सम्पूर्ण विश्व में
कला का विकास मनुष्य के विकास के साथ ही जुड़ा हुआ है। मानसिक विचारों की अभिव्यक्ति की प्रवृति, मनुष्य की आदिम प्रवृति
है। आदिमकाल से ही मनुष्य, उपलब्ध साधनों को लेकर अनगढ़ या सुगढ़ जैसी भी हो, अभिव्यक्ति की ही है। जब मनुष्य
आदिम था तब वह गुफाओं की दीवारों पर बेतरतीब आकृतिओं को उकेर कर अपने विचारों को
अभिव्यक्त करता था। मानव द्वार उन बेतरतीब आकृतियों के उकेरे जाने के साथ ही चित्रकला
की शुरुआत हुई। इसे दूसरे ढंग से हम ऐसे भी कह सकते हैं कि जब मनुष्य आवास में
रहने लगा तब से ही चित्रकला का बीजारोपन हुआ।
प्रारम्भ में चित्रों
का आधार गुफाओं की दीवार हुआ करता था लेकिन बाद में यह आधार व्यापक हो गया।
प्रागैतिहासिक मनुष्य वर्तनों हड्डियों और चट्टानों पर चित्रकारी करने लगा। भारत
में विंध्य पर्वत शृंखला,
मध्य प्रदेश के सिंघनपुर,
छत्तीसगढ़ के सरगुजा, नर्मदा उपात्यका के
अतिरिक्त तमिलनाडु, आंध्र क्षेत्र,
उड़ीसा, छोटा नागपुर आदि स्थानों पर
आदिम मानवों द्वारा की गई चित्रकारी के साक्ष्य मिले हैं। इन स्थानों में से कई
स्थानों पर पत्थर और मिट्टी के वर्तनों पर
लाल-पीले रंगों से चित्रित रेंगत हुए कीड़ों,
पशुओं, पक्षियों,
मनुष्यों, सूअरों आदि की आकृतियाँ
मिली हैं। इस क्रम में सरगुजा अंचल के जोगीमारा से प्राप्त चित्र खुदी चट्टानें
विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
इन पुरावशेषों की
गवेषणा करके पुरातत्वविज्ञों ने यह कहा है कि आज ही की भांति प्रागैतिहासिक मानव
भी सौंदर्योपासक था। अपने सौन्दर्य प्रेम के कारण ही वह अमूर्त भावों को मूर्त रूप
देने की ओर अग्रसर हुआ। किस प्रकार वह अपने जीवन की परिघटना और संस्मरणों को
रेखाओं में उतारा हैं यह हमें हड़प्पा और मोहनजोदड़ो से प्राप्त कला-सामाग्री को
देखकर पता चलता है।
सिंधुघाटी की सभ्यता
से प्राप्त कलाकृतियों से यह पता चलता है कि भारतीय कलाकारों ने बाह्य सौन्दर्य से
प्रेरित होकर नहीं बल्कि आध्यात्मिक उपदानों को लेकर कला की विराट स्वरूप की
उद्भावना की थी। यद्यपि सिंधुघाटी से प्राप्त कलाकृतियों के द्वारा हड़प्पा तथा
मोहनजोदड़ो के शासकों, नागरिकों,
विद्वानों, कलाकारों और कारीगरों
के बारे में कुछ पता नहीं चलता है तथापि उन अवशेषों से तत्कालीन भारत के रहन-सहन,
रीति-रिवाज, ज्ञान-विज्ञान,
और कला-कौशल के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी मिलती है। हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की
खुदाई से प्राप्त मिट्टी के चित्रित वर्तनों को देखकर यह सहज ही अनुमान लगाया जा
सकता है कि तब चित्रकला उन्नत हो गयी थी।
वैदिक युग का सामाजिक
जीवन बड़ा सरल भावुक और प्रकृति का अनुरागी था। उस युग में नृत्य,
गीत, वाद्य,
कविता और कला-कौशल आदि अनेक मनोरंजन के साधन विद्यमान थे। फिर भी वेदों से
चित्रकला की विकसित स्थिति का पता नहीं चलता है। लेकिन उसके प्रतीकात्मक संदर्भों
से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक युग का समाज वर्ण सौंदर्य और चित्रात्मकता के प्रति
अभिरुचि रखता था। ऋग्वेद की प्राचीनतम मंत्र-संहिता की एक ऋचा (१।१।४५) से यह पता
चलता है कि उस समय चमड़े पर चित्र अंकित करने का प्रचलन था। ऋग्वेद के ही कुछ अन्य मंत्रों
में यज्ञशाला के चौखटों पर द्वार-देवियों के चित्र अंकित किए जाने का उल्लेख मिलता
है। इसी वेद में सूर्य पुत्री सूर्या से संबन्धित मंत्रों में वर्ण सौंदर्य और
चित्रात्मकता के सुरुचिपूर्ण संकेत मिलते हैं। ऋग्वेद के वर्णनों से यह स्पष्ट रूप
से पता चलता है कि तब कला की व्यापक भावभूमि का निर्माण हो चुका था।
वैदिक युग में
चित्रकला के लिए जो भी यत्न हुए हों लेकिन वास्तविकता यह है कि भारतीय कला की भावी परंपरा कुछ दूसरे ही ढंग से आगे बढ़ी।
उपनिषदों में कलात्मक पुरुष परमेश्वर का वर्णन हुआ है लेकिन वहाँ भी उसका लक्ष्य
आध्यात्मिक उन्नति है। वास्तव में सामाजिक एवं भौतिक दृष्टि से कला की उपयोगिता का
निरूपण पौराणिक युग से हुआ। पौराणिक युग में ही कला को विभिन्न रूपों में नए ढंग
से सँवारने के विचार और प्रयास किए गए। भारतीय कला एवं चित्रकला के उन्नत स्वरूप
का काव्यात्मक वर्णन वस्तुतः पुराणों में ही मिलता है।
सम्पूर्ण प्राचीन
भारतीय साहित्य में पुराण ही ऐसे ग्रंथ हैं,
जिनमें स्वतंत्र रूप और विस्तार से कलाओं,
विशेष कर स्थापत्य और चित्रकला के विभिन्न अंगों पर प्रकाश डाला गया है। कला का
सृजन यद्यपि पुराणों के पहले से ही होता आ रहा था और उस पर कुछ ग्रंथ भी लिखे जा
चुके थे। लेकिन शास्त्रीय दृष्टि से कला के विभिन्न प्राविधिक प्रश्नों पर नए
दृष्टिकोण से पहले-पहल पौराणिक युग में ही विचार किया गया।
‘विष्णुधर्मोत्तर
पुराण’ का ‘चित्रसूत्र’
इस विषय की प्रौढ़ रचना है। ‘चित्रसूत्र’
नौ अध्यायों में विभक्त है जिनके नाम हैं: 1.आयाममान वर्णन,
2. प्रमाण वर्णन, 3. समान्यमान वर्णन,
4. प्रतिमान लक्षण वर्णन, 5.
क्षयवृद्धि 6. रंगव्यतिकर, 7.
वर्तना, 8. रूप निर्माण,
9. शृंगारादि भावकथन।
इन नौ अध्यायों में
चित्रकला के विभिन्न अंग-उपांगों पर विस्तार से प्रकाश डाला गया है।‘चित्रसूत्र’
में यह बताया गया है कि चित्र में छंद और रस कि उपयोगिता का आधार क्या है। चित्र
में जो आनंदमयता है वही छंद है। हमारे अंदर असीम करुणा,
दया, ममता और पीड़ा में यह छंद ही
तरंगायित है। छंद की परिणति रस में है। रस ही चित्र का सर्वस्व है।
‘चित्रसूत्र’
में वर्ण विधान पर भी मौलिक विचार करते हुए मुख्य पाँच वर्णों और उनके संयोग से
बनने वाले सैकड़ों भिन्न-भिन्न वर्णों का विस्तार से विवेचन किया गया है। इसके
अतिरिक्त चित्र में प्रमाण,
आकृतियाँ, चित्रों की श्रेणियाँ,
आकृति-चित्रण,
प्रकृति-चित्रण और चित्रों के गुण दोषों पर गंभीरता से विचार किया गया है।
चित्रकला की जिन
प्राविधिक बातों का वर्णन ‘चित्रसूत्र’
में
है वह अपने आप में अद्वितीय है और उसे
देखकर भारत के अतीतकालीन गौरव का सहज ही स्मरण हो आता है। अपनी महत्ता के कारण ही
यह ‘चित्रसूत्र’
परवर्ती विभिन्न कला ग्रन्थों का उपजीव्य बना है।
इतिहास के विभिन्न
स्रोतों से यह जानकारी मिलती है कि मौर्य युग में चित्रकला समुन्नत हो चुकी थी।
चित्र न केवल भवनों के दीवारों पर बल्कि कपड़ों पर भी बनाए जाने लगे थे। तक्षशिला
के वृहद विद्या-निकेतन में चित्रकला को अध्ययन का एक अंग समझकर स्वतंत्र रूप से
पढ़ाया जाने लगा था। इसी युग से बौद्ध युग की शुरुआत हुई।
सम्राट अशोक ने बौद्ध
संस्कृति, बौद्ध साहित्य और बौद्ध कला
के प्रचार के लिए पूरे भारत के अतिरिक्त एशिया के विभिन्न देशों में अपने दूत
भेजे। भारत के विभिन्न अंचलों में अशोक द्वारा निर्मित स्तूपों एवं चैतों में उसके
कलप्रेम की थाती आज भी देखने को मिलती है। अशोक के द्वारा कला के लिए यह
महत्वपूर्ण देन उल्लेखनीय है कि उसपर राजसी प्रतिबंध समाप्त हुआ और वह सामान्य
जनता के मनोरंजन का विषय बनी।
अशोक के बाद दक्षिण
के शुंग-सातवाहन राजाओं ने भी साहित्य और कला की उन्नति के लिए महत्वपूर्ण कार्य
किए। अजंता के शुंग युगीन गुफाओं से तत्कालीन चित्रकला की समृद्धि का पता चलता है।
शुंगकाल में चित्रकला की प्रदर्शनियाँ आयोजित होने का भी उल्लेख मिलता है।
भारत में यूनानियों
के प्रभाव से गांधार शैली का उन्नयन हुआ। कुषाण राजा कनिष्क के समय तक बौद्ध धर्म
का ‘महायान संप्रदाय’
की प्रतिष्ठा हो जाने से गांधार शैली विशुद्ध भारतीय रूप में अभिव्यक्त होने लगी।
गांधार शैली में बुद्धविग्रह के अंकन का प्रयास सबसे पहले कनिष्क के समय में ही
हुआ और उसका व्यापक प्रभाव लगभग सम्पूर्ण एशिया पर पड़ा।
भारतीय इतिहास में
गुप्तकाल को स्वर्ण काल कहा जाता है। उस काल में शासन व्यवस्था से लेकर
ज्ञान-विज्ञान, साहित्य और कला,
सभी उत्कर्ष पर था। इसका कारण था,
सभी गुप्त सम्राट साहित्यमर्मज्ञ विद्वतसेवी,
कलाकारों के आश्रयदाता और शिक्षाविद होने के साथ-साथ विभिन्न कलाओं में भी निपुण
थे।
गुप्तकाल की चित्रकला
की उत्कृष्ठता के प्रमाण हैं अजंता,
एलोरा और बाघ की गुफाओं में बने चित्र। गुप्त काल की चित्रशैली का प्रभाव सम्पूर्ण
मध्य एशिया की चित्र शैलियों पर पड़ा है। गुप्तकाल में चित्रकला,
रंग एवं रेखाओं की योजना और सुलेखन की दृष्टि से पर्याप्त उन्नतावस्था में थी। ‘विष्णुधर्मोत्तर
पुराण’ का ‘चित्रसूत्र’
इसी युग की रचना मानी जाती है।
भारतीय चित्रकला के
इतिहास में भित्ति चित्रों का महत्वपूर्ण स्थान है। भारत के लगभग सभी महत्वपूर्ण
राजवंशों ने भित्तिचित्र के निर्माण में योगदान दिया है। इस प्रकार के भित्तिचित्र
अजन्ता, बाघ,
बादामी, सितनवासल,
एलोरा और एलिफेंटा आदि कि गुफाओं में देखने को मिलते हैं। इन गुफाचित्रों का
निर्माण ईसा पूर्व दूसरी शती से लेकर नौवीं शती के बीच हुआ है। अजन्ता के अधिकांश
गुफाचित्र गुप्तकाल में बने हैं। ये गुफा चित्र सम्पूर्ण विश्व में प्राचीन भारतीय
चित्रकला की उत्कृष्टता को मान्यता दिलाते हैं।
भारतीय चित्रकला की
थाती भित्तिचित्र वाले अधिकांश गुफाएँ दक्षिण भारत में स्थित हैं। साहित्य के
साथ-साथ कला के क्षेत्र में भी दक्षिण भारत अग्रणी रहा है । वहाँ के मंदिर और
मूर्तियाँ काला के मायने में अद्वितीय हैं। दक्षिण भारत में चित्रकला की उत्कृष्ट
परंपरा रही है। भारत में गुफाचित्रों के बाद दक्षिण भारत की चित्र शैलियाँ ही
उल्लेखनीय हैं। 10वीं से 15वीं शती ई॰ के बीच दक्षिण भारत में पोथियों में चित्र
बनाने का कार्य हुआ था। दक्षिण भारत के बाद ही उत्तर भारत के बंगाल और बिहार तथा
नेपाल में सचित्र पोथियों के निर्माण का केंद्र बना । बिहार में नालंदा और
विक्रमशिला के विद्या-निकेतनों में सचित्र पोथियों का निर्माण हुआ।
दक्षिण भारत की
चित्रशैली की तीन शाखाएँ थी: द्रविड़,
नागर, और वेसर। द्रविड़ शैलीका
जन्म दक्षिण में ही हुआ और वह वहीं तक सीमित रही जबकि नागर उत्तर भारत में विकसित
होकर दक्षिण में पहुंची। लेकिन दक्षिण भारत में द्रविड़ शैली ही ज्यादा प्रचलित
रही। नागर को ‘आर्याव्रत’
शैली
भी कहा जाता है।
बाद में दक्षिण के
कुछ मुस्लिम शासकों के प्रोत्साहन से ‘हिंदिया’
कला शाखा का उदय हुआ। यह शाखा पूरी तरह से फारसी शाखा से विकसित हुई थी। हिंदिया
कला में फारसी प्रभाव इसकी बाहरी साज-सज्जा में दिखाई पड़ता था जबकि इसका आंतरिक
भाव-विधान पूरी तरह से भारतीयता से प्रभावित था।
दक्षिणी चित्रकला पर
फारसी प्रभाव का कारण यह समझा जाता है कि 13वीं और 14वीं शती के चोल और बीजापुर के
आदिलशाही शासकों का सीधा संबंध फारस से था। उन्होने वहाँ से चित्रकारों को बुलवाकर
अपने रंगमहलों की सज्जा कारवाई थी। लेकिन ठोस रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि
16वीं शती से पहले के दक्षिण भारतीय चित्र बहुत ज्यादा प्राप्त नहीं हुए हैं।
दक्षिण में बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर,
तीन राज्यों में ही चित्रकला का विशेष विकास हुआ था।
भारतीय चित्रकला के
इतिहास में 15वीं शती अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण थी क्योंकि तब विभिन्न नए
विषयों जैसे संगीत, वास्तु
और नृत्य के अतिरिक्त रागमला पर आधारित चित्रों का निर्माण होने लगा था। इन
चित्रों पर अपभ्रंश शैली का प्रभाव समझा जाता है। लेकिन इस सब से अधिक महत्वपूर्ण
है एक विशिष्ट शैली का उदय जिसे ‘राजपूत
शैली’ कहा जाता है।
‘राजपूत
शैली’ की अपनी विशेषता और स्वतंत्र
अस्तित्व है। इस शैली का विकास राजस्थान में हुआ लेकिन इसका व्यापक प्रभाव मध्य
प्रदेश, उत्तर प्रदेश पंजाब और
हिमाचल के विस्तृत क्षेत्रों पर पड़ा। यह शैली विस्तृत भारतीय भूभाग के जनजीवन को
कई शती तक चित्र सृजन की प्रेरणा देकर भारतीय चित्रकला को अक्षुण्ण रखने और समृद्ध
बनाने में योगदान दिया है।
राजस्थान के विभिन्न
नगरों जैसे- मेवाड़,
मारवाड़, कोटा,
बूंदी, बीकानेर,
किशनगढ़, जयपुर,
ग्वालियर आदि नगरों की कलाओं में थोड़ी बहुत भिन्नता और विशेषता के कारण ‘राजपूत
शैली’ की कई उपशैलियाँ हुईं जिनका नाम समबन्धित नगरों के नाम पर पड़ा। इन
सभी उपशैलियों का अपना इतिहास है। इन इतिहासों का सम्मिलित स्वरूप ही ‘राजपूत
शैली’ का इतिहास है।
‘राजपूत
शैली’ के चित्र 15वीं
से 17वीं शती के बीच बने।
राजदरबार में बने बड़े चित्रों को मुगलों के आक्रमण में या तो नष्ट कर दिया गया या लूट
लिया गया। बच गए, सामंतों,
जागीरदारों और दूसरे लोगों द्वारा बनवाए गए छोटे चित्र। ये चित्र भी इसलिए बच गए
कि उन्हें बेच दिया गया था। इन बचे हुए चित्रों की भी संख्या बहुत अधिक है। इन्हीं
चित्रों को देखकर राजपूत शैली की विशेषताओं को समझा जाता है।
भारत में जब मुगलों
का शासन स्थापित हो गया तो ईरानी शैली और भारतीय शैली (राजपूत शैली) के समिश्रण से
एक नई चित्र शैली का जन्म हुआ। इस शैली को ‘मुगल
शैली’ कहा गया। यह शैली
भारतीय चित्रकला की प्रतिनिधि शैलियों में से एक है। चूँकि यह शैली मुगलों के कारण
विकसित हुई थी इसलिए यह ‘मुगल
शैली’ के नाम से जानी जाती है।
‘मुगल
शैली’ का आधार भारतीय न होकर
ईरानी था। इस शैली के चित्रों में हरमों का रूप सौंदर्य,
विलासपूर्ण जीवन, बादशाहों के
आमोद-प्रमोद आदि का चित्रण हुआ है। इसलिए इस शैली में राजवैभव और यथार्थवाद की
प्रधानता है। मुगल शैली के चित्रों की एक विशेषता यह भी है कि उनमे से अधिकांश में
चित्रकारों के नाम लिखे हैं।
‘मुग़ल
शैली’ का जन्म बाबर के शासनकाल
में हुआ। बाबर से लेकर हुमायूँ,
अकबर, जहांगीर और शाहजहाँ के
शासनकाल तक वह फलती-फूलती रही। उन सभी बादशाहों के दरबार में एक-से-एक कुशल
चित्रकार थे। जहांगीर का चित्रप्रेम तो जग विख्यात है। वह स्वयं कुशल चित्रकार था।
शाहजहाँ, चित्र से ज्यादा
वास्तुप्रेमी था फिर भी उसने चित्रकला को प्रश्रय दिया लेकिन औरंगजेब के हाथ
सल्तनत की बागडोर आते ही मुगल शैली सदा के लिए समाप्त हो गई।
औरंगजेब के कारण मुगल
दरबार से निराश्रित हिन्दू चित्रकारों ने प्रांतीय राजवाड़ों का आश्रय लिया। जहां
उन्होने एक नई शैली को जन्म दिया। वह शैली भारतीय स्थानिक,पारंपरिक,
राजपूत और मुगल शैलियों से प्रभावित थी। विभिन्न रियासतों में विभिन्न उपशैलियों
का विकास हुआ। लेकिन तब के अधिकांश चित्रकारों ने पहाड़ी रियासतों का आश्रय प्राप्त
किया था इसलिए वहाँ विकसित शैलियों को सम्मिलित रूप से ‘पहाड़ी
शैली’ कहा गया।
पहाड़ी शैली का जन्म
17वीं शती के मध्य में ही हो चुका था लेकिन उसे लोकप्रियता मिली 18वीं शती के अंत और 19वीं शती के प्रारम्भ में। उस
शैली की निर्माण-भूमि रही है हिमाचल का विस्तृत भू-भाग,
जैसे- जम्मू, गढ़वाल,
पठानकोट, कुल्लू,
चंबा, गुलेर,
कांगड़ा, बसौली मंडी आदि। वहाँ
विकसित उपशैलियों का नाम उनके स्थान से जुड़ा है। उन में से प्रमुख हैं : कांगड़ा
शैली, बसौली शैली और गढ़वाल शैली।
वर्तमान में, सभी पहाड़ी उपशैलियों को
इन्ही तीन प्रमुख उपशैलियों के अंतर्गत समझा जाता है।
भारत में औपनिवेशिक सत्ता
की स्थापना के बाद भारतियों का परिचय यूरोपीय चित्रकला से हुआ। उन्नीसवीं शती के
अंत में भारतीय चित्रकला पर यूरोपीय प्रभाव दिखाई पड़ने लगा और भारतीय शैलियाँ
समाप्त होने लगी। भारतीय चित्रकला पर यूरोपीय प्रभाव से जो शैली विकसित हुई उसे ‘आधुनिक
चित्रशैली’ कहा जाने लगा। आधुनिक चित्रशैली
के प्रवर्तन में बंगला स्कूल का बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।
आधुनिक शैली के
भारतीय चित्रकारों में पहला नाम मदुरा के चित्रकार ‘अलाग्री
नायडू’ और दूसरा नाम त्रावणकोर के ‘राजा
रवि वर्मा’ का आता है। आधुनिक शैली के
चित्रकारों में नंदलाल बसु,
अमृता प्रीतम आदि से लेकर तैयब मेहता और एम॰एफ॰
हुसैन जैसे चित्रकारों की एक लंबी परंपरा रही है। इन चित्रकारों ने आधुनिक शैली के
अंदर अपनी निजी शैली को विकसित करके भारतीय चित्रकला की धारा को समृद्ध किया है।
भारत में चित्रकला की
शास्त्रीय परंपरा के अतिरिक्त विभिन्न प्रदेशों में लोक शैलियों की भी समृद्ध परंपरा रही है।
अधिकांश लोक शैलियों का प्रारम्भिक स्वरूप धार्मिक और आनुष्ठानिक ही था। बाद में
इनका जुड़ाव सामाजिक सरोकारों से हुआ। अब लोक शैलियों की पहुंच विदेशों तक हो गई है
और फैशन जगत भी इनका क़द्रदान बन गया है। वर्तमान में इन लोक शैलियों में प्रमुख
हैं : बिहार के मिथिला क्षेत्र की ‘मधुबनी
चित्रकारी’, झारखण्ड की ‘सोहराई
चित्रकारी’, मध्य प्रदेश की ‘पिथौरा’,
उड़ीसा की ‘पत्ता चित्रकारी’,
महाराष्ट्र की ‘वर्ली चित्रकारी’,
केरला की ‘कालमेजुथु’
आदि।
भरत में प्रागैतिहासिक
काल से बहनेवाली चित्रकला की अजस्र धारा आज भी निर्बाध बह रही है। इसके वर्तमान स्वरूप को देखकर यह निःसंकोच कहा
जा सकता है कि अनंतकाल तक बहती भी रहेगी। भारतीय चित्रकला का स्वरूप चाहे
शास्त्रीय हो या लोक, वह सत्य,
शिव और सुंदर की भावना से ओत-प्रोत है। इस बात का समर्थन,
भारतीय चित्रकला की उत्पत्ति से संबन्धित दैवी आख्यान भी करता है।
वह दैवी आख्यान,
गांधार देश के राजा नग्नजित का ‘चित्रलक्षण’
नामक ग्रंथ में मिलता है। ‘चित्रलक्षण’
तिब्बत की ‘तंजूर ग्रंथमाला’
में
प्रकाशित हुआ था। इस ग्रंथ के प्रथम अध्याय में यह वर्णन है कि प्राचीनकाल में
भयजित नामक किसी धर्मपरायण राजा के राज्य में अकस्मात एक ब्राह्मण पुत्र की मृत्यु
हो गयी। ब्राह्मण पुत्र को जीवित करने के लिए ब्रह्मा के निर्देश पर राजा ने उसका चित्र अंकित किया। ब्रह्मा ने चित्र में
प्राण का संचार करके उस ब्राह्मण पुत्र को जीवित कर दिया और फिर राजा से कहा,
‘तुमने नग्न प्रेतों को जीत लिया है इसलिए तुम्हारा नाम ‘नग्नजित’
हुआ। तुम्हारे द्वारा बनाया गया यह चित्र सृष्टि का प्रथम चित्र है। तुम इस कल्याणकारी
विद्या के प्रथम आचार्य कहे जाओगे। चित्रविद्या से संसार का इसी प्रकार कल्याण
होता रहेगा और इस हेतु तुम मर्त्यलोक में सदा पूजित रहोगे।’
इसी प्रकार ‘चित्रलक्षण’
के दूसरे अध्याय में विश्वकर्मा-नग्नजित संवाद में यह बताया गया है कि संसार की
कल्याण के लिए ब्रह्मा की प्रेरणा से देवताओं ने अपने-अपने अस्त्र-शस्त्र और
मुद्राओं सहित अपनी-अपनी प्रतिकृतियाँ बनाकर ब्रह्मा को दीं,
जिनको ब्रह्मा ने पूजन-अर्चन हेतु मर्त्यलोक में भेज दिया।
उपरोक्त आख्यान की
सत्यता का आधार जो हो लेकिन इतना निश्चित है कि चित्रविद्या की उत्पत्ति
मानव-कल्याण हेतु और भावनात्मक सौंदर्य के कारण हुई। इस संदर्भ में ‘भारतीय
चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास’
नामक पुस्तक के लेखक ‘वाचस्पति गैरोला’
का
कहना है, भारतीय चित्रकला का आधार
सत्यमय, परिणाम शिवमय और स्वरूप
सौंदर्यमय है। भारतीय चित्रकला पर समग्रता से विचार करने पर हमें यह कथन पूर्णतः
उचित लगता है।
सुन्दरम् 🙏🌹
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