आधुनिक पश्चिमी चित्रकला में निम्नलिखित आंदोलन महत्वपूर्ण माने जाते हैं।
उत्तर प्रभाववाद :
1874 में
प्रभाववाद की शुरुआत हुई थी. क्लोद मोने जैसे कलाकार के नया रास्ता दिखाया था.
कलाकार अपने साजोसामान के साथ खुले में जाकर प्रकृति व जीवन के विभिन्न रूपों को
नए तकनीक व नई रंग योजना के साथ प्रकाश-छाया के बारीक प्रभावों को चित्रों में
अंकित करने लगे थे. प्रभाववाद के इन्हीं विशेषताओं के साथ कुछ नया प्रयोग करते हुए
वान गाग, तूलोज लात्रेक, बोन्नार, रूसो जैसे नए जमात के कलाकारों ने 1884 में प्रदर्शनियां
लगाई, यहीं से उत्तर प्रभाववाद की शुरुआत मानी जाती है. 1888 ई. से इतिहासकारों ने
चित्रकला में आधुनिक कला माना है तब उत्तर प्रभाववादी प्रवृति चित्रकला के केंद्र
में थी इसलिए इसे आधुनिककाल का पहला कला आन्दोलन माना जाता है.
वान गाग ने प्रभाववादी विशेषताओं
के आलोक में नए तरह के विषय चित्रित किए. प्रकृति कि बहुत ही आत्मीय पहचान रखते
हुए भी उन्होंने अपने चित्रों में गरीबों के दुख-तकलीफों को स्थान दिया. प्याज
जैसी छोटी चीजों को उन्होंने कैनवास पर जगह दी. आलू खाते हुए लोगों की पेंटिंग
उनकी उत्कृष्ट रचना मानी जाती है. सूर्य से गहरे जुड़कर भी उन्होंने धार्मिक चित्र
नही बनाए. दुर्भाग्यवश 1888 उनकी विक्षिप्तता शुरू हुई जिससे उबकर भरी आर्थिक तंगी
की स्थिति में उन्होंने 1890 में खुद को गोली मार ली. एक महान कलाकार का त्रासद
अंत हो गया.
प्रभाववाद के प्रतिनिधि कलाकार
सेजां भी इसी काल में प्रभाववाद के प्रभामंडल से निकले और वस्तुओं को ज्यामितीय
संरचना के आधार पर देखने-परखने लगे. उनकी इसी दृष्टि का आधार लेकर बाद में पिकासो,
बराक, ग्रीसो आदि ने घनवाद को स्थापित किया.
रूसो ने जादुई यथार्वाद से
सपने जैसी दुनियाँ रचाने लगे जिसे उनके परवर्ती घनवादियों, अभिव्यंजनावादियों और
अतियथार्थवादियों सभी ने स्वीकारा. मातीस का नाम फाववाद[1]
से जुड़ा. ऐसे ही अन्य उल्लेखनीय परिवर्तनों के कारण उत्तर प्रभाववाद आधुनिक काल
में परिवर्तनों का अग्रदूत कला आन्दोलन
माना जाता है.
अभिव्यंजनावाद :
अभिव्यंजनावाद एक ऐसा कला
आन्दोलन था जिसमें विचार की अपेक्षा भावनाओं पर अधिक जोड़ दिया जाता था. कलाकार
अक्सर ऐसे विषय चुनते थे जो प्रेक्षकों में तीव्र भावनाएं जागते थे. जैसे –
मृत्यु, दुःख, वेदना यंत्रणा आदि. ऐसे विषय के कारण चित्रों में रेखाओं के बदले
रंगों का महत्व बढ़ गया. प्रभाववाद का विरोध करने वाले ऐसी प्रवृति वाली आधुनिक
कलाओं के लिए जर्मन समीक्षक वाल्डेन ने ‘अभिव्यंजनावाद’ नाम का उपयोग किया था. बाद
में यह नाम वैसी कलाओं के लिए रूढ़ हो गया जिसमें कलाकार यथार्थ की तुलना में
यथार्थ के प्रति निजी प्रतिक्रिया ज्यादा देते थे और भावनाएं, संवेग, रंग-रूपाकार
आदि के माध्यम से एक अलग तरह का यथार्थ रचते थे.
नार्वे के कलाकार एडवर्ड
मुंच ने 1989 में लिखा था “हमें पढ़ते हुए आदमियों और बुनाई करती हुई औरतों की
तस्वीरें बनानी बंद कर देनी चाहिए. हमें उन जीवित लोगों के चित्र बनाने हैं जो
साँस लेते हैं, दुखी हैं, भावुक हैं, प्रेम करते हैं”. 1894 में उन्होंने एक
पेंटिंग बनाई – चीख. अकेली यही पेंटिंग अभिव्यंजनावाद की सभी विशेषताओं को बता
देती है.
मानव सभ्यताओं की तकलीफों
से जुड़ा होने के कारण अभिव्यंजनावाद का गहरा सम्बन्ध साम्यवाद से भी रहा. इसके
माध्यम से कला में आंतरिक उद्वेगों और भवतिरेकों की विस्फोटक अभिव्यक्ति आदमी को
बेहतर जीवन का सपना दिखाती थी.
अभिव्यंजनावाद से जुड़े
प्रमुख कलाकार थे, बेल्जियम के जेम्स एन्सर, वियना के आस्कर कोकोश्का; जर्मनी में
अभिव्यन्जनावादियों की टोलियाँ थी जिनमें प्रमुख कलाकार थे : नेल्डे, मस्क
बेकमन्न, मार्क शागाल, गेओर्ग ग्रास्त्स आदि. द्वितीय विश्वयुद्ध ने अभिव्यंजनावाद
को बहुत क्षति पहुँचाया. कहते हैं नाजियों ने अभिव्यंजनावाद की ह्त्या कर दी.
कला में अभिव्यंजनावादी
मिजाज कोई नई चीज नहीं थी बल्कि सभी संस्कृतियों और युगों में इसे खोजा और पहचाना
जा सकता है. यह एक निश्चित समय में शुरू और ख़त्म नहीं हो गया फिर भी आधुनिक कला के
इतिहास में अभिव्यंजनावाद की एक खास पहचान बनी.
घनवाद :
1907 में
पाबलो पिकासो ने अपनी प्रसिद्ध कृति ‘च्लेस डिमॉयसेलेस डि एविग्नॉनज्’ का प्रदर्शन
पेरिस में किया जिससे क्यूबिस्ट आंदोलन की आधारशिला रखी गई. यह शैली इस मायने में
अनूठी थी कि इसने पारंपरिक प्राकृतिकवादी चित्रण और सौंदर्यात्मक मूल्यों के खिलाफ
पूरी तरह से विद्रोह कर दिया. इस शैली में सेजाँ की प्रेरणानुसार वस्तुओं को गोले,
बेलनों और शंकुओं के संयोजन से गठित होने की दृष्टि से देखा जाता है. पिकासो के
अतिरिक्त इसे स्थापित करनेवाले कलाकारों में बराक और जुआन ग्रीस को माना जाना है.
अमूर्त कला :
आधुनिक काल के कला इतिहास
में 1910 का विशेष महत्त्व है. क्योंकि यह माना जाता है कि इसी साल अमूर्त कला का
जन्म हुआ. यह अलग बात है कि अमूर्त कला तब से है जब से मनुष्य ने गुफ़ाओं में चित्र
बनाना शुरू किया. शब्दकोश की परिभाषा के मुताबिक़ एक शुद्ध अमूर्त चित्र वह है जो
प्राकृतिक जीवन से पूरी तरह से स्वतंत्र होता है, भले ही उसकी जगह प्रकृति में हो.
इस तरह की कलाकृति को एक स्वतंत्र वस्तु समझा जाता है और उसमें किसी विषय को खोजना
व्यर्थ होता है. किसी भी विचारों की खोज से परे रेखाओं और रंग-रूपाकारों का संयोजन
उसी तरह सुख देता है जो संगीत सुनने से मिलाता है.
कान्दिस्की और मोंद्रियाँ
ने अमूर्त कला को एक कलाआंदोलन में बदल दिया. दरअसल प्रभावादियों से लेकर घनवादियों
तक ने अमूर्त कला के लिए रास्ता बनाया. इस आंदोलन के एक प्रमुख नाम कासीमीर मलेविच
ने अमुर्तन को एक अलग विस्तार दिया. और जब नएपन के आभाव में उन्होंने पेंटिंग बंद
किया तो यह कला आंदोलन तीव्रता से पतन की ओर उन्मुख हो गया.
दादावाद :
प्रथम विश्व युद्ध के
तुरंत बाद पश्चिम में, खासकर मुख्य यूरोप में, कलाकर्मियों की बुर्जुआ समाज के
प्रति नफरत बढ़ गयी. कलाकृतिओं के दाम बढ़ने शुरू हुए तो कलाकर्मिओं ने ‘अकला’ को
जन्म देकर इस समाज के प्रति गुस्सा दिखाया. इसी क्रम में स्थापित घनावाद को
उन्होंने ‘गोबर का गिरजाघर’ कहा. पहले से स्थापित कला के सभी प्रतिमानों को तोड़ते
हुए 1920 में जब जर्मनी के कोलोन में
शौचाल से जुड़ी जगह पर एक प्रदर्शनी लगाई गई जिसमे दर्शकों को कुल्हाड़ी दिया गया
ताकि वे कला को तोड़-फोड़ सकें. दर्शकों ने ऐसा ही किया और इसी परिघटना से दादावाद पूर्णतः
प्रकाश में आया.
दादावादिओं का जन्म
भविष्यवादियों की मदद से हुआ इतिहासकार दादावाद के बीज 1913 से ही खोजना शुरू कर
देते है. वस्तुतः दुशां, पिकाबिया, और मान रे में उन्हीं दिनों दादावादी
प्रवित्तियां देखी गयी थी. 1917 में दादावादी कलादीर्घा खोली गयी. जिसमें
कलाप्रेमी दर्शक को चित्रों की महत्ता पर भाषण सुनने के बजाय गाली-गलौज तक सुनने पड़े.
वहाँ बुर्जुआ कला का हर तरह से माखौल उड़ाया जाता था. पेंटिंग के नाम पर दीवार पर
बेतरतीब सफेदी पोती जाती थी और मौका पड़ने पर दर्शक भी सफेदी से नहीं बचते थे.
दादावाद के इस नकारावादी, निहलिस्ट,
अराजकतावादी, निषेधी मिजाज ने बाद में 20 वीं शताब्दी के अनेक महत्वपूर्ण कलाकारों
पर बुनियादी असर डाला जिससे अतियथार्तवाद का रास्ता तैयार हुआ. इसलिए दादावाद का
ऐतिहासिक महत्त्व है.
अतियथार्थवाद :
अपने नाम से यथार्थवाद के
विकसित रूप का भ्रम उत्त्पन्न उत्त्पन्न करनेवाला अतियथार्थवाद, यथार्थवाद से
पूर्णतःभिन्न कला आन्दोलन है. इसकी जड़ें दादावाद से जुड़ती है. 1922 में दादावाद का
पतन हुआ और 1924 में फ़्रांसिसी कवि आंद्रे ब्रेटन ने अतियथार्थवाद को जन्म दिया.
इस कला आन्दोलन में यह माना जाता है कि सामने जो दिखाई दे रहा है वह यथार्थ नहीं
होता है बल्कि यथार्थ उसके परे होता है. कला माध्यमों से उसी आंतरिक यथार्थ को
ढूँढने की कोशिश की जाती है जो विश्रिंखल और असंगत होता होता है. इसलिए इस आन्दोलन
से प्रभावित कला में विसंगत उन्मुक्त कल्पना और और स्वचालित रचना प्रक्रिया की
प्रधानता होती है. चीजों को सामान्य सन्दर्भों और अर्थों से मुक्त कर दिया जाता
है.
सिगमंड फ़्राईड के विचारों
ने अतियथार्थवादियों को काफी प्रभावित किया. अवचेतन में कलाकर्मियों कि दिलचस्पी
बढ़ गयी. मानसिकता का बाहरी हिस्सा आईसबर्ग की तरह समझा गया जो पानी के बाहर कम और
अन्दर बहुत अधिक होता है. आंद्रे ब्रेटन ने 1925 में अतियथार्थवाद को साम्यवाद से
जोड़ने का प्रयास किया पर उसे सफलता नहीं मिली. अनेक कलाकारों का वामपंथी रूझान था
पर साम्यवादी पार्टी ने इस आन्दोलन में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.
प्रमुख यथार्थवादी
चित्रकार थे जेयोर्जियो द किरको, साल्वाडोर डाली हुआन मेरो, मक्स अर्न्स्ट आदि.
किरको ने अपने चित्रों में साफ़–सुथरी रेखाओं, ज्यमीतिय रूपों, उजाड़ जगहों, लम्बी
छायाओं के माध्यम से एक जादुई रहस्य की सृष्टि की है. डाली सर्वाधिक लोकप्रिय
यथार्थवादी कलाकार हैं जिनकी पिघली हुई मुलायम घडियां अतियथार्थवाद की पहचान बन
चुकी हैं. मेरो भूख का विभ्रम रचने के लिए जाने जाते हैं तो हुआन के चित्रों में
तितलियाँ ड्रैगन में बदल जाती हैं.
एक कला आन्दोलन के रूप में
अतियथार्थवाद लम्बे समय तक जीवित नहीं रहा पर उसने चित्रकला, मूर्तिशिल्प,
साहित्य, नाटक, फिल्म और संगीत सभी को प्रभावित किया. पर स्थापत्य को प्रभावित
नहीं कर सका. बीसवीं शताब्दी का विज्ञापन जगत अतियथार्थवादी कला का भरपूर उपयोग
किया. वर्त्तमान समय में भी यदा-कदा इस कला का प्रयोग अख़बारों, दुकानों आदि की
सज्जा में दिखाई पड़ जाता है.
पश्चिमी चित्रकला को
प्रभावित करनेवाले उपरोक्त कला आन्दोलनों के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण कला आन्दोलन
हैं : एक्सन पेंटिंग, पॉप कला, आकृतिमूलक कला, ऑफ़ और काइनेटिक कला, फोटो यथार्थवाद,
ग्रेफेटी शैली आदि. इन आन्दोलनों के प्रभाव में आकर भी अनेकों कलाकारों ने बहुत
अधिक संख्यां में उल्लेखनीय चित्रों की रचना की हैं.
[1]
1905 में कुछ कलाकारों के काम को ‘जंगली
जानवर का पिंजरा’ बताते हुए एक कला समीक्षक ने फाविज्म नाम को जन्म दिया था.
बोहत अच्छा लिखा है।क्या आप इसे डीटेल में लिख सकते है।
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