बुधवार, 9 दिसंबर 2015

शोध में साक्षात्कार का महत्व, साक्षात्कार की तैयारी, अच्छे शोध साक्षात्कार की विशेषताएँ



शोध के लिए विषय-चयन के बाद सबसे अनिवार्य कार्य होता है सामग्री संकलन। इसके बिना शोध कार्य संभव ही नहीं हो सकता है। सामाग्री संकलन के लिए विभिन्न विधियों का सहारा लिया जाता है। साक्षात्कार भी सामग्री संकलन की एक विधि है। साक्षात्कार की परिभाषा विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से दी है। वाइटल्स महोदय साक्षात्कार को आमने-सामने की बातचीत कहते हैं तो विंघम और मूर का कहना है कि यह उदेश्यपूर्ण वार्तालाप होती है। पी॰ वी॰ यंग का कहना है, It seems as an effective, informal verbal and non verbal conversation, initiated for specific purposes and planned content areas. अर्थात साक्षात्कार एक प्रभावकारी शाब्दिक अथवा मौन वार्तालाप है, जो किसी विशेष उद्येश्य से तथा किसी सुनियोजित क्षेत्र पर केन्द्रित होता है। इन परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि साक्षात्कार में दो पक्ष आमने-सामने वार्तालाप करते हैं जिसमें शब्दों का महत्व तो होता ही है मौन और भाव-भंगिमा यानि बॉडी लैड्ग्वेज आदि का भी महत्व होता है क्योंकि ये तत्व साक्षात्कारकर्ता के लिए सामाग्री से संबन्धित विश्लेषण में सहायक होते हैं। किसी भी विषय या व्यवहार के अनेक ऐसे पक्ष होते हैं जिसकी सही जानकारी उस पक्ष से संबन्धित व्यक्ति से पूछे बिना नहीं हो सकता है। व्यक्ति के प्रत्यक्षीकरण, विश्वास, अनुभव, प्रेरणा, गुजरे हुए जीवन आदि ऐसे पक्ष हैं जिसका विवरण वह स्वयं ही दे सकता है। इन पक्षों के विषय में अन्य व्यक्तियों द्वारा प्राप्त जानकारी कभी भी उतनी विश्वसनीय नहीं हो सकती है जितनी की उस व्यक्ति द्वारा स्वंय ही दी गई जानकारी होती है।
अभी जिन पक्षों की चर्चा मैंने की है उनसे संबन्धित जानकारी अन्य विधियों जैसे प्रश्नावली  विधि द्वारा भी प्राप्त की जा सकती है। लेकिन उन विधियों द्वारा प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता में संदेह की गुंजाइश होती है। उदाहरण के तौर पर, हम जब प्रश्नावली विधि का प्रयोग करते हैं तो उत्तरदाता के सामने प्रश्नों का एक सेट होता है और पर्याप्त समय होता है। इसलिए प्रश्नों के उत्तर देने से पहले उसे सोच-विचार करने का अवकाश मिल जाता है। इस स्थिति में यह असंभव नहीं है कि वह अपने उत्तर की सत्यता का आपेक्षिक परिणाम पर सोचे कि उससे वह कितना प्रभावित हो सकता है। बेशक उसकी आशंका निरधार हो लेकिन उत्तर की सत्यता प्रभावित हो सकती है। साक्षात्कार में उत्तरदाता के पास इतना अवकाश नहीं होता है। फिर सामने प्रश्नकर्ता के होने से एक जल्दी की बाध्यता होती है, एक दबाव होता है, जिससे आशंका पर सोच-विचार वह ज्यादा कर नहीं पाता है। इसलिए गलत उत्तर की संभावना बहुत कम होती है।
प्रश्नावली विधि में निश्चित प्रश्नों के बंधे- बँधाये उत्तर मिलते हैं जबकि साक्षात्कार में उत्तरदाता के उत्तर से नए प्रश्न भी उठाए जा सकते हैं जिनका उत्तर शोधकर्ता या प्रश्नकर्ता के लिए सर्वथा नई जानकारी हो सकती है। ऐसा भी हो सकता है कि वैसे उत्तर का पूर्वानुमान हो ही नहीं।
उत्तर के रूप में प्राप्त जानकारी की विश्वसनीयता अन्य विधियों से अधिक होने की संभाव्यता तथा अन्य नई जानकारियों की प्राप्ति की संभावना के चलते साक्षात्कार का शोध के लिए सामाग्री संकलन की विधि के रूप में बहुत अधिक महत्व है। वस्तुतः सामाग्री की विश्वसनीयता ही शोध की गुणवत्ता का नियामक होता है। साक्षात्कार का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी होता है कि इसका प्रयोग अशिक्षित व्यक्तियों पर भी किया जा सकता है क्योंकि इसमें उत्तरदाता को बस बोलकर उत्तर देना होता है। अतिव्यस्त व्यक्तियों के मामले में भी इसकी अत्यधिक उपयोगिता होती है क्योंकि रास्ते में चलते हुए भी साक्षात्कार दिया जा सकता है। साक्षात्कार को रेकॉर्ड कर लेने से एक बात यह भी होती है कि उत्तरदाता बाद में अपने किसी उत्तर से मुकर कर शोध की गुणवत्ता को विवादास्पद नहीं बना सकता है।
साक्षात्कार की प्रकृति को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है कि साक्षात्कारकर्ता पहले से उसकी तैयारी करे। इसके लिए कई कई सैद्धांतिक और व्यावहारिक पहलुओं को ध्यान में रखना आवश्यक होता है। साक्षात्कारकर्ता को यह सोचना चाहिए कि वह किसलिए साक्षात्कार लेने जा रहा है, किसका साक्षात्कार लेने जा रहा है और उसे किस प्रकार का साक्षात्कार लेना है। इन प्रश्नों का उत्तर पाकर उसे व्यावहारिक योजना बनाना चाहिए। साक्षात्कार कर्ता को चाहिए कि वह जिस विषय पर साक्षात्कार लेने जा रहा है उस विषय से संबन्धित जानकारी प्राप्त कर ले। अगर वह संरचित साक्षात्कार लेने जा रहा है तो वह प्रश्नों के सेट इस तरह से तैयार करे कि उसके उत्तर से किसी भी तरह की आवश्यक जानकारी नहीं छूटे। अगर विसंरचित साक्षात्कार लेने जा रहा हो तो सभी प्रकार के प्रश्नों, उसके उत्तर से संभावित प्रश्नों, प्रतिप्रश्नों आदि कि संभावना पर पहले से विचार कर लेना अच्छा रहता है। उसे बिन्दूवार नोट भी किया जा सकता है। फिर जिस व्यक्ति का साक्षात्कार लेना हो उससे संपर्क करके उसे साक्षात्कार का उद्येश्य बताकर स्वीकृति लेनी चाहिए। उत्तरदाता की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति, स्वभाव, अन्य व्यक्तियों से उसके संबंध आदि पर पहले ही विचार कर लेना चाहिए जिससे साक्षात्कार के दौरान किसी भी प्रकार कि अवांछित स्थिति नहीं उत्तपन्न हो, अगर हो भी जाए तो उससे आसानी से निपटा जा सके। इसके बाद निर्धारित दिन, साक्षात्कारकर्ता को आवश्यक उपकरण जैसे कैमरा, वॉइस रिकॉर्डर, नोटबूक-पेन आदि के साथ, समय से निर्धारित स्थान पर पहुँच जाना चाहिए। साक्षात्कार के दौरान साक्षात्कारकर्ता को किसी भी तरह के उत्तेजनात्मक प्रश्न पूछने से बचना चाहिए। अन्य प्रश्न भी वह इस प्रकार पूछे कि उत्तरदाता सहजता का अनुभव कर सके। अति महत्वपूर्ण और विवादास्पद प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए यह अपेक्षित होता है कि साक्षात्कारकर्ता अनुभवी, व्यवहार कुशल और प्रत्युत्तपन्नमतित्व यानि strong presence of mind वाला व्यक्ति हो।
अब हम प्रश्न के अंतिम भाग पर विचार करते हैं, जिसमें कहा गया है, अच्छे शोध साक्षात्कार की विशेषताओं पर प्रकाश डालें।
अनुसंधान के लिए सामग्री संकलन की विधि या उपकरण के तौर पर जब हम साक्षात्कार का उपयोग करते हैं तो हमें उसका स्वरूप निर्धारण और क्रियान्वयन के लिए विशेष तैयारी करनी पड़ती है। इस तैयारी के कारण शोध साक्षात्कार में कुछ विशेषता आ जाती है जो उसे सामान्य साक्षात्कार से अलग करती है। शोध साक्षात्कार की परिभाषा देते हुए एक विद्वान लिंडसे गार्डनर ने कहा है, “साक्षात्कार, साक्षात्कारकर्ता द्वारा अनुसंधान से संबन्धित जानकारी प्राप्त करने के विशेष उद्येश्य के लिए चलाया जानेवाला दो व्यक्तियों का वार्तालाप होता है जो अनुसंधान उद्देश्य के वर्णन और कारकों से संबन्धित विषय-वस्तु पर केन्द्रित रहता है।”
शोध के लिए साक्षात्कार की स्थितियों और इस परिभाषा के विश्लेषण से आदर्श शोध साक्षात्कार की विशेषताएँ समझी जा सकती है। वे विशेषताएँ इस प्रकार हैं :
·       शोध साक्षात्कार में शोधार्थी उत्तरदाता से शोध से संबन्धित विशेष प्रश्न ही पूछता है और उत्तरदाता स्वयं को पूछे गए प्रश्नों तक ही सीमित रखकर उत्तर देता है।
·       प्रश्न अधिक लंबे न होकर संक्षिप्त और विषय केन्द्रित होते है।
·       प्रश्नों की भाषा स्पष्ट, सीधी और सुबोध होती है।
·       प्रश्नों को व्यवस्थित क्रम में  रखा जाता है जिससे उत्तर के रूप में प्राप्त सामग्री स्वतः ही व्यवस्थित होती जाती है जिससे बाद में उलझन की संभावना कम जाती है।
·       प्रश्न आपस में जुड़े होते हैं, एक दूसरे के पूरक भी हो सकते हैं। विषय की अत्यधिक स्पष्टता और सभी प्रकार की जिज्ञासाओं के शमन के लिए प्रश्न से प्रश्न निकलते हैं और उपप्रश्न भी पूछे जाते हैं।
·       उत्तरदाता की भावनाओं और दृष्टिकोण का विशेष महत्व होता क्योंकि वह प्राप्त सामाग्री के सही विश्लेषण करने के लिए आवश्यक होता है।

















संदर्भ :
1.     शोध, बैजनाथ सिंघल।
2.     शोध प्रविधि, डॉ॰ हरिश्चंद्र वर्मा।
3.     सामाजिक अनुसंधान, राम आहूजा।
4.     सामाजिक सर्वेक्षण तथा अनुसंधान, मानसी शर्मा।
5.     शैक्षिक अनुसंधान एवं सांख्यिकी, बिपिन अस्थाना, विजय श्रीवास्तव, निधि अस्थाना।
6.     सामाजिक अनुसंधान पद्धतियाँ, प्रकाशक : ओरियंट ब्लैकस्वॉन प्राइवेट लिमिटेड।
     

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सराहनीय लेख हैं आपके छात्रों के लिए यह अत्यंत उपयोगी हैं मुझे भी इससे बहुत कुछ सीखने और समझने को मिला कोटि-कोटि धन्यवाद आपको!

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