“उत्तर-आधुनिकता
का नाटकीय परिप्रेक्ष्य” को
समझने के लिए हमें पहले उत्तर-धुनिकता
पर विचार करना होगा। आखिर उत्तर-आधुनिकता है क्या,
और इसका स्वरूप कैसा है?
वर्तमान में उत्तर-आधुनिकता शब्द का प्रयोग जिस स्थिति के लिए होता है वह
विवादास्पद है। एक वर्ग इसका अर्थ ‘आधुनिकता
से मुक्ति’ की स्थिति मानता है तो
दूसरा वर्ग “आधुनिकता के बाद की स्थिति”। यूरोपीय चिंतकों ने इसे आधुनिकता के बाद
की स्थिति मानते हैं और यही मत धीरे-धीरे रूढ़ होता जा रहा है। इस मत को
व्याख्यायित करनेवाले चिंतक है : ल्योतार,
बौद्रिया, फेडरिक जेमसन,
फूको, देरीदा आदि।
उत्तर-आधुनिकतावाद को ल्योतार महावृतांत (ईसाइयत,
मार्क्सवाद और वैज्ञानिक मिथ) का अंत कहते हैं। फेडरिक जेमसन ने इसे पूंजीवाद की
खास अवस्था माना है और कहा है — “ज्ञान
की अवस्था बदल जाती है जब समाज उत्तर-औद्योगिक युग में और संस्कृति उत्तर-आधुनिक
युग में प्रवेश करती है। यह बदलाव 1950 के दशक के अंत से चालू है।” फेडरिक जेमसन
के इस विचार से यह स्पष्ट हो जाता है की उत्तर-आधुनिकता भी द्वितीय विश्वयुद्ध के
बाद की स्थिति है जब आधुनिकता की स्थिति में चरम पर पहुँची तार्किकता और बौद्धिकता
भी जीवन का आकलन करने में सक्षम नहीं हो सकी। इस स्थिति को विखंडन की स्थिति मानी
गई। नीत्शे ने तो ईश्वर को पहले ही मार दिया था। उत्तर-आधुनिकता की व्याख्या करते
हुए देरीदा ने मनुष्य की भी मृत्यु की घोषणा कर दी। यानि अब भावना,
नैतिकता,
तर्क
और बुद्धि का मूल्य समाप्त हो गया है। इतना ही नहीं उत्तर आधुनिकता की स्थिति में
कला, साहित्य,
इतिहास के साथ-साथ लेखक को भी मृत मान लिया गया है। विखंडन को मान्यता मिलने के
चलते आलेख की अर्थवातता भी बदलने लगी है।
उत्तर-आधुनिकता में
पूंजीवाद के लगातार विकास से बाजार ने भौगोलिक सीमाओं का उलंघन कर दिया है।
उपभोक्तावादी प्रवृति ने पूरी तरह से पाँव पसार लिया है। इसके साथ ही संचार-क्रांति
के विविध आयामों ने मिलकर ‘ग्लोबल
विलेज’ की अवधारणा विकसित की है। ‘ग्लोबल
विलेज’ ने बाजार को इतना मजबूत कर
दिया है कि अब हर चीज बिकाऊ हो गई है। आज कला,
संस्कृति, शिक्षा,
खेल, ज्योतिष,
अपराध, फांसी,
तलाक से लेकर देशभक्ति और भगवान तक बिकने लगे हैं। बाजार प्रायोजित उपभोगतावाद के
साथ मानवाधिकारों का तड़का लगाए जाने से एक ऐसी यौन संस्कृति विकसित होने लगी है
जिसमे पुरुष और स्त्री को शिश्न और योनि का प्रतीक मात्र समझा जाने लगा है।
उपरोक्त कारणों से आज
मानवता के विरुद्ध कई चुनौतियाँ सिर उठाकर खड़ी हो गई हैं। ये चुनौतियाँ हैं: बिखराव,
बनावटी यथार्थ, खंडित व्यक्तित्व,
विकृत यौनिकता, तृष्णा और उससे से उपजी
हताशा, प्रकृति और पर्यावरण की
गंभीर समस्याएँ, साहित्य,
कला और भाषा की निरर्थकता,
बाजार का सर्वग्रासी बनते जाना आदि।
नाटक हमेशा से मानवता
के समक्ष उपस्थित चुनौतियों से दर्शकों को रू-ब-रू कराता रहा है। उत्तर-आधुनिकता
से प्रभावित नाटकों में दर्शकों को इन चुनौतियों से न केवल आलेख बल्कि डिज़ाइन,
शिल्प, शैली और अभिनय के माध्यम से
भी रूबरू करवाया जाता है जिसका वर्णन निम्न प्रकार है।
उत्तर-आधुनिकता के
आधार मे विखंडन है। बिखंडन के कारण भाषा अपनी अर्थवत्ता खो देती है। इस अवधारणा के
चलते उत्तर-आधुनिक नाटकों में अब नाट्यालेख की सत्ता को अस्वीकार करके
इंप्रोवाइजेशन को महत्व दिया जाने लगा है। इसका मुख्य कारण है भाषा के बजाय दृश्यातमकता
को महत्व देना। इसके पक्ष में कमलेश दत्त त्रिपाठी का कहना है,
“ नाटक तभी नाट्य है जब उसे परफ़ार्म किया जाए। प्रयोग नाटक
को सत्ता प्रदान करता है। इस प्रकार उत्तर-आधुनिक रंगमंच में प्रयोग की संभावनाओं
पर अधिक बल दिया गया है”। दृश्यातमकता को प्राथमिकता के बहाने उत्तर-आधुनिकता ने
नाटकों को आलेख की सत्ता से मुक्त करने का प्रयास किया है। भाषा के विखंडन के
परिप्रेक्ष्य में अब नाट्यालेखकों और निर्देशकों के संबध पर प्रश्न- चिह्न लगता जा
रहा है। अब निर्देशक लेखक और उसके आलेख को प्रस्तुति के लिए आवश्यक नहीं समझते हैं
और नाटक को इंप्रोवाइज कर लेते हैं। अधिकांश ऐसे नाटक अभाषिक,
शब्द
रहित, आलेख रहित होते हैं। या फिर
एक ही नाटक में विभिन्न भाषा के शब्द होते हैं। कुल मिलाकर दृश्य को ही भाषा माना
जाता है और आलेख को दृश्यतमक आलेख या विजुअल टेक्स्ट।
उत्तर-आधुनिकता से
प्रभावित नाटकों के विषय भी उसकी स्थितियों से मेल खाते है। इन नाटकों में बाजारवाद,
पूंजीवाद, साम्राज्यवाद,
मानसिक रुग्णता, वर्ग संघर्ष,
जातीय अस्मिता, सांप्रदायिकता,
विकृत यौनिकता, समलैंगिकता,
तृष्णा, हताशा और सम्बन्धों के
विखंडन और इसके प्रभाव आदि का ही चित्रण होता
है।
भाषा और पाठ की
उपेक्षा और दृश्यात्मकता को प्राथमिकता देने के कारण उत्तर-आधुनिक नाटकों में विन्यास
के मायने बदल जाते हैं। निर्देशक सम्पूर्ण विषय के अनुरूप विन्यास नहीं करके अपनी
सोच, दृष्टिकोण,
अनुभव और वैचारिकता के अनुसार विन्यास करता है। पूरे विन्यास से विखंडन
प्रतिबिम्बित होता रहता है। मंच पर अतार्किक मेटाफर जटिल प्रतीकों के साथ-साथ कटआउट,
पोस्टर्स, मल्टीमीडिया,
क्राफ्ट, इलेस्ट्रेसन आर्ट,
एल सी डी प्रॉजेक्टर, विसंगत प्रकाश,
मानवीय ध्वनि आदि का प्रयोग किया जाता है। इन सब चीजों की कोई निश्चित सीमा नहीं
होती है। कई नाटकों में पॅलिथीन-ग्लोब,
सर्कस का टेंट, ठेला,
रेहड़ी आदि का प्रयोग भी देखा गया है। कभी बिना आलेख के,
कभी मौन, कभी चीख़ों के साथ ऐसे
नाटकों में अभिनय किया गया है। कभी-कभी अभिनेताओं को लेकर भी प्रयोग किया जाता है।
मँजे हुए कलाकारों के बदले अंध-अपंग गूंगे-बहरे,
बौने, वेश्याएँ,
मजदूर, मानसिक रोगी,
मतिमंद, रिमांड होम के बच्चे आदि से
भी अभिनय करते देखे गए हैं। अभिनेता कभी बिना आलेख के,
कभी मौन, कभी चीख़ों के साथ,
कभी ताल-लय के साथ, कभी
वस्त्र-आभूषण के साथ तो कभी नंगे देह भी अभिनय करते देखे जाते हैं। इन सब बातों का
निर्धारक निर्देशक होता है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि उत्तर-आधुनिक नाटकों
में क्या, कैसा होगा यह कहना मुश्किल
होता है लेकिन जो भी होता है उससे संबन्धित प्रश्नों का उत्तर निर्देशक पास होता
है। सबसे महत्वपूर्ण एक बात जो सब नाटकों में समान होती है वह है,
प्रतिरोध का स्वर। इन नाटकों को देखते समय और कुछ समझ मे आए न आए लेकिन प्रतिरोध
स्पष्ट समझ में आता है।
उत्तर-आधुनिक नाटकों
मे अतार्किक सामाग्री और स्थितियों के माध्यम से अपनी बात कहना और प्रतिरोध
प्रतिध्वनित करने की विशेषता को अब ‘न्यू
लैंग्वेज थिएटर’ की संज्ञा दी जाने लगी है।
भले ही यह लैंग्वेज़ सबको समझ में आए या नहीं आए लेकिन समकालीन रंगकर्मियों के
प्रयोगों मे इसका चलन बढ़ता जा रहा है।
उत्तर-आधुनिकता से
प्रभावित नाटक विदेशों में बहुत पहले से होने लगा। पिछले दशक से भारत में भी इसका
प्रभाव दिखाई पड़ने लगा। लेकिन एनएसडी द्वारा प्रायोजित भारतीय रंग महोत्सव
(भारांगम-2012) में प्रस्तुत कई नाटकों की शृंखला में इसका प्रभाव समग्रता से देखा
गया। अब देश में ऐसे नाटकों का प्रदर्शन जोड़ पकड़ता जा रहा है।
संदर्भ :
1. हिन्दी
आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली।
लेखक – डॉ॰ अमरनाथ।
2. पाश्चात्य
काव्यशास्त्र के सिद्धान्त। लेखक – डॉ॰ मैथिलीप्रसाद
भारद्वाज।
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