बुधवार, 22 अप्रैल 2015

नाट्य प्रस्तुति में आनेवाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएं



नाट्य प्रस्तुति एक जटिल सामूहिक कार्य है. इसके स्वरुप का सामूहिक और जटिल होना ही प्रस्तुति प्रक्रिया के तीनों भागों (preproduction, production & postproduction) में विभिन्न स्तरों पर समस्याएँ उत्पन्न करती है. ऐसी समस्याओं में से कुछ समस्याएँ हमारी आँखों के सामने स्पष्ट होती हैं तो कुछ परोक्ष भी होती हैं. इन्हें ही क्रमशः प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएँ कहा जाता है. नाट्य प्रस्तुति के दौरान आनेवाली प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष समस्याएँ निम्नलिखित हैं.
प्रत्यक्ष समस्याएँ :

  • वित्त की व्यवस्था : संसार का कोई भी महत्वपूर्ण कार्य वित्त के आभाव में नहीं हो सकता है. नाट्य प्रस्तुति भी इसका अपवाद नहीं है. इसके लिए भी सबसे पहले धन की ही जरूरत होती है. धन की व्यवस्था कोई आसन काम नहीं हैं. व्यावसायिक नाट्य संस्थाएं टिकट बेचकर धन कमाती है. लेकिन शौकिया नाट्य संस्थाओं के लिए धन की व्यवस्था सर्वप्रमुख समस्या होती है. उन्हें सरकारी ग्रांट के भरोसे ही रहना पड़ता है. किसी भी नाट्य संस्था को जल्दी-जल्दी सरकारी ग्रांट तो मिल नहीं सकता है. इसलिए वे लम्बे समय अंतराल के बाद ही प्रदर्शन कर पाती है. सरकार से मिला ग्रांट इतना पर्याप्त नहीं होता है कि उससे कोई बहुत बड़ी और भव्य  प्रस्तुति करने के बाद कलाकारों को भी उचित पारश्रमिक दिया जा सके. इस कारण से शौकिया नाट्य संस्थाएं ना तो बेहद अच्छी प्रस्तुति दे पाती है और न ही कलाकारों को उचित पारश्रमिक दे पाती है. आज व्यवसायिक नाट्य संस्थाओं की भी स्थिति अच्छी नहीं है. देश भर की कुछ चुनिंदा संस्थाओं को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश संस्थाएं अर्थाभाव से जूझ  रही है. इन सब कारणों से कलाकार नाटक का रूख न करके फिल्मों की ओर जाते हैं. या फिर नाटक को फिल्मों की तरफ जानेवाली सीढ़ी की तरह इस्तेमाल करते है. यह सारी स्थिति नाटक के भविष्य के लिए शुभ नहीं है और इसका कारण अर्थाभाव ही है
  • प्रशिक्षित कलाकारों का आभाव : नाट्य प्रस्तुति के लिए प्रशिक्षित कलाकारों का आभाव बहुत बड़ी समस्या है. रोजगार की अनिश्चितता के कारण लोग इस क्षेत्र में प्रशिक्षण के लिए कम ही आते हैं. आज भी अधिकांश लोग शौकिया ही नाटक करते हैं और इसके लिए प्रशिक्षण आवश्यक नहीं समझते है. वैसे लोग ही विधिवत प्रशिक्षण लेना चाहते हैं जिन्हें इस क्षेत्र में कैरियर बनाना होता है. उनमें से अधिकांश सिनेमा की तरफ ही बढ़ाना चाहते हैं. देश में कुछ प्रशिक्षण संस्थान तो खुले हैं लेकिन उपरोक्त कारणों से उनमें से निकले प्रशिक्षित कलाकारों की संख्यां इतनी अधिक नहीं है कि उनकी उपलब्धता सर्वत्र हो. हम स्पष्टतः यह देखते हैं कि प्रशिक्षित कलाकारों के आभाव में बहुत कम ही उम्दा प्रस्तुति हो पाती है. अतः प्रशिक्षित कलाकारों का आभाव नाट्य प्रस्तुति के लिए प्रत्यक्ष समस्या है.
  • पूर्वाभ्यास के लिए स्थान : आज भी पूरे देश में अधिकांश जगहों पर, अधिकांश संस्थाओं के पास अपना प्रेक्षागृह नहीं है. उनका दफ्तर भी किराये के मकानों में ही चलता है. अर्थाभाव के कारण वे किराये पर कितना जगह ले पाते हैं इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है. पूरे देश में फैली इप्टा जैसी संस्था का भी यही हाल है. ऐसी स्थिति में नाटक के लिए पूर्वाभ्यास की समस्या बहुत गंभीर हो जाती है. संस्थाएं कई तरह के उपाय करके छोटी जगहों पर या सार्वजानिक जगहों पर पूर्वाभ्यास कराती हैं. प्रदर्शन के दिन वे प्रेक्षागृह का इस्तेमाल कर पाती है क्योंकि इसके लिए उसे बड़ी राशि भुगतान करना पड़ता है. छोटी जगहों पर पूर्वाभ्यास करने और प्रस्तुति बड़े मंच पर होने से समूहन आदि की गलतियाँ सामान्य बात हो जाती है. इस प्रकार प्रस्तुति की गुणवत्ता प्रभावित होती है.  

  • नेपथ्य के कलाकारों की कुशलता : नाट्य प्रस्तुति के दौरान जो कलाकार मंच पर होते हैं उससे थोडा भी कम महत्वपूर्ण नहीं होते हैं नेपथ्य के कलाकार. नाटक के केंद्रीय व्यक्ति निर्देशक से लेकर सेट, लाइट और म्यूजिक डिज़ाइनर के अतिरिक्त सम्बंधित संचालक तक नेपथ्य के कलाकार हैं. ये सभी मिलकर प्रस्तुति को सफल बनाते है. सामान्यतः लोगों की यह प्रवृति होती है कि वे मंच पर ही दिखना चाहते हैं. कम ही लोग नेपथ्य के कार्य सीखना चाहते हैं. इसलिए हमेशा से अभिनेताओं की अपेक्षा नेपथ्य के कलाकारों की संख्यां कम ही रही है. पहले तो नेपथ्य के कलाकारों की कम संख्यां, और फिर उनमें कार्य-कुशलता का आभाव, बेहद गंभीर समस्या उत्त्पन्न कर देती है.    
  • जनसंपर्क और प्रचार-प्रसार : प्रदर्शनकारी कलाओं की प्रस्तुति स्वान्तः सुखाय नहीं बल्कि दर्शकों के लिए होती है. लम्बे समय के परिश्रम के बावजूद प्रस्तुति को देखने पर्याप्त दर्शक नहीं आ पायें तो इस स्थिति में प्रस्तुति की सफलाता संदिग्ध हो जाती है क्योंकि कलाकार हतोत्साहित हो जाते हैं. प्रस्तुति देखने पर्याप्त दर्शक आएं इसके लिए यह आवश्यक होता है कि ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक प्रस्तुति की जानकारी पहुंचाई जाए और उसकी विशेषताओं का उल्लेख किया जाए. इसके लिए जनसंपर्क और मीडिया के सहारे की जरूरत होती है. प्रस्तुति के बाद उसकी सम्यक समीक्षा उसके पुनरावृति की बारंबारता निर्धारित करती है. सभी संस्थाएं मजबूत जनसंपर्क कायम नहीं कर पाती हैं. अर्थाभाव के कारण बढ़िया प्रचार-प्रसार भी नहीं कर पाती है. आधुनिक मीडिया नाटकों के तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देती है. छोटे जगहों पर आज भी नाटकों को मीडिया कवरेज नहीं मिल पता है. इसलिए कई महत्वपूर्ण प्रदर्शनों की तरफ लोगों का ध्यान जाता ही नहीं है. अतः जनसंपर्क और समुचित प्रचार-प्रसार का आभाव भी नाट्य प्रदर्शन की सफलता में समस्या उत्तपन्न करती है.
अप्रत्यक्ष समस्याएँ :
  • समय की पाबंदी का आभाव : नाट्य प्रस्तुति, कला की ऐसी विधा है जिसमें अनुशासन की नितांत आवश्यकता होती है. समय की पाबंदी अनुशासन का महत्वपूर्ण घटक होता है. लेकिन ऐसा देखा जाता है कि नाटक के अधिकांश कलाकारों में समय की पाबंदी का आभाव की बुरी आदत होती है. अगर प्रस्तुति समूह में कोई कलाकार समय का पाबंद नहीं होता है तो पूर्वाभ्यास के समय उसके साथी कलाकार मानसिक तौर पर बिक्षुब्ध होते हैं. ऐसी स्थिति अगर लगातार बरक़रार रहे तो प्रस्तुति की गुणवत्ता निश्चय ही प्रभावित होती है. सिर्फ पूर्वाभ्यास ही नहीं हर स्तर पर, प्रस्तुति से जुड़े हर व्यक्ति के समय का पाबंद हुए बिना अच्छी प्रस्तुति कतई संभव नहीं है. इसे अप्रत्यक्ष समस्या इसलिए कहा जाता है क्योंकि किसी समूह के सभी कलाकार एक ही साथ समय का दुरूपयोग करनेवाले नहीं होते हैं. इसलिए प्रस्तुति तो संभव हो जाती है लेकिन उसकी उत्कृष्ठता कम हो संदिग्ध जाती है.
  • आपसी तालमेल : किसी भी नाट्य समूह के कलाकारों या अन्य सदस्यों बीच वैमनस्यता की स्थिति स्वभावतः ही रंगकर्म के शर्तों के विपरीत होती है. तो इस स्थिति में अच्छी प्रस्तुति कैसे संभव हो सकती है? नाटक साधारण कार्य नहीं बल्कि सृजनात्मक कार्य है जिसके लिए स्वस्थ तन के अतिरिक्त प्रसन्न मन की भी आवश्यकता होती है. समूह में तालमेल का आभाव सदस्यों के मन की प्रसन्नता को ख़त्म कर देता है. फिर नाट्यकर्म निपटाने जैसी स्थिति में पहुँच जाता है और इस स्थिति में सफल प्रस्तुति बहुत कम ही हो पाती है.
  • जनभावना और दर्शकों की रुचि : जब हम किसी नाटक की प्रस्तुति का विचार करते हैं तो हमारे सामने सबसे पहला प्रश्न होता है, क्या हमने जो आलेख चुना है वह जनभावना के अनुकूल है? क्या इससे कोई विवाद या दंगा फसाद भी होगा? बेशक विषय पूर्णतः सत्य हो फिर भी. भारत के सामाजिक ढांचे में यह प्रश्न और महत्वपूर्ण हो जाता है. व्यवसायिक संस्थाओं को तो हमेशा यह ध्यान रखना होता है कि क्या दर्शक मिल पाएंगे? ज्यादा दर्शक मिलें, इसलिए उन्हें हमेशा मनोरंजकता का ध्यान रखना होता है. इन  कारणों से संस्थाएं सक्षम होकर भी अच्छी और ज्वलंत मुद्दे पर आधारित नाटक नहीं प्रस्तुत कर पाती है. जनभावना के कारण, प्रस्तुति वैसी नहीं होती है जैसी होनी चाहिए. उसमें महत्वपूर्ण प्रश्नों और नग्न सत्य को नहीं दिखाया जाता है. यह स्थिति समाज के लिए अच्छी नहीं मानी जा सकती है. इसमें नाटक सामाजिक परिवर्तन के मूल उद्येश्य से च्युत हो जाता है.     
  •  आपदा प्रबंधन की समस्या : आपदा प्रबंधन के समुचित उपाय किये बिना नाट्य प्रदर्शन में हमेशा छोटी-बड़ी दुर्घटना की आशंका बनी रहती है. संभावित आपदा के लिए हर ढंग से निश्चिन्त हुए बिना प्रस्तुति करने में पूरी संस्था हमेशा आशंकित और डरी हुई रहती है. आशंका और डर के साए में अच्छी प्रस्तुति संभव नहीं हो पाती है. अतः यह भी एक बड़ी अप्रत्यक्ष समस्या है.
  • उचित सरकारी संरक्षण : पहली बात, रंगकर्म के मूल में विद्रोह होता है और विद्रोह को कभी सत्ता का प्रश्रय नहीं मिलता है. दूसरी बात, रंगकर्म सभ्यता की बहुत बड़ी आवश्यकता है लेकिन किसी एक मनुष्य के लिए मूलभूत आवश्यकता, रोटी, कपड़ा और मकान, जैसी आवश्यकता नहीं है. इसलिए इसे जन सामान्य से ज्यादा सरकारी संरक्षण की आवश्यकता होती है. दोनों स्थितियां विरोधाभासी है. इसलिए रंगकर्म हमेशा संकटों से जूझता रहता है.     
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त समुचित सुरक्षा-व्यवस्था का आभाव, कभी-कभी कानूनी प्रावधान और विभिन्न संस्थाओं की आंतरिक प्रतिस्पर्धा आदि भी नाट्य प्रस्तुति के लिए अप्रत्यक्ष समस्याएं होती हैं.
  
    सन्दर्भ : पूरे सत्र के दौरान इस विषय और उपविषयों से सम्बंधित कक्षा व्याख्यान.  

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