प्रश्न यह था कि भावों का अनुभव किए बिना सिर्फ चमत्कार के कारण प्रेक्षक आनंदित कैसे हो सकता है। यह असंभव स्थिति है। इसके विरोध में शंकुक ने अनुमितिवाद दिया जिसमें उन्होने चित्र तुरंग न्याय की बात की अर्थात जिस प्रकार हम घोड़े का चित्र देखकर हम उसे घोड़ा समझते हैं उसी प्रकार पत्रों में रस का अनुमान करके प्रेक्षक आनंदित होता है। इसके विरोध में यह कहा गया कि चित्र देखकर घोड़ा समझा तो जा सकता है लेकिन सवारी नहीं की जा सकती है। उसी तरह रस समझा तो जा सकता है लेकिन आनंदित नहीं हुआ जा सकता है। इसलिए वह सिद्धान्त भी खारिज हो गया।
बहरहाल, भुक्तिवाद और उत्पत्तिवाद दोनों में एक समानता है कि विभाव को प्रधानता दी गई और उसे रस निष्पत्ति का कारण माना गया। उत्पत्तिवाद में प्रेक्षकों को भावों से अलग मानकर उपेक्षित रखा गया जबकि वास्तव में रस का असली भोक्ता वही होता है। इसलिए इस सिद्धान्त को वैज्ञानिकता कि कसौटी पर सफलता नहीं मिली। भुक्तिवाद ने साधारणीकरण जैसी नई स्थापना देते हुए रस की स्थिति प्रेक्षकों में माना लेकिन निष्पत्ति का अर्थ भुक्ति देते हुए रस को भौतिक पदार्थ बना दिया जबकि रस भौतिक पदार्थ है ही नहीं। अतः यह सिद्धान्त भी वैज्ञानिकता के बहुत नजदीक जाकर भी वैज्ञानिक साबित नहीं हो सका। लेकिन यह निर्विवाद है कि रस सिद्धान्त की व्याख्या में भुक्तिवाद, उत्पत्तिवाद से ज्यादा व्यावहारिक और वैज्ञानिक सिद्धान्त है।







संदर्भ :
1.     नाट्यशास्त्र की परंपरा और दशरूपक, हजारीप्रसाद द्विवेदी, पृथ्वीनाथ द्विवेदी।
2.     भारतीय नाट्य परंपरा और अभिनयदर्पण, वाचस्पति गैरला।
3.     हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली, डॉ॰ अमरनाथ।
4.     भारतीय और पाश्चात्य नाट्य सिद्धान्त, डॉ॰ विश्वनाथ मिश्रा।
5.     सौन्दर्यशास्त्र, डॉ॰ ममता चतुर्वेदी।
6.     हिन्दी नाट्यशास्त्र, बाबूलाल शुक्ल शास्त्री।
7.      नाट्यशास्त्र का इतिहास, डॉ॰ पारसनाथ द्विवेदी।

शोध में साक्षात्कार का महत्व, साक्षात्कार की तैयारी, अच्छे शोध साक्षात्कार की विशेषताएँ



शोध के लिए विषय-चयन के बाद सबसे अनिवार्य कार्य होता है सामग्री संकलन। इसके बिना शोध कार्य संभव ही नहीं हो सकता है। सामाग्री संकलन के लिए विभिन्न विधियों का सहारा लिया जाता है। साक्षात्कार भी सामग्री संकलन की एक विधि है। साक्षात्कार की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से दी है। वाइटल्स महोदय साक्षात्कार को आमने-सामने की बातचीत कहते हैं तो विंघम और मूर का कहना है कि यह उदेश्यपूर्ण वार्तालाप होती है। पी॰ वी॰ यंग का कहना है, It seems as an effective, informal verbal and non verbal conversation, initiated for specific purposes and planned content areas. अर्थात साक्षात्कार एक प्रभावकारी शाब्दिक अथवा मौन वार्तालाप है, जो किसी विशेष उद्येश्य से तथा किसी सुनियोजित क्षेत्र पर केन्द्रित होता है। इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षात्कार में दो पक्ष आमने-सामने वार्तालाप करते हैं जिसमें शब्दों का महत्व तो होता ही है मौन और भाव-भंगिमा यानि बॉडी लैड्ग्वेज आदि का भी महत्व होता है क्योंकि ये तत्व साक्षात्कारकर्ता के लिए सामाग्री से संबन्धित विश्लेषण में सहायक होते हैं। किसी भी विषय या व्यवहार के अनेक ऐसे पक्ष होते हैं जिसकी सही जानकारी उस पक्ष से संबन्धित व्यक्ति से पूछे बिना नहीं हो सकता है। व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण, विश्वास, अनुभव, प्रेरणा, गुजरे हुए जीवन आदि ऐसे पक्ष हैं जिसका विवरण वह स्वयं ही दे सकता है। इन पक्षों के विषय में अन्य व्यक्तियों द्वारा प्राप्त जानकारी कभी भी उतनी विश्वसनीय नहीं हो सकती है जितनी की उस व्यक्ति द्वारा स्वंय ही दी गई जानकारी होती है।
अभी जिन पक्षों की चर्चा मैंने की है उनसे संबन्धित जानकारी अन्य विधियों जैसे प्रश्नावली  विधि द्वारा भी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन उन विधियों द्वारा प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता में संदेह की गुंजाइश होती है। उदाहरण के तौर पर, हम जब प्रश्नावली विधि का प्रयोग करते हैं तो उत्तरदाता के सामने प्रश्नों का एक सेट होता है और पर्याप्त समय होता है। इसलिए प्रश्नों के उत्तर देने से पहले उसे सोच-विचार करने का अवकाश मिल जाता है। इस स्थिति में यह असंभव नहीं है कि वह अपने उत्तर की सत्यता का आपेक्षिक परिणाम पर सोचे कि उससे वह कितना प्रभावित हो सकता है। बेशक उसकी आशंका निरधार हो लेकिन उत्तर की सत्यता प्रभावित हो सकती है। साक्षात्कार में उत्तरदाता के पास इतना अवकाश नहीं होता है। फिर सामने प्रश्नकर्ता के होने से एक जल्दी की बाध्यता होती है, एक दबाव होता है, जिससे आशंका पर सोच-विचार वह ज्यादा कर नहीं पाता है। इसलिए गलत उत्तर की संभावना बहुत कम होती है।
प्रश्नावली विधि में निश्चित प्रश्नों के बंधे- बँधाये उत्तर मिलते हैं जबकि साक्षात्कार में उत्तरदाता के उत्तर से नए प्रश्न भी उठाए जा सकते हैं जिनका उत्तर शोधकर्ता या प्रश्नकर्ता के लिए सर्वथा नई जानकारी हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि वैसे उत्तर का पूर्वानुमान हो ही नहीं।
उत्तर के रूप में प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता अन्य विधियों से अधिक होने की संभाव्यता तथा अन्य नई जानकारियों की प्राप्ति की संभावना के चलते साक्षात्कार का शोध के लिए सामाग्री संकलन की विधि के रूप में बहुत अधिक महत्व है। वस्तुतः सामाग्री की विश्वसनीयता ही शोध की गुणवत्ता का नियामक होता है। साक्षात्कार का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी होता है कि इसका प्रयोग अशिक्षित व्यक्तियों पर भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें उत्तरदाता को बस बोलकर उत्तर देना होता है। अतिव्यस्त व्यक्तियों के मामले में भी इसकी अत्यधिक उपयोगिता होती है क्योंकि रास्ते में चलते हुए भी साक्षात्कार दिया जा सकता है। साक्षात्कार को रेकॉर्ड कर लेने से एक बात यह भी होती है कि उत्तरदाता बाद में अपने किसी उत्तर से मुकर कर शोध की गुणवत्ता को विवादास्पद नहीं बना सकता है।
साक्षात्कार की प्रकृति को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि साक्षात्कारकर्ता पहले से उसकी तैयारी करे। इसके लिए कई कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। साक्षात्कारकर्ता को यह सोचना चाहिए कि वह किसलिए साक्षात्कार लेने जा रहा है, किसका साक्षात्कार लेने जा रहा है और उसे किस प्रकार का साक्षात्कार लेना है। इन प्रश्नों का उत्तर पाकर उसे व्यावहारिक योजना बनाना चाहिए। साक्षात्कार कर्ता को चाहिए कि वह जिस विषय पर साक्षात्कार लेने जा रहा है उस विषय से संबन्धित जानकारी प्राप्त कर ले। अगर वह संरचित साक्षात्कार लेने जा रहा है तो वह प्रश्नों के सेट इस तरह से तैयार करे कि उसके उत्तर से किसी भी तरह की आवश्यक जानकारी नहीं छूटे। अगर विसंरचित साक्षात्कार लेने जा रहा हो तो सभी प्रकार के प्रश्नों, उसके उत्तर से संभावित प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों आदि कि संभावना पर पहले से विचार कर लेना अच्छा रहता है। उसे बिन्दूवार नोट भी किया जा सकता है। फिर जिस व्यक्ति का साक्षात्कार लेना हो उससे संपर्क करके उसे साक्षात्कार का उद्येश्य बताकर स्वीकृति लेनी चाहिए। उत्तरदाता की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति, स्वभाव, अन्य व्यक्तियों से उसके संबंध आदि पर पहले ही विचार कर लेना चाहिए जिससे साक्षात्कार के दौरान किसी भी प्रकार कि अवांछित स्थिति नहीं उत्तपन्न हो, अगर हो भी जाए तो उससे आसानी से निपटा जा सके। इसके बाद निर्धारित दिन, साक्षात्कारकर्ता को आवश्यक उपकरण जैसे कैमरा, वॉइस रिकॉर्डर, नोटबूक-पेन आदि के साथ, समय से निर्धारित स्थान पर पहुँच जाना चाहिए। साक्षात्कार के दौरान साक्षात्कारकर्ता को किसी भी तरह के उत्तेजनात्मक प्रश्न पूछने से बचना चाहिए। अन्य प्रश्न भी वह इस प्रकार पूछे कि उत्तरदाता सहजता का अनुभव कर सके। अति महत्वपूर्ण और विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए यह अपेक्षित होता है कि साक्षात्कारकर्ता अनुभवी, व्यवहार कुशल और प्रत्युत्तपन्नमतित्व यानि strong presence of mind वाला व्यक्ति हो।
अब हम प्रश्न के अंतिम भाग पर विचार करते हैं, जिसमें कहा गया है, अच्छे शोध साक्षात्कार की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
अनुसंधान के लिए सामग्री संकलन की विधि या उपकरण के तौर पर जब हम साक्षात्कार का उपयोग करते हैं तो हमें उसका स्वरूप निर्धारण और क्रियान्वयन के लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है। इस तैयारी के कारण शोध साक्षात्कार में कुछ विशेषता आ जाती है जो उसे सामान्य साक्षात्कार से अलग करती है। शोध साक्षात्कार की परिभाषा देते हुए एक विद्वान लिंडसे गार्डनर ने कहा है, “साक्षात्कार, साक्षात्कारकर्ता द्वारा अनुसंधान से संबन्धित जानकारी प्राप्त करने के विशेष उद्येश्य के लिए चलाया जानेवाला दो व्यक्तियों का वार्तालाप होता है जो अनुसंधान उद्देश्य के वर्णन और कारकों से संबन्धित विषय-वस्तु पर केन्द्रित रहता है।”
शोध के लिए साक्षात्कार की स्थितियों और इस परिभाषा के विश्लेषण से आदर्श शोध साक्षात्कार की विशेषताएँ समझी जा सकती है। वे विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
·       शोध साक्षात्कार में शोधार्थी उत्तरदाता से शोध से संबन्धित विशेष प्रश्न ही पूछता है और उत्तरदाता स्वयं को पूछे गए प्रश्नों तक ही सीमित रखकर उत्तर देता है।
·       प्रश्न अधिक लंबे न होकर संक्षिप्त और विषय केन्द्रित होते है।
·       प्रश्नों की भाषा स्पष्ट, सीधी और सुबोध होती है।
·       प्रश्नों को व्यवस्थित क्रम में  रखा जाता है जिससे उत्तर के रूप में प्राप्त सामग्री स्वतः ही व्यवस्थित होती जाती है जिससे बाद में उलझन की संभावना कम जाती है।
·       प्रश्न आपस में जुड़े होते हैं, एक दूसरे के पूरक भी हो सकते हैं। विषय की अत्यधिक स्पष्टता और सभी प्रकार की जिज्ञासाओं के शमन के लिए प्रश्न से प्रश्न निकलते हैं और उपप्रश्न भी पूछे जाते हैं।
·       उत्तरदाता की भावनाओं और दृष्टिकोण का विशेष महत्व होता क्योंकि वह प्राप्त सामाग्री के सही विश्लेषण करने के लिए आवश्यक होता है।

















संदर्भ :
1.     शोध, बैजनाथ सिंघल।
2.     शोध प्रविधि, डॉ॰ हरिश्चंद्र वर्मा।
3.     सामाजिक अनुसंधान, राम आहूजा।
4.     सामाजिक सर्वेक्षण तथा अनुसंधान, मानसी शर्मा।
5.     शैक्षिक अनुसंधान एवं सांख्यिकी, बिपिन अस्थाना, विजय श्रीवास्तव, निधि अस्थाना।
6.     सामाजिक अनुसंधान पद्धतियाँ, प्रकाशक : ओरियंट ब्लैकस्वॉन प्राइवेट लिमिटेड।
     

रूपक भेद के आधार पर नाट्यशास्त्र की टीका (दशरूपक) तथा रसनिष्पत्ति की प्रक्रिया



भारत में नाटकों के मंचन की सुदीर्घ परंपरा तो रही ही है साथ ही उसके लिए शास्त्र लेखन की परंपरा भी प्राचीन काल से ही रही है। अब तक मान्य सबसे प्राचीन ग्रंथ नाट्यशास्त्र है जिसका रचनाकाल दूसरी शती में समझा जाता है। नाट्यशास्त्र से यह ज्ञात होता है कि भरत से पहले भी शास्त्र लेखन की परंपरा थी। वैयाकरण पाणिनी रचित अष्टाध्यायी में यह उल्लेख है कृशाश्व तथा शिलालि ने नटसूत्रों का निर्माण किया था। वाचस्पति गैरोला ने लिखा है, “नाट्यशास्त्र के मूल स्रोत नटसूत्र का निर्माण वैदिक युग में ही हो चुका था और उसे तब उतना ही लोकसम्मान प्राप्त था, जितना कि अन्य वेद शाखाओं को।...इस संबंध में विद्वानों की यह धारणा है कि नटसूत्र ग्रंथ का नाट्यशास्त्र में उसी प्रकार समावेश हो गया, जैसे कि अग्निवेश के आयुर्वेदतंत्र का चरक में”[1]। शिलालि और कृशाश्व के अतिरिक्त धुर्त्तिल, शाण्डिल्य, वात्स्य, कोहल, सदाशिव, पद्मभू, द्रोहिणी, व्यास, आञ्जनेय आदि नाट्याचार्यों और उनके सिद्धांतों की चर्चा नाट्यशास्त्र या उसके परवर्ती ग्रन्थों यथा अभिनव भारती, दशरूपक, भावप्रकाशन आदि ग्रन्थों में हुआ है। यह संभव है कि उन सिद्धांतों का विलय शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्र की तरह ही नाट्यशास्त्र में हुआ हो। इन बातों से इतना स्पष्ट होता है कि नाट्यशास्त्र की विशालता के आधार में भरत के मौलिक सिद्धांतो के अतिरिक्त विभिन्न नाट्यचार्यों के सिद्धान्तों का भी योगदान है जो या तो भरत के पूर्ववर्ती या उनके समकालीन थे। जिस तरह भरत के पूर्ववर्ती नाट्यचार्यों के सिद्धांतों का विलय नाट्यशास्त्र में हुआ उसी तरह भरत के परवर्ती विद्वानों ने नाट्यशास्त्र को उपजीव्य बनाकर अनेकोन टीका, भाष्य और वृतियों की रचना की। इन रचनाकारों में उल्लेखनीय हैं, कोहल, तुंबरू, दत्तिल, मतंग, कात्यायन, राहुल, उद्भट्ट, लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, भट्टयंत्र, कीर्तीधर, मातृगुप्त, सुबंधु, अश्मकुट्ट, वादरायण, शातकर्णी और नखकुट्ट। इन विद्वानों में से किसी की रचना प्राप्त नहीं है। सिर्फ कोहल और सुबंधु की रचना क्रमशः कोहलप्रदर्शिका और नाट्यपराख्य की जानकारी अभिनवभारती और संगीतरत्नाकर से मिलती है।[2]
नाट्यशास्त्र की प्राप्त प्रमुख टीकाएँ हैं: अभिनवगुप्त कृत अभिनवभारती, नंदिकेश्वर कृत अभिनय दर्पण, धनंजय कृत दशरूपक और उसपर धनिक की अवलोक नामक वृति, सागारनंदी कृत नाट्यलक्षण-रत्नकोश, शारदातनय कृत भावप्रकाशन, रामचंद्र-गुणभद्र कृत नाट्यदर्पणसूत्र, भोज कृत शृंगारप्रकाश, आचार्य हेमचन्द्र कृत काव्यनुशसन, सिंहभूपाल कृत रसार्णव-सुधाकर, विश्वनाथ कविराज कृत साहित्यदर्पण,[3] शारंगदेव कृत संगीतरत्नाकर, अशोकमल्ल कृत नृत्याध्याय[4] आदि। उपरोक्त में से कुछ ग्रन्थों को कतिपय विद्वान मौलिक ग्रंथ मानते हैं। नाट्यशास्त्र की टीकाओं में, मुख्य रूप से रूपकों की व्याख्या करनेवाले ग्रंथों में पहला नाम, धनंजय कृत दशरूपक का आता है। प्रश्नानुसार हम दशरूपक पर विचार करते हैं।
दशरूपककार धनंजय, प्राचीन काल की धारा नगरी, वर्तमान समय में मध्यप्रदेश का धार, के निवासी थे। वे मुंजराज के सभापण्डित थे इस आधार पर उनका जीवनकाल दसवीं सदी के उत्तरार्ध में ठहरता है। इस लिए यह माना जाता है कि दशरूपक दसवीं शताब्दी की रचना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कहना है, “ भरतमुनी के नाट्य शास्त्र के बीसवें अध्याय को दशरूपक-विकल्पन या दशरूपक-विधान कहा गया है। इसी आधार पर धनंजय ने अपने ग्रंथ का नाम दशरूपक दिया है[5] दशरूपक के दूसरे श्लोक में धनंजय ने रूपक की उपमा विष्णु के दस अवतार से दी है। इस ग्रंथ के चार अध्यायों, जिसे प्रकाश कहा गया है, में ना केवल रूपक बल्कि नायक-नायिका भेद और रस का भी वर्णन है। दशरूपक की संरचना को देखकर यह लगता है कि धनंजय ने नाट्यशास्त्र की विशालता का अतिनाट्योपयगी संक्षेपन किया है। इसका समर्थन स्वयं उन्होने प्रथम प्रकाश के छठे श्लोक में किया है जो निम्नलिखित है।
व्यकीर्णे मंदबुद्धिनां जायते मतिविभ्रम:।
तस्यार्थस्तत्पदैस्तेन संक्षिप्त क्रियतेऽजसा॥[6]
अर्थात, भरतमुनि द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र विस्तार के साथ लिखा गया है। उसमें रूपक रचना संबंधी बातें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं। अतः मंद बुद्धि वाले लोगों के लिए मतिभ्रम होने की संभावना बनी हुई है। इसलिए साधारण बुद्धि वालों के लिए उसी नाट्यवेद के शब्द और अर्थों को लेकर संक्षेप में सरल रीति से इस ग्रंथ की रचना कर रहा हूँ।
आचार्य धनंजय ने प्रथम प्रकाश में पहले गणेश वंदना की है फिर विष्णु और भरत की, उसके बाद सरस्वती की कृपा वर्णन और फिर नाट्यशास्त्र के शास्त्रीय महत्व और उसमें पार्वती तथा शिव द्वारा
 क्रमशः लास्य और तांडव के योग की चर्चा की है, तत्पश्चात उन्होने उपरोक्त श्लोक लिखा है।
सातवें श्लोक में उन्होने कहा है, अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहा जाता है, दृश्य होने के कारण रूप तथा आरोप के कारण रूपक कहते हैं। यह दस प्रकार के रूपक रसाश्रित होते हैं। यहाँ आरोप तथा रसाश्रित का तात्पर्य है क्रमशः अभिनेता पर चरित्र का आरोप तथा रस की प्रधानता है।
आठवें श्लोक में, रूपक के दस भेद, नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डीम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक और ईहामृग बताया गया है। फिर उन्होने कहा है कि नृत्य-भेदों को नाट्य के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि वह रसाश्रित ना होकर भवाश्रित होता है जबकि नृत्त तो लय-ताल आश्रित अंग-विक्षेप मात्र होता है।
रूपक भेद का आधार, धनंजय वस्तु, नेता और रस के भेदों को मानते हैं –
वस्तु नेता रसस्तेषां भेदको वस्तु च द्विधा।[7]
आगे उन्होने वस्तु के दो प्रकार, आधिकारिक और प्रासंगिक; इस नाम के कारण और पुनः प्रासंगिक कथावस्तु के दो प्रकार , पताका और प्रकरी बताया है। फिर उन्होने सम्पूर्ण वस्तु के तीन भेद, प्रख्यात, उत्पाद्य, और मिश्र बताया है, जिसका आधार क्रमशः ऐतिहासिक, कवि-कल्पित और ऐतिहासिक तथा कल्पित घटना का संयोग होता है।
कथावस्तु के प्रकार व भेदों के बाद उसके फल, फिर पाँच अर्थप्रकृतियाँ, बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य तथा पाँच अवस्थाएँ, आरंभ, यत्न, प्रप्त्याशा, नियताप्ति और फलागम का वर्णन किया गया है। इस वर्णन के बाद वस्तु की पाँच संधियों, मुख, प्रतिमुख, गर्भ, अवमर्श और उपसंहार का सूक्ष्म वर्णन-विश्लेषण किया गया है।
दशरूपक का दूसरा प्रकाश, नेता यानि नायक-नायिका भेदोपभेद पर केन्द्रित है। पहले नेता के गुण बताए गए हैं कि उसे विनीत, मधुर, त्यागी, दक्ष, प्रियंवद,रक्तलोक, शुचि, वाग्मी, रूढ़वंश, स्थिर, युवा, बुद्धिमान, प्रज्ञावान, स्मृति-सम्पन्न, उत्साही, कलावान, शास्त्रचक्षु, आत्म-सम्मानी, शूर, दृढ़, तेजस्वी और धार्मिक होना चाहिए। गुणों के नाम बताने के बाद उसका अर्थ बताया गया है। ये गुण नेता के साधारण गुण हैं। फिर उसके विशेष गुण के आधार पर नायक के चार भेद, धीरललित, धीरप्रशांत, धीरोद्दात और धीरोद्धत बताकर इन प्रकारों का विश्लेषण किया गया है। इसके बाद अवस्था के आधार पर नायक के चार भेद, दक्षिण, शठ, घृष्ट और अनुकूल का विश्लेषण किया गया है। इस प्रकार नायक के  44 यानि 16 प्रकारों को पुनः तीन प्रकार, ज्येष्ठ, मध्यम और अधम में बांटकर 48 प्रकार बताए गए हैं। नायक भेद के बाद नायक के सहायक जैसे विदूषक आदि और फिर प्रतिनायक का वर्णन है। फिर नायक के आठ गुण शोभा, विलास, माधुर्य, गम्भीर्य, स्थैर्य, तेज, ललित, औदार्य बताया गया है।
गुणों के आधार पर नायिका के भेद स्वकीया, परकीया और समान्या बताया गया है। स्वकीया नायिका के तीन भेद हैं, मुग्धा, मध्या और प्रगल्भा। अवस्था के अनुसार नायिका के आठ भेद होते हैं, स्वाधीनपतिका, वासकसज्जा, विराहोत्कंठिता, खंडिता, कलहान्तरिता, विप्रल्ब्धा, प्रोषितपतिका, अभिसारिका। इन भेदों के बाद बीस अलंकार; जो तीन अंगों, हाव, भाव और हेला से उतपन्न होते हैं; शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य, धैर्य लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित्त, विव्वोक, ललित तथा विकृत बताए गए है। इन अलंकारों में पहले सात अयत्नज और बाद के सभी स्वभावज होते हैं। इन सभी का अति सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। द्वितीय प्रकाश में ही पात्रों के परस्पर संबंध के आधार पर सम्बोधन के तरीके बताए गए हैं।
जिस प्रकार धनंजय ने वस्तु नेता और रस के आधार पर रूपकभेद की बात की है उस आधार पर नायक नायिका भेद के बाद रस-वर्णन होना चाहिए था, लेकिन तृतीय प्रकाश में उन्होने रूपकों की विशेषताओं और अंगों का विस्तार से वर्णन किया है। पहले ही श्लोक में उन्होने
सम्पूर्णलक्षणत्वाच पूर्वङ्ग नाटक मुच्यते।
कहकर नाटक को सभी रूपकों में उत्तम माना है। उनका मानना है कि नाटक में सभी रसों का प्राचुर्य होता है और सभी लक्षण घटित होते हैं। इसी प्रकाश में नाट्यशास्त्र की विभिन्न रूढ़ियों जैसे पूर्वरंग-विधान, सूचनाएँ आदि के साथ शब्दों यथा भारती वृति आदि का वर्णन किया है। भरत द्वारा संकेत किया गया उपरूपक नाटिका को उन्होने, नाटक और प्रकरण के बीच में रखते हुए, नायक प्राख्यात और वस्तु उत्पाद्य बताकर उसका स्वरूप निर्धारित किया है। इसके बाद किस रूपक के नायक-नायिका किस प्रकार के होने चाहिए इसपर विचार किया गया है।
चतुर्थ और अंतिम प्रकाश में रस का सर्वांग विवेचन किया गया है। लेकिन विवेचना में मौलिकता नहीं है बल्कि भरत के सिद्धान्त को ही अपने शब्दों में बताया गया है। एक बात उल्लेखनीय यह है कि धनंजय ने भरत द्वारा संकेतित शांत रस की सत्ता नाटकों में अस्वीकार कर दिया है। उनका मानना है कि शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद अन्य भावों से अतिक्रमित होकर दूसरे रसों का भी अंग बन जाता है, इसलिए नाटकों में उसकी स्वतंत्र स्थिति नहीं होती है।
रसनिष्पत्ति के संदर्भ में विशेष कुछ नहीं कहा गया है। बस सामान्य तौर पर यह कहा है कि
विभावैरनुभार्वश्च सात्त्विकैर्व्यभिचारिभि:।
आनीयमान: स्वाद्यत्वंग स्थायीभावो रसः स्मृत:॥[8]
अर्थात, विभाव, अनुभव, सात्त्विकभाव और व्याभिचारी भावों के द्वारा परिपुष्टावस्था को प्राप्त किया हुआ स्थायी भाव रस कहलाता है। इस श्लोक में भरत के प्रख्यात रससूत्र से अधिक सात्विकभाव और स्थायी भाव का जिक्र तो है लेकिन निष्पत्ति की प्रक्रिया असपष्ट ही है। इस अस्पष्टता को तार्किक स्पष्टता, नाट्यशास्त्र के एक अन्य महत्वपूर्ण टीकाकार अभिनवगुप्त ने प्रदान की है।
रसनिष्पत्ति के लिए अभिनव गुप्त ने अपने पूर्ववर्ती व्याख्याकार भट्टनायक के भुक्तिवाद के संदर्भ में दिये गए साधारणीकरण की अवधारणा का सहारा लेकर यह कहा कि चरित्रों के ना केवल विभाव बल्कि स्थायीभाव भी प्रेक्षकों तक साधरणीकृत होकर उसके स्थायी भाव को जगाते हैं। और यही  जाग्रत स्थायी भाव परिपुष्ट होकर रस रूप में अभिव्यक्त होते है। इस सिद्धान्त को अभव्यक्तिवाद की संज्ञा दी गई है। यह सिद्धान्त पूर्णत: तार्किक और आजतक सर्वमान्य है।
दशरूपक के अनुशीलन से यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ रूपक के वर्णन-विश्लेषण-व्याख्या के लिए रचित नाट्यशास्त्र की टीका है, जिसमें संक्षिप्तता के आग्रह के बाद भी सिद्धांतों के सूक्ष्म विश्लेषण के प्रयास के चलते दूरूहता आ गई। यह उतना बोधगम्य नहीं हो सका जितना ग्रंथकार का लक्ष्य था। इसलिए धनंजय के अनुज धनिक ने अवलोक नाम की वृति लिखकर इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को बोद्धगम्य बनाया। अतः इस ग्रंथ  से होने वाले लाभ के लिए अध्येता धनंजय जितना ही धनिक के प्रति भी आभारी होते हैं।                     



संदर्भ ग्रंथ :
1.     भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण : वाचस्पति गैरोला; चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली (2013)।
2.     भारतीय नाट्यशास्त्र की परम्परा और दशरूपक : हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृथ्वीनाथ द्विवेदी; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (2007)।
3.     नाट्यशास्त्र का इतिहास : डॉ॰ पारसनाथ द्विवेदी; चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, (2012)।
4.     हिन्दी नाट्यशास्त्र, खंड-1 : बाबूलाल शुक्ल शास्त्री; चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी (2009)।
5.     हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली : डॉ॰ अमरनाथ; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (2012)।
6.     भारतीय और पाश्चात्य नाट्यसिद्धान्त : डॉ॰ विश्वनाथ मिश्र; कुसुम प्रकाशन, मुजफ्फरनगर (2003)।
सौंदर्यशास्त्र : डॉ॰ ममता



[1] भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण, वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ-21।
[2]                                                  , पृष्ठ-22।
[3] हिन्दी नाट्यशास्त्र, बाबूलाल शुक्ल शास्त्री, पृष्ठ-38।
[4] भारतीय नाट्यपरम्परा और अभिनय दर्पण, पृष्ठ-32।
[5] नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दशरूपक, पृष्ठ-33।
[6]                                     ,पृष्ठ-65     
[7] नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दसरूपक, पृष्ठ-67।
[8] नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दशरूपक, पृष्ठ-181।