भारत में नाटकों के
मंचन की सुदीर्घ परंपरा तो रही ही है साथ ही उसके लिए शास्त्र लेखन की परंपरा भी
प्राचीन काल से ही रही है। अब तक मान्य सबसे प्राचीन ग्रंथ नाट्यशास्त्र है जिसका
रचनाकाल दूसरी शती में समझा जाता है। नाट्यशास्त्र से यह ज्ञात होता है कि भरत से पहले
भी शास्त्र लेखन की परंपरा थी। वैयाकरण पाणिनी रचित अष्टाध्यायी में यह उल्लेख है
कृशाश्व तथा शिलालि ने नटसूत्रों का निर्माण किया था। वाचस्पति गैरोला ने लिखा है, “नाट्यशास्त्र के मूल स्रोत नटसूत्र का निर्माण वैदिक युग में ही हो चुका
था और उसे तब उतना ही लोकसम्मान प्राप्त था, जितना कि अन्य
वेद शाखाओं को।...इस संबंध में विद्वानों की यह धारणा है कि नटसूत्र ग्रंथ का
नाट्यशास्त्र में उसी प्रकार समावेश हो गया, जैसे कि
अग्निवेश के आयुर्वेदतंत्र का चरक में”[1]। शिलालि और कृशाश्व के
अतिरिक्त धुर्त्तिल, शाण्डिल्य,
वात्स्य, कोहल, सदाशिव, पद्मभू, द्रोहिणी, व्यास, आञ्जनेय आदि नाट्याचार्यों और उनके सिद्धांतों की चर्चा नाट्यशास्त्र या
उसके परवर्ती ग्रन्थों यथा अभिनव भारती, दशरूपक, भावप्रकाशन आदि ग्रन्थों में हुआ है। यह संभव है कि उन सिद्धांतों का
विलय शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्र की तरह ही नाट्यशास्त्र में हुआ हो। इन बातों
से इतना स्पष्ट होता है कि नाट्यशास्त्र की विशालता के आधार में भरत के मौलिक
सिद्धांतो के अतिरिक्त विभिन्न नाट्यचार्यों के सिद्धान्तों का भी योगदान है जो या
तो भरत के पूर्ववर्ती या उनके समकालीन थे। जिस तरह भरत के पूर्ववर्ती नाट्यचार्यों
के सिद्धांतों का विलय नाट्यशास्त्र में हुआ उसी तरह भरत के परवर्ती विद्वानों ने
नाट्यशास्त्र को उपजीव्य बनाकर अनेकोन टीका, भाष्य और वृतियों
की रचना की। इन रचनाकारों में उल्लेखनीय हैं, कोहल, तुंबरू, दत्तिल, मतंग, कात्यायन, राहुल, उद्भट्ट, लोल्लट, शंकुक, भट्टनायक, भट्टयंत्र, कीर्तीधर, मातृगुप्त, सुबंधु, अश्मकुट्ट, वादरायण, शातकर्णी और नखकुट्ट। इन विद्वानों में से किसी की रचना प्राप्त नहीं है।
सिर्फ कोहल और सुबंधु की रचना क्रमशः कोहलप्रदर्शिका और नाट्यपराख्य की जानकारी अभिनवभारती
और संगीतरत्नाकर से मिलती है।[2]
नाट्यशास्त्र की
प्राप्त प्रमुख टीकाएँ हैं: अभिनवगुप्त कृत अभिनवभारती, नंदिकेश्वर कृत अभिनय दर्पण, धनंजय कृत दशरूपक और
उसपर धनिक की अवलोक नामक वृति, सागारनंदी कृत
नाट्यलक्षण-रत्नकोश, शारदातनय कृत भावप्रकाशन, रामचंद्र-गुणभद्र कृत नाट्यदर्पणसूत्र, भोज कृत
शृंगारप्रकाश, आचार्य हेमचन्द्र कृत काव्यनुशसन, सिंहभूपाल कृत रसार्णव-सुधाकर, विश्वनाथ कविराज कृत
साहित्यदर्पण,[3] शारंगदेव कृत
संगीतरत्नाकर, अशोकमल्ल कृत नृत्याध्याय[4] आदि। उपरोक्त में से कुछ
ग्रन्थों को कतिपय विद्वान मौलिक ग्रंथ मानते हैं। नाट्यशास्त्र की टीकाओं में, मुख्य रूप से रूपकों की व्याख्या करनेवाले ग्रंथों में पहला नाम, धनंजय कृत दशरूपक का आता है। प्रश्नानुसार हम दशरूपक पर विचार करते हैं।
दशरूपककार धनंजय, प्राचीन काल की धारा नगरी, वर्तमान समय में
मध्यप्रदेश का धार, के निवासी थे। वे मुंजराज के सभापण्डित
थे इस आधार पर उनका जीवनकाल दसवीं सदी के उत्तरार्ध में ठहरता है। इस लिए यह माना
जाता है कि दशरूपक दसवीं शताब्दी की रचना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का
कहना है, “ भरतमुनी के नाट्य शास्त्र के बीसवें अध्याय को ‘दशरूपक-विकल्पन’ या ‘दशरूपक-विधान’ कहा गया है। इसी आधार पर धनंजय ने अपने ग्रंथ का नाम ‘दशरूपक’ दिया है”।[5] दशरूपक के दूसरे श्लोक में
धनंजय ने रूपक की उपमा विष्णु के दस अवतार से दी है। इस ग्रंथ के चार अध्यायों, जिसे प्रकाश कहा गया है, में ना केवल रूपक बल्कि
नायक-नायिका भेद और रस का भी वर्णन है। दशरूपक की संरचना को देखकर यह लगता है कि
धनंजय ने नाट्यशास्त्र की विशालता का अतिनाट्योपयगी संक्षेपन किया है। इसका समर्थन
स्वयं उन्होने प्रथम प्रकाश के छठे श्लोक में किया है जो निम्नलिखित है।
व्यकीर्णे
मंदबुद्धिनां जायते मतिविभ्रम:।
तस्यार्थस्तत्पदैस्तेन
संक्षिप्त क्रियतेऽजसा॥[6]
अर्थात, भरतमुनि द्वारा प्रणीत नाट्यशास्त्र विस्तार के साथ लिखा गया है। उसमें
रूपक रचना संबंधी बातें यत्र-तत्र बिखरी हुई हैं। अतः मंद बुद्धि वाले लोगों के
लिए मतिभ्रम होने की संभावना बनी हुई है। इसलिए साधारण बुद्धि वालों के लिए उसी
नाट्यवेद के शब्द और अर्थों को लेकर संक्षेप में सरल रीति से इस ग्रंथ की रचना कर
रहा हूँ।
आचार्य धनंजय ने
प्रथम प्रकाश में पहले गणेश वंदना की है फिर विष्णु और भरत की, उसके बाद सरस्वती की कृपा वर्णन और फिर नाट्यशास्त्र के शास्त्रीय महत्व
और उसमें पार्वती तथा शिव द्वारा
क्रमशः लास्य और तांडव के योग की चर्चा की है, तत्पश्चात उन्होने उपरोक्त श्लोक लिखा है।
सातवें श्लोक में
उन्होने कहा है, अवस्था के अनुकरण को नाट्य कहा जाता है, दृश्य होने के कारण रूप तथा आरोप के कारण रूपक कहते हैं। यह दस प्रकार के
रूपक रसाश्रित होते हैं। यहाँ आरोप तथा रसाश्रित का तात्पर्य है क्रमशः अभिनेता पर
चरित्र का आरोप तथा रस की प्रधानता है।
आठवें श्लोक में, रूपक के दस भेद, नाटक, प्रकरण, भाण, प्रहसन, डीम, व्यायोग, समवकार, वीथी, अंक और ईहामृग बताया गया है। फिर उन्होने कहा है कि नृत्य-भेदों को नाट्य
के अंतर्गत नहीं रखा जा सकता क्योंकि वह रसाश्रित ना होकर भवाश्रित होता है जबकि
नृत्त तो लय-ताल आश्रित अंग-विक्षेप मात्र होता है।
रूपक भेद का आधार, धनंजय वस्तु, नेता और रस के भेदों को मानते हैं –
वस्तु
नेता रसस्तेषां भेदको वस्तु च द्विधा।[7]
आगे उन्होने वस्तु के
दो प्रकार, आधिकारिक और प्रासंगिक; इस नाम के कारण और पुनः प्रासंगिक कथावस्तु के दो प्रकार , पताका और प्रकरी बताया है। फिर उन्होने सम्पूर्ण वस्तु के तीन भेद, प्रख्यात, उत्पाद्य, और मिश्र
बताया है, जिसका आधार क्रमशः ऐतिहासिक,
कवि-कल्पित और ऐतिहासिक तथा कल्पित घटना का संयोग होता है।
कथावस्तु के प्रकार व
भेदों के बाद उसके फल, फिर पाँच अर्थप्रकृतियाँ, बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी और कार्य तथा पाँच अवस्थाएँ, आरंभ, यत्न, प्रप्त्याशा, नियताप्ति
और फलागम का वर्णन किया गया है। इस वर्णन के बाद वस्तु की पाँच संधियों, मुख, प्रतिमुख, गर्भ, अवमर्श और उपसंहार का सूक्ष्म वर्णन-विश्लेषण किया गया है।
दशरूपक का दूसरा
प्रकाश, नेता यानि नायक-नायिका भेदोपभेद पर केन्द्रित है। पहले नेता के गुण बताए
गए हैं कि उसे विनीत, मधुर, त्यागी, दक्ष, प्रियंवद,रक्तलोक, शुचि, वाग्मी, रूढ़वंश, स्थिर, युवा, बुद्धिमान, प्रज्ञावान, स्मृति-सम्पन्न,
उत्साही, कलावान, शास्त्रचक्षु, आत्म-सम्मानी, शूर, दृढ़, तेजस्वी और धार्मिक होना चाहिए। गुणों के नाम बताने के बाद उसका अर्थ
बताया गया है। ये गुण नेता के साधारण गुण हैं। फिर उसके विशेष गुण के आधार पर नायक
के चार भेद, धीरललित, धीरप्रशांत, धीरोद्दात और धीरोद्धत बताकर इन प्रकारों का विश्लेषण किया गया है। इसके
बाद अवस्था के आधार पर नायक के चार भेद, दक्षिण, शठ, घृष्ट और अनुकूल का विश्लेषण किया गया है। इस
प्रकार नायक के 44 यानि 16 प्रकारों को पुनः तीन
प्रकार, ज्येष्ठ, मध्यम और अधम में
बांटकर 48 प्रकार बताए गए हैं। नायक भेद के बाद नायक के सहायक जैसे विदूषक आदि और
फिर प्रतिनायक का वर्णन है। फिर नायक के आठ गुण शोभा, विलास, माधुर्य, गम्भीर्य, स्थैर्य, तेज, ललित, औदार्य बताया गया
है।
गुणों के आधार पर नायिका
के भेद स्वकीया, परकीया और समान्या बताया गया है। स्वकीया
नायिका के तीन भेद हैं, मुग्धा, मध्या
और प्रगल्भा। अवस्था के अनुसार नायिका के आठ भेद होते हैं, स्वाधीनपतिका, वासकसज्जा, विराहोत्कंठिता,
खंडिता, कलहान्तरिता, विप्रल्ब्धा, प्रोषितपतिका, अभिसारिका। इन भेदों के बाद बीस
अलंकार; जो तीन अंगों, हाव, भाव और हेला से उतपन्न होते हैं; शोभा, कान्ति, दीप्ति, माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य, धैर्य
लीला, विलास, विच्छित्ति, विभ्रम, किलकिंचित, मोट्टायित, कुट्टमित्त, विव्वोक, ललित
तथा विकृत बताए गए है। इन अलंकारों में पहले सात अयत्नज और बाद के सभी स्वभावज
होते हैं। इन सभी का अति सूक्ष्म विश्लेषण किया गया है। द्वितीय प्रकाश में ही
पात्रों के परस्पर संबंध के आधार पर सम्बोधन के तरीके बताए गए हैं।
जिस प्रकार धनंजय ने
वस्तु नेता और रस के आधार पर रूपकभेद की बात की है उस आधार पर नायक नायिका भेद के
बाद रस-वर्णन होना चाहिए था, लेकिन तृतीय प्रकाश में
उन्होने रूपकों की विशेषताओं और अंगों का विस्तार से वर्णन किया है। पहले ही श्लोक
में उन्होने
सम्पूर्णलक्षणत्वाच
पूर्वङ्ग नाटक मुच्यते।
कहकर नाटक को सभी
रूपकों में उत्तम माना है। उनका मानना है कि नाटक में सभी रसों का प्राचुर्य होता
है और सभी लक्षण घटित होते हैं। इसी प्रकाश में नाट्यशास्त्र की विभिन्न रूढ़ियों
जैसे पूर्वरंग-विधान, सूचनाएँ आदि के साथ शब्दों
यथा भारती वृति आदि का वर्णन किया है। भरत द्वारा संकेत किया गया उपरूपक ‘नाटिका’ को उन्होने, नाटक और
प्रकरण के बीच में रखते हुए, नायक प्राख्यात और वस्तु
उत्पाद्य बताकर उसका स्वरूप निर्धारित किया है। इसके बाद किस रूपक के नायक-नायिका
किस प्रकार के होने चाहिए इसपर विचार किया गया है।
चतुर्थ और अंतिम
प्रकाश में रस का सर्वांग विवेचन किया गया है। लेकिन विवेचना में मौलिकता नहीं है
बल्कि भरत के सिद्धान्त को ही अपने शब्दों में बताया गया है। एक बात उल्लेखनीय यह
है कि धनंजय ने भरत द्वारा संकेतित शांत रस की सत्ता नाटकों में अस्वीकार कर दिया
है। उनका मानना है कि शांत रस का स्थायी भाव निर्वेद अन्य भावों से अतिक्रमित होकर
दूसरे रसों का भी अंग बन जाता है, इसलिए नाटकों में उसकी
स्वतंत्र स्थिति नहीं होती है।
रसनिष्पत्ति के
संदर्भ में विशेष कुछ नहीं कहा गया है। बस सामान्य तौर पर यह कहा है कि
विभावैरनुभार्वश्च
सात्त्विकैर्व्यभिचारिभि:।
आनीयमान:
स्वाद्यत्वंग स्थायीभावो रसः स्मृत:॥[8]
अर्थात, विभाव, अनुभव, सात्त्विकभाव
और व्याभिचारी भावों के द्वारा परिपुष्टावस्था को प्राप्त किया हुआ स्थायी भाव रस
कहलाता है। इस श्लोक में भरत के प्रख्यात रससूत्र से अधिक सात्विकभाव और स्थायी
भाव का जिक्र तो है लेकिन निष्पत्ति की प्रक्रिया असपष्ट ही है। इस अस्पष्टता को
तार्किक स्पष्टता, नाट्यशास्त्र के एक अन्य महत्वपूर्ण
टीकाकार अभिनवगुप्त ने प्रदान की है।
रसनिष्पत्ति के लिए
अभिनव गुप्त ने अपने पूर्ववर्ती व्याख्याकार भट्टनायक के भुक्तिवाद के संदर्भ में
दिये गए साधारणीकरण की अवधारणा का सहारा लेकर यह कहा कि चरित्रों के ना केवल विभाव
बल्कि स्थायीभाव भी प्रेक्षकों तक साधरणीकृत होकर उसके स्थायी भाव को जगाते हैं। और
यही जाग्रत स्थायी भाव परिपुष्ट होकर रस
रूप में अभिव्यक्त होते है। इस सिद्धान्त को अभव्यक्तिवाद की संज्ञा दी गई है। यह
सिद्धान्त पूर्णत: तार्किक और आजतक सर्वमान्य है।
दशरूपक के अनुशीलन से
यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि यह ग्रंथ रूपक के वर्णन-विश्लेषण-व्याख्या के लिए
रचित नाट्यशास्त्र की टीका है, जिसमें संक्षिप्तता के
आग्रह के बाद भी सिद्धांतों के सूक्ष्म विश्लेषण के प्रयास के चलते दूरूहता आ गई।
यह उतना बोधगम्य नहीं हो सका जितना ग्रंथकार का लक्ष्य था। इसलिए धनंजय के अनुज
धनिक ने अवलोक नाम की वृति लिखकर इस महत्वपूर्ण ग्रंथ को बोद्धगम्य बनाया। अतः इस
ग्रंथ से होने वाले लाभ के लिए अध्येता
धनंजय जितना ही धनिक के प्रति भी आभारी होते हैं।
संदर्भ ग्रंथ :
1. भारतीय
नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण : वाचस्पति गैरोला;
चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान, दिल्ली (2013)।
2. भारतीय
नाट्यशास्त्र की परम्परा और दशरूपक : हजारी प्रसाद द्विवेदी, पृथ्वीनाथ द्विवेदी; राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली (2007)।
3. नाट्यशास्त्र
का इतिहास : डॉ॰ पारसनाथ द्विवेदी; चौखम्बा
सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी, (2012)।
4. हिन्दी
नाट्यशास्त्र, खंड-1 : बाबूलाल शुक्ल शास्त्री; चौखम्भा संस्कृत संस्थान, वाराणसी (2009)।
5. हिन्दी
आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली : डॉ॰ अमरनाथ; राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली (2012)।
6. भारतीय
और पाश्चात्य नाट्यसिद्धान्त : डॉ॰ विश्वनाथ मिश्र;
कुसुम प्रकाशन, मुजफ्फरनगर (2003)।
सौंदर्यशास्त्र : डॉ॰
ममता
[1]
भारतीय नाट्य परम्परा और अभिनय दर्पण, वाचस्पति गैरोला, पृष्ठ-21।
[2]
” , पृष्ठ-22।
[3]
हिन्दी नाट्यशास्त्र,
बाबूलाल शुक्ल शास्त्री,
पृष्ठ-38।
[4]
भारतीय नाट्यपरम्परा और अभिनय दर्पण, पृष्ठ-32।
[5]
नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दशरूपक, पृष्ठ-33।
[6]
” ,पृष्ठ-65।
[7]
नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दसरूपक, पृष्ठ-67।
[8]
नाट्यशास्त्र की भारतीय परंपरा और दशरूपक, पृष्ठ-181।
bahut hi badhiya
जवाब देंहटाएंBadiya Bhai
जवाब देंहटाएंSo gud
जवाब देंहटाएंरूपकों पर प्रारम्भिक,सटीक जानकारी। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंनाट्यशास्त्र के भेद कितने है please tell me
जवाब देंहटाएंरूपक का विश्लेषण पढ़ अच्छा महसूस हुआ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद...