रविवार, 5 अप्रैल 2015

निर्देशन पद्धति – सिद्धान्त एवं व्यवहार



नाट्य प्रस्तुति एक सामूहिक कार्य है जिसमें लगभग सभी कलाओं का समावेश होता है। हम व्यवहार में देखते हैं, अगर कोई कार्य सामूहिक होता है तो उस समूह में एक नेता की आवश्यकता होती है जो उस सामूहिक कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न करवा सके। समूह के सदस्य अलग-अलग पृष्ठभूमि और मानसिक स्तर के होते हैं इसलिए उनके सोचने, कार्य करने का तरीका और एक दूसरे से समंजस्य स्थापित करने का तरीका अलग-अलग होता है। ऐसी स्थिति में एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता होती है जो सारी स्थितियों को नियंत्रित करते हुए समूह को लक्ष्य प्राप्ति की ओर अग्रसर करे। नाट्य प्रस्तुति के लिए बिलकुल यही स्थिति की संभावना सौ प्रतिशत से भी अधिक होती है। इसलिए नाट्य प्रस्तुति करनेवाले समूह में भी एक नेता होता है. जिसे हम निर्देशक कहते हैं।
पश्चिम में निर्देशक की परंपरा शुरु से ही रही है। भारत में नाटक को चाक्षुष यज्ञ तो कहा गया है लेकिन उस यज्ञ के ऋत्विक का उल्लेख नहीं मिलता है। हाँ संस्कृत रंगमंच पर सूत्रधार की उपस्थिति और उसकी जिम्मेदारियों को देखकर हम उसका साम्य निर्देशक से समझते हैं। बेशक नाम कुछ भी हो लेकिन भारत में भी लोकमंच से लेकर शास्त्रीयमंच पर एक ऐसा व्यक्ति रहा है जिसका कार्य निर्देशक जैसा होता था। बहरहाल, आधुनिक समय मे भारतीय रंगमंच पर जो निर्देशक की अवधारणा है, पश्चिम से आई है। वर्तमान में निर्देशक प्रस्तुति प्रक्रिया में केंद्रीय व्यक्ति होता है। नाट्य प्रस्तुति की प्रक्रिया में वह विभिन्न चरणों से गुजरता है। इन चरणों का क्रम ही निर्देशन पद्धति के तौर पर जाना जाता है। निर्देशन पद्धति के विभिन्न चरणों का व्यवस्थित और मानक क्रम ही इसके सिधान्त के रूप में मान्य हैं। लेकिन व्यवहार भिन्न-भिन्न निर्देशकों की योग्यता और अनुभव के अनुसार भिन्न-भिन्न तरह से हो सकते हैं।
नाट्य प्रस्तुति की प्रक्रिया को मूलतः तीन भागों में बांटकर विचार किया जाता है। प्रस्तुति-पूर्व (preproduction), प्रस्तुति (production) और प्रस्तुति-पश्चात (postproduction)। इन तीनों भागों में निर्देशक अपने सहयोगियों की मदद से अपना काम करता है जो क्रमानुसार इस प्रकार है।
प्रस्तुति-पूर्व(preproduction) में :
1)     नाट्यालेख का चयन, पठन और विश्लेषण।
2)     नाटक के बजट का अनुमान।
3)     अभिनेता-अभिनेत्रिओं का चयन।
4)     समूह के साथ आलेख का पठन।
5)     प्रस्तुति की शैली का निर्धारण।
6)     विभिन्न सहयोगीयों, जैसे - लाइट डिज़ाइनर, कॉस्टयूम डिज़ाइनर आदि का चयन।
प्रस्तुति(production) के अंतर्गत आता है :
1)    पूर्वाभ्यास
2)    सेट डिज़ाइनर, लाइट डिज़ाइनर, कॉस्टयूम डिज़ाइनर, साउंड डिज़ाइनर से अपनी परिकल्पना समझाते हुए बातचीत करना। रिहर्सल दिखाना और आवश्यक डिज़ाइन करने का निर्देश देना।
3)    रूप-सज्जक से बातचीत और निर्देश।
4)    प्रस्तुति नियंत्रक के साथ ग्रांड रिहर्सल करवाना।
5)    प्रस्तुति का निरीक्षण।
प्रस्तुति-पश्चात (postproduction) :
इस भाग में निर्देशक प्रस्तुति की समीक्षा करता है और प्रस्तुति में उपुक्त सामाग्री को पुनर्व्यवस्थित करवाता है।
ये सिद्धान्त की बातें थी। अब हम व्यवहार की बातें करते हैं। कई बार ऐसा होता है कि प्रोड्यूसर और डाइरेक्टर दो अलग-अलग व्यक्ति होते हैं, खासकर प्रोफेसनल थिएटर में। ऐसी स्थिति में स्क्रिप्ट और अभिनेता-अभिनेत्री के चयन में निर्देशक को स्वतन्त्रता नहीं रहती है।साधारणतः चयन प्रोड्यूसर के हाथ में होता है और निर्देशक को उसी के अनुसार काम करना होता है। हाँ कुछ विवेकी प्रोड्यूसर निर्देशक से सलाह लेते हैं या उसे ही चयन का अधिकार दे देते है। यह एक आदर्श स्थिति कही जा सकती है। इस स्थिति में या एमेच्योर थिएटर में जहां निर्देशक स्वतंत्र होता है, उसकी ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है क्योंकि प्रस्तुति की सफलता और असफलता का दारोमदार उसी पर समझा जाता है। अतः आलेख और अभिनेताओं के चयन में निर्देशक को समझदार होना चाहिए। आलेख के चयन के लिए निर्देशक को कुछ प्रश्नों का उत्तर स्वयं से पूछना चाहिय। ये प्रश्न हैं, प्रस्तुति कहाँ होगी? कब होगी? किसलिए होगी? और किसके साथ होगी ? इन प्रश्नों के सही उत्तर मिल जाने से प्रस्तुति का स्थान, समय, कारण और सहयोगियों के विषय में जानकारी मिल जाती है। इन बातों के स्पष्ट हो जाने से अच्छा और सटीक आलेख चुनना संभव हो जाता है। प्रदर्शनकारी कलाओं के लिए एक मुहावरा कहा जाता है, ‘सटीक विषय तो आधी सफलता तय। आलेख का चुनाव हो जाने के बाद निर्देशक को चाहिए कि वह आलेख का कई बार अध्ययन करे, उसका विश्लेषण करे। इससे वह आलेख मे छिपी सूक्ष्म बातों को, द्वंद और चरित्रों के मनःस्थिति को प्रभावशाली तरीके से समझ सकेगा। इन बातों को समझे बिना उम्दा प्रस्तुति असंभव होती है। इन बातों को समझकर निर्देशक को प्रस्तुति कि शैली निर्धारित करना चाहिए। इसके बाद आलेख का पठन समूह मे करवाना चाहिए। इस दौरान बिट्वीन द लाइन आदि पर नोट लेना चाहिए।  समूह में एक से अधिक बार पठन के उपरांत ही अभिनेताओं को भूमिका वितरित करना चाहिए। समूह में आलेख के पठन से यह तय करने में आसानी होती है कि कौन अभिनेता किस चरित्र के साथ न्याय कर सकता है। भूमिका के वितरण में किसी भी तरह का दबाव और व्यक्तिगत संबंधो से निरपेक्ष रहना ही निरापद होता है। अन्यथा चरित्र के सापेक्ष अनुपयुक्त अभिनेताओं के चुनाव कि संभावना अधिक हो जाती है। अनुपयुक्त अभिनेताओं के चुनाव का परिणाम आसानी से समझा जा सकता है।
अभिनेताओं के चुनाव के बाद आलेख का एक दो पाठ भूमिकानुसार समूह में ही करवाना चाहिए और इस दौरान निर्देशक को डिक्शन पर काम करना चाहिए। फिर थोड़ा समय देकर अभिनेताओं से उनके संवाद याद करवाना चाहिए। इसके बाद रिहर्सल शुरू करना चाहिए। रिहर्सल के दौरान समूहन कार्य भिन्न-भिन्न निर्देशक अपने अनुभव और सुविधा के अनुसार करते हैं। समूहन होने तक अगर उसकी प्रारम्भिक परिकल्पना में कोई परिवर्तन हुआ हो तो उसे नोट करके नाटक का व्यवस्थित ढांचा तैयार कर लेना चाहिए।  इसके बाद लाइट डिज़ाइनर और सेट डिज़ाइनर को रिहर्सल दिखाकर अपनी जरूरत समझाना चाहिए और डिज़ाइन के लिए आवश्यक निर्देश देना चाहिए। प्रॉपर्टि सहायक को प्रॉपर्टि जमा करने का निर्देश और कॉस्टयूम इंचार्ज को कॉस्टयूम कि व्यवस्था करने का निर्देश देना चाहिए। थोड़े दिन रिहर्सल के बाद साउंड डिज़ाइनर से साउंड डिज़ाइन करवा लेना चाहिए। अंततः जरूरत अनुसार फ़ाइनल रिहर्सल(रन-थ्रू) करवाकर लाइट, साउंड कॉस्टयूम और संभव हो तो सेट के साथ ग्रांड रिहर्सल करवाना चाहिए। फ़ाइनल रिहर्सल से प्रस्तुति नियंत्रक को साथ रखना अनिवार्य होता है। अब बारी आती है प्रस्तुति की। प्रस्तुति के दिन निर्देशक को तानावमुक्त रहकर प्रस्तुति देखना चाहिए। लेकिन ऐसा कम ही हो पता है। और अगर निर्देशक स्वयं प्रस्तुति नियंत्रक हो तब तो असंभव ही है। प्रस्तुति के अगले दिन समूह के साथ बैठकर प्रस्तुति की समीक्षा करनी चाहिए। समीक्षा भविष्य में प्रस्तुति के दुहराव में होनेवाली त्रुटियों की कमी में सहायक होती है। समीक्षा के दौरान प्रस्तुति की अच्छाइओं का श्रेय पूरे समूह को देना चाहिए और गलतियों पर बिना विवादी हुए विचार करना चाहिए।
निर्देशन के व्यवहारिक पक्ष को प्रभावित करनेवाली अन्य बातें होती है, निर्देशक के ज्ञान का स्तर, सीमाओं को समझने की क्षमता, मानव मानोविज्ञान की समझ, विवादों को सुलझाने और सामंजस्य बैठाने की क्षमता, उत्साह और कम संसाधन में अधिक परिणाम देने का नजरिया आदि।
जब निर्देशक ही प्रोड्यूसर होता है तो बजट और मंच की व्यवस्था, प्रशासन से सुरक्षा की मांग, अतिथियों को आमंत्रित करना और प्रचार-प्रसार का कार्य की रूप-रेखा भी उसे ही तैयार करना पड़ता है।
निष्कर्षतः हम कह सकते है कि नाट्य निर्देशन का काम बहुत ही जटिल होता है। इसके लिए प्रयाप्त ज्ञान और रचनात्मक सोच के साथ-साथ व्यवहार कुशलता की भी आवश्यकता होती है।




संदर्भ :
1॰ नाट्यप्रस्तुति एक परिचय       लेखक – रमेश राजहंस।
२॰ कक्षा-व्याख्यान                डॉ॰ विधु खरे दास।
३॰ कक्षा-व्याख्यान                हरीश इथापे।
४॰ कक्षा-व्याख्यान                प्रवीण कुमार गुंजन।



 


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