मानव के विकास, सुख और समृद्धि के मूल में अंततः एक चीज ही होती है। वह है, ज्ञान और उसका अनुप्रयोग। इसलिए ज्ञान में वृद्धि मनुष्य की जन्मजात
प्रवृति होती है। इसके लिए वह हमेशा प्रयत्न करता रहता है,
सत्य जानने का प्रयास करता रहता है। इस प्रयास के क्रम में वह नवीन ज्ञान की
प्राप्ति के साथ ही पहले से प्राप्त ज्ञान की सत्यता की जांच-परख भी करता है। इस
प्रक्रिया से ज्ञान के आयाम में विस्तार होता है। वस्तुतः यह प्रक्रिया ही शोध है।
शोध का पर्याय हिन्दी में अनुसंधान होता है। अनुसंधान शब्द 1960 ई॰ तक विशेष रूप से प्रचलित रहा[1]। नगेन्द्र जैसे विद्वान इसके
हिमायती थे लेकिन धीरे-धीरे शोध शब्द रूढ़ हो गया। शोध शब्द शुध धातु के साथ घञ
प्रत्यय के मेल से बना है जिसका अर्थ होता है, सुधारना, शंकाओं का निराकरण करना, शुद्ध करना आदि। इसे अंग्रेजी
में रिसर्च कहते हैं। यह re प्रेफिक्स और search शब्द के मेल से बना है जिसका अर्थ होता है क्रमशः पुनः और खोज ।
सामान्य अर्थ से आगे
बढ़कर जब हम शोध के आदर्श स्वरूप और शैक्षणिक संदर्भ पर विचार करते हैं तो हमें
इसके लिए एक व्यवस्थित परिभाषा की आवश्यकता होती है। ‘वैब्सटर्स डिक्शनरी’ में रिसर्च की परिभाषा निम्न
प्रकार से दी गई है—
“Research is a critical and
exhaustive investigation or examination having for its aim the discovery of new
facts and their correct interpretation, the revision of accepted conclusions,
theories and lows”[2]
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल
साइन्स में रिसर्च के लिए कहा गया है —
“ Research
is the manipulation of things, concepts or symbols for the purpose generalizing
to extend, correct or verify knowledge whether that knowledge aids in the
practice or an art ”[3]
विभिन्न विद्वानों ने
भी शोध की परिभाषा विभिन्न प्रकार से दी है :
एल॰ वी॰ तथा रेडमैन
ने रोमांस ऑफ रिसर्च में कहा है, “ शोध या अनुसंधान नवीन
ज्ञान प्राप्त करने के लिए एक व्यवस्थित प्रयास है”
पी॰एम॰ कुक के ने कहा है कि “किसी समस्या के संदर्भ में
ईमानदारी, विस्तार तथा बुद्धिमानी से तथ्यों, उनके अर्थ, तथा उपयोगिता की खोज करना ही अनुसंधान है।”
सी॰सी॰ क्रोफोर्ड का
कहना है, “ अनुसंधान किसी समस्या के अच्छे समाधान के लिए क्रमबद्ध तथा विशुद्ध
चिंतन एवं विशिष्ट उपकरणो के प्रयोग की एक विधि है।”
डब्लू॰ एस॰ मनरो के
अनुसार, “अनुसंधान उन समस्याओं के अध्यययन की एक विधि है जिसका अपूर्ण अथवा पूर्ण
समाधान तथ्यों के आधार पर ढूँढना है। अनुसंधान के लिए तथ्य,
लोगों के मतों के कथन, ऐतिहासिक तथ्य,
लेख अथवा अभिलेख, परखों से प्राप्त फल,
प्रश्नावली के उत्तर अथवा प्रयोगों से प्राप्त सामग्री हो सकती है”।
डॉ॰ एम॰ वर्मा॰ के अनुसार, “अनुसंधान एक बौद्धिक प्रक्रिया है जो नए ज्ञान को प्रकाश में लातीहै
अथवा पुरानी त्रुटियों एवं भ्रांत धारणाओं का परिमार्जन करती है।”
उपरोक्त परिभाषाओं से
यह स्पष्ट हो जाता है कि शोध, नवीन ज्ञान की प्राप्ति
के लिए या किसी समस्या के समाधान के लिए उपलब्ध जानकारियों और साक्ष्यों को
व्यवस्थित करके क्रमबद्ध तरीके से विश्लेषण कर परिणाम प्राप्त करने की प्रक्रिया
को कहा जाता है।
इन परिभाषाओं से ही
शोध की प्रकृति का पता चलता है। जिसका बिन्दुवार विवरण निम्नलिखित है:
· शोध
एक अनोखी प्रक्रिया है जो ज्ञान के प्रकाश और प्रसार में सहायक होता है।
· इसके
द्वारा या तो किसी नये तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु की खोज की जाती है या फिर प्राचीन
तथ्य, सिद्धान्त, विधि, या वस्तु में परिवर्तन किया जाता है।
· यह
सुव्यवस्थित, बौद्धिक, तर्कपूर्ण
तथा वस्तुनिष्ठ प्रक्रिया होती है।
· इसमें
विभिन्न श्रोतों (प्राथमिक तथा द्वितीयक) से प्राप्त आंकड़े का विश्लेषण किया जाता
है इसलिए चिंतन का महत्वपूर्ण स्थान होता है और पूर्वाग्रहों और रूढ़ियों की कतई
गुंजाइश नहीं होती है।
· शोध
के लिए वैज्ञानिक अभिकल्पों का प्रयोग किया जाता है।
· आंकड़े
एकत्रित करने के लिए विश्वसनीय उपकरणों का प्रयोग किया जाता है।
· अनुसंधान
द्वारा प्राप्त ज्ञान को सत्यापित किया जा सकता है।
· पूरी
प्रक्रिया की सफलता के लिए व्यवस्थित तरीके से क्रमबद्ध चरणो से गुजरना होता है।
इन क्रमबद्ध चरणो की व्यवस्था ही शोध का स्वरूप निर्धारक होता है।
शोध का स्वरूप कई
बातों से मिलकर बनता है। वे बाते हैं : शोध का उद्देश्य, शोध का प्रकार, समस्या चयन,
समस्या से संबंधित सभी प्रकार की जानकारियाँ एकत्रित करना,
प्रविधि का चुनाव, आंकड़े एकत्रित करने के उपकरणो या विधि का
चुनाव, प्राकल्पना का निर्माण, आंकड़े
का विश्लेषण तथा प्राकल्पना का सत्यापन और अंत में प्रतिवेदन लेखन।
शोध का विचार बनने पर
यह सोचना आवश्यक होता है कि आखिर शोध किया क्यों जाएगा। इस बात की सटीक जानकारी
सही दिशा और शोध की सफलता के लिए आवश्यक होती है। उदाहरणस्वरूप, अगर शोध किसी उपाधि के लिए किया जाता है तब या फिर किसी व्यावसायिक
उद्देश्य के लिए किया जाता है तब, दोनों के लिए भिन्न प्रकार
की दृष्टि अपनानी पड़ती है। व्यावसायिक शोध के लिए समस्या चयन के समय ही यह सोचना
होता है कि उसके समाधान का व्यावसायिक महत्व क्या होगा, जबकि
उपाधिपरक सोध के लिए यह सोचना उचित होता है कि कौन सी समस्या अछूती रही है और उसपर
कार्य व्यावहारिक दृष्टि से संभव होगा कि नहीं। समस्या चयन के बाद उसकी प्रकृति पर
विचार करने से यह निर्धारित किया जाता है कि शोध का प्रकार क्या होगा। जैसे -
समाजशास्त्रीय शोध, मनोवैज्ञानिक शोध,
सौंदर्यशास्त्रीय शोध आदि। इसके बाद प्रविधि का चुनाव किया जाता है, जैसे गुणात्मक, मात्रात्मक,
विवरणात्मक आदि। परिणाम की उत्कृष्टता के लिए एक शोध में एक से अधिक प्रविधि का
उपयोग किया जा सकता है। अब प्राकल्पना का निर्माण किया जाता है और फिर विश्वसनीय
तरीके से प्राथमिक और द्वितीयक आंकड़े एकत्रित किए जाते हैं। चयनित प्रविधि का आधार
लेकर आंकड़ों का विश्लेषण और प्राकल्पना का परीक्षण किया जाता है। प्राकल्पना
परीक्षण के परिणाम मिलते ही थीसिस का निर्माण हो जाता है। उस थीसिस के संरक्षण और
विश्वसनीयता निर्धारण के लिए शोध-प्रतिवेदन लिखा जाता है। शोध-प्रतिवेदन लेखन की
भी विशिष्ट और मानक विधि होती है। इस तरह शोध कार्य पूर्णता को प्राप्त करता है।
संदर्भ:
1. शोध
प्रविधि : डॉ॰ हरिश्चंद्र वर्मा; हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला (2011)।
2. सामाजिक
अनुसंधान : राम आहूजा; रावत पब्लिकेशन, जयपुर (2010)।
3. शोध, स्वरूप एवं मानक व्यावहारिक कार्यविधि : बैजनाथ सिंघल; वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली (2008)।
4. अनुसंधान
परिचय : पारसनाथ राय, सी॰पी॰ राय; लक्ष्मी नारायण अग्रवाल, आगरा, प्र॰सं॰ (1973)।
5. सामाजिक
अनुसंधान पद्धतियाँ : मु॰ सं॰ राम गणेश यादव; ओरियंट
ब्लैकस्वान नई दिल्ली (2014)।
6. शैक्षिक
अनुसंधान एवं सांख्यिकी : विपिन अस्थाना, विजया
श्रीवास्तव, निधि अस्थाना; अग्रवाल
पब्लिकेशन, आगरा (2013)।
7. सामाजिक
सर्वेक्षण तथा अनुसंधान : मानसी शर्मा; वाईकिंग
बुक्स, जयपुर (2012)।
great job
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक सारांश...��
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