आधुनिक पश्चिमी चित्रकला की शुरुआत विन्सेन्ट वॉन
गॉग, पॉल सिजैन, पॉल गॉगुइन, जॉर्जेस श्योरा और हेनरी
डी टूलूज लॉट्रेक जैसे ऐतिहासिक चित्रकारों ने की. इन सभी ने आधुनिक कला के विकास
में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. 20वीं सदी
की शुरुआत में हेनरी मैटिस और कई युवा कलाकारों, जिनमें पूर्व-घनवादी
जॉर्जेस ब्रैक्यू, आंद्रे डेरैन, रॉल डफी और मौरिस डी व्लामिंक शामिल थे, इनके जीवंत बहु-रंगी, भावनात्मक परिदृश्य और
आकार से संवलित चित्रकला जिसे आलोचकों ने फॉविज्म का नाम दिया, ने महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई . लेकिन इन सब के बीच बीसवीं सदी का आरंभ एक ऐसे चित्रकार के आगमन से
होता है जिसने चित्रकला के नए सौंदर्शस्त्रीय प्रतिमान स्थापित किए. वह चित्रकार
थे पाब्लो पिकासो. अवध नारायण कहते हैं कि ‘20वीं सदी के
सौंदर्यशास्त्र का आरंभ ही पिकासो से होता है.’ (कला दर्शन : अवध नारायण)
पाब्लो पिकासो का जन्म स्पेन के मलागा
शहर में 1881 ई. में हुआ. चित्रकला का हुनर पिकासो को अपने पिता से मिला. उनके
पिता चित्रकला के अध्यापक थे. इसलिए कला की प्रारंभिक शिक्षा उन्हें अपने पिता से
मिली. पिकासो
की कला प्रतिभा से प्रभावित होकर उनके पिता ने अपना ब्रश 14 वर्ष की आयु में ही
उन्हें सौंप दिया और खुद चित्रकारी छोड़ दी. पिकासो ने इसे हथियार की तरह इस्तेमाल
किया और फिर कला के क्षेत्र में पीछे मुड़ कर नहीं देखा. इस तरह के अद्वितीय
प्रोत्साहन के वावजूद चित्रकला के क्षेत्र में पिकासो ने अपने पिता से अलग रास्ता
चुना. फिर भी पिता का प्रभाव पिकासो पर था. वह स्वयं लिखते हैं है कि “मैं जब-जब पुरुष का चित्र
बनाता हूँ, तब-तब मुझे पिता कि याद आती है. पुरुष अर्थात डॉन ज़ोजे ... यह
समीकरण जैसे मेरे दिमाग में पक्का बन बैठा है, मैं जिस पुरुष की रेखाकृति
बनाता हूँ, उन सब में बहुत कुछ उन्हीं की रेखा आ जाती है”. शुरूआती दौर में पिकासो
का चहेता मॉडल कबूतर था. जिसको लेकर उन्होंने आरंभ में कई आकृतियाँ बनाई.
चित्रकला के क्षेत्र में पिकासो का सबसे
मत्वपूर्ण कार्य यह है कि उसने चीजों को देखने का ढंग ही बदल दिया. ‘दम्वाज़ेल’ पिकासो की ऐसी कलाकृति है
जिसने परंपरागत मानव शरीर की कुलीनता व यथार्थ दर्शन जैसे मूल्यों को आघात
पहुंचाया. स्टाइन ने लिखा भी कि “19वीं सदी का जो यथार्थ था, वह 20वीं सदी का नहीं हो
सकता. चित्रकला के क्षेत्र में अकेले पिकासो ने इस बात का आकलन किया है . मातिस
वगैरह की आंखें 20वीं सदी की हैं,जबकि उनकी दृष्टि अभी भी 19वीं सदी की हैं . पिकासो इस
मायने में अकेला है. उसका संघर्ष भयानक है ..... उसकी सहायता के लिए कोई नहीं आता, न भूतकाल न वर्तमान. वह
समय से आगे नहीं है, वह अपना यथार्थ जी रहा है.” (पिकासो जीवनी: माधुरी
पुरंदरे, पृ. 89)
पिकासो की चित्रकला में पेरिस का अहम योगदान
है. पेरिस उस समय कला का केंद्र था. हर कलाकार का मन पेरिस में ही रमता था. 1900
के आस-पास पिकासो भी कुछ समय के लिए पेरिस गए. अपने पेरिस प्रवास में वह कई
कलाकारों से मिले और उनकी कला में महत्वपूर्ण बदलाव आया. पेरिस में ही पिकासो ने
नील युग और गुलाबी युग की शुरुआत की. नीले कालखंड में उनका एक सूत्र वाक्य था कि “दुख से चिंतन का जन्म होता
है और वेदना जीवन की सतह है”. इस काल में उसके चित्रों
में नीले रंग ही दिखाई देते थे इसलिए इसे नील कालखंड कहा गया. उसने नीले रंग से यथार्थ
व करुणा को अभिव्यक्त किया. रात्रि की नीलिमा, दिन का नीलापन, आकाश का नीलापन, चेहरे की बेचैनी का नीलापन, इन सब को उन्होंने विविध
आयामों में चित्रित किया. पिकासो ने नीले रंग में क्यों चित्र बनाए इसका उत्तर
किसी के पास नहीं था लेकिन एक बार स्वयं पिकासो ने कहा “कज़ागमास अब इस दुनिया में
नहीं रहा”. जिसका अर्थ है कि यह नीलिमा उसकी वेदना की नीलिमा थी. नीला
काल खंड खत्म होने के बाद गुलाबी युग की शुरुआत होती है जिसका पहला चित्र था ‘द एक्टर’. लेकिन इन दोनों कालखंडों
के चित्रों में कोई समानता नहीं थी. नीला कालखंड किसी स्तर तक कठोर और निर्मम था
वहीं गुलाबी युग में चित्र चमक उठे थे. इस युग में करुणा के विषय भिखारी, कंगाल, यतीम बालक, लिजलिजे बूढ़े आदि कम होने
लगे. उनकी जगह सर्कस कलाकार, उनके खेल, उनके विचित्र कपड़े, उनके परिवार, भांड, मसखरे
आदि विषयों ने ले लिए. यह दौर कला के लिए उत्कृष्ट दौर था. वर्ष 1906 में उन्होंने अपनी
सुप्रसिद्ध कलाकृति ‘एविगनन की
महिलाएं’
बनानी शुरू की. उन्होंने इस चित्र को लगभग एक वर्ष में पूरा किया.
कला के इतिहास में पुनर्जागरण काल के बाद
चित्रकला का तात्पर्य यथार्थ के वास्तविक प्रतिबिंब से लिया जाने लगा. किसी
ऐतिहासिक घटना का कलात्मक, आलंकारिक चित्रांकन अथवा धार्मिक या पौराणिक मिथिकों पर
चित्रनिर्मिति आदि बड़े पैमाने पर हो रहा था. 19वीं सदी के मध्य में चित्रकला का
रुझान किसी दृश्य की छाया की तरह प्रतिबिंबात्मक चित्र बनाने की ओर रहा. चित्र एक
ऐसा झरोखा बन गया था, जिसमें से देखने पर वस्तुएँ, व्यक्ति और दृश्य इस तरह
दिखाई देने लगे थे जैसे रंगमंच पर अवतरित हो रहे हों. इस तरह की चित्रकला पर
पिकासो ने सोच-विचार किया और वह इस तथ्य पर पहुंचे कि हमारी आँखों के सामने जो दृश्य
मौजूद है, उसे देखने में समर्थ होते हुए भी उसे पुनः कैनवास पर हू-ब-हू
क्यों उतारा जाए? और वैसे भी कोई चित्रकार अपने चित्र में हू-ब-हू वैसा ही
प्रतिबिंब नहीं उतार सकता. पिकासो की इसी सोच से 1909 ई. में क्यूबिज़्म का जन्म
हुआ. क्यूबिज़्म का उदगम किसी वस्तु के प्रतिबिंब की तरह मूर्ति बनाने की कल्पना के
विरुद्ध, विद्रोह से हुआ. अपनी भावना, अपना विचार और अपनी संवेदना
को अधिकाधिक तीव्रता से व्यक्त करना ही वक़्त की मांग थी. कला की हर विधा में मंथन
चल रहा था और अब आकृतिबंध, रंग-रेखा, प्रकाश, अवकाश, पृष्ठभाग की पीठिका, उपयोग की वस्तुएं, उनका प्रतीक और
वस्तुस्थिति से प्रकट अर्थ आदि पहले की तरह नहीं रहे थे.
इस आंदोलन की शुरुआत ‘नीग्रो कला’ से हुई. इसने कला के
क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया. इसमें कला के परंपरागत ढांचे को तोड़ा गया
और चीज़ों को नए संदर्भों में विश्लेषित किया गया. कला के इतिहास में खासकर 18वीं
और 19वीं सदी में जो कुछ रचा गया, उसका अगला पायदान क्यूबिज़्म ही था. पिकासो की जीवनी में
माधुरी पुरंदरे क्यूबिज़्म के बारे में लिखती हैं कि “वैचारिक जगत में आइंस्टाइन
और फ्रयाड के सिद्धांत की जितनी महत्ता है, पाश्चात कला-क्षेत्र में
क्यूबिज़्म भी उतना ही महत्वपूर्ण है”. लेकिन क्यूबिज़्म के तहत जो कुछ हुआ वह
इतना सघन और समय से आगे था कि कला का पूरी तौर पर कायापलट ही हो गया. कतिपय
समीक्षकों की यह मान्यता है कि 15वीं सदी से प्रस्थापित कला की परंपरा को
क्यूबिज़्म ने ध्वस्त कर दिया. इसका यह अर्थ नहीं है कि पिकासो या अन्य क्यूबिस्ट
चित्रकार ने परंपरा से इंकार किया हो. इन लोगों ने सिर्फ इतना किया कि परंपरा को
समझे, परखे बिना उसे ज्यों का त्यों नहीं अपनाया.
उत्कृष्टता के मायने में पिकासो की चित्रकला 1907 -1913 के बीच चरम पर थी जब वे
घनवाद के प्रभाव में थे. घनवादी प्रभाव में मिली लोकप्रियता इतनी व्यापक हुई कि
बाद के वर्षों में घनवाद के प्रभाव से मुक्त होने और कलात्मक उत्कृष्टता के आभाव
के वावजूद उनके चित्र बहुत मंहगे बिकते थे. सिर्फ एक चित्र बेचकर ही एक बंगला
खरीदा जा सकता था. एक समय ऐसा भी था जब वे सिर्फ हस्ताक्षर करके पैसा कमा सकते थे.
हालाँकि तब कला बाजार में इस लूट के कारण अमेरिकी और यूरोपीय समाज में दूसरे तरह
का विकास भी था. पर पिकासो की लोकप्रियता निर्विवाद थी. सच तो यह है कि कला की
दुनिया और प्रचार के साधनों ने उन्हें ईश्वर का दर्जा दे दिया था.
घनवादी प्रभाव के बाद उनकी कला में फिर वैसी
उत्कृष्टता 1932-42 दशक में आ सकी. पर द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पिकासो की कला
में फिर से ह्रास होने लगा. विषयों के आभाव के कारण वे पुराने समय की चर्चित
कलाकृतियों का अनुकरण करने लगे पर वे इन कलाकृतियों में न तो कुछ नया जोड़ पाए और न
ही नई व्यख्या कर पाए. इन कमियों के वावजूद भी वे जीवन के अंतिम वर्ष (1973) तक
चित्रकारी करते रहे और प्रतिष्ठा पाते रहे. दरअसल पिकासो ने इतनी अधिक और इतने तरह
के चित्र बनाये हैं कि उन्हें महान कलाकार मानने के लिए विवश होना पड़ता है. क्युबिज्म
का श्रेय तो उन्हें है ही बल्कि बाद के वर्षों में भी ‘गेर्निका’ जैसे अद्भुत
चित्र का भी गौरव प्राप्त है. वास्तव में, पिकासो चित्रकला के इतिहास में प्रतिभा
और सौभाग्य का संयोग वाले अद्वितीय कलाकार थे.
पिकासो के प्रसिद्ध चित्र हैं – मूल द ला गालेत, (प्रथम चित्र ) द डार्फ
वूमेन, द लाइफ, द एक्टर, सस्ता भोजन , दम्वाज़ेल, (मानव शरीर का विकृत चित्र),
आलिंगन (खड़िया मिट्टी से बना चित्र) आदि.
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