‘डिजाईन की
परिकल्पना और नाट्य निर्देशन की प्रक्रिया’ पर विचार करने के
क्रम में हम पहले डिजाईन पर विचार करेंगे फिर नाटक के संदर्भ में डिजाईन और उसके
अवयव पर विचार करेंगे, इससे उसकी परिकल्पना और नाट्य
निर्देशन की प्रक्रिया आसानी से स्पष्ट हो जाएगी।
डिजाईन :
साधारणतः कोई वस्तु हमारी आँखों के सामने जिस रूप में आती है उसे हम उसका डिजाईन समझते है। डिजाईन
एक ऐसा शब्द है जिस पर अलग-अलग व्यक्ति का अलग-अलग मत हो सकता है। कोई इसे सिर्फ
बनावट कह सकता है तो कोई इसे वस्तुओं की पहचान स्थापित करने का माध्यम। अगर हम सूक्ष्मता
से विचार करे तो हम पाते हैं कि यह बात आंशिक रूप से ही सत्य है। वास्तव में डिजाईन
की अवधारणा इस से अधिक व्यापक है। वस्तुओं के रूप और सौंदर्य अभिवृद्धि के साथ-साथ
कई बातें भी डिजाईन की परिधि में आते हैं। एक अच्छा डिजाईन वही होता है जिसमें
सौन्दर्य के साथ-साथ सुविधाजनक उपयोगिता, मजबूती आदि गुण
होता है। डिजाईन किसी एक वस्तु का, वस्तुओं के समूह का, या फिर वस्तुओं के समूह के साथ स्थितियों के संयोग का भी होता है।
डिजाईन करते समय डिजाईनर
को कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है।
·
इक्षित आकार ग्रहण करना संभव हो।
·
निर्माण संभव हो
·
प्रयोग संभव हो
·
वितरण संभव हो
·
उपयोगकर्ता और समकालीन पर्यावरण
के अनुकूल हो
·
मात्र सौंदर्यानुभूति प्रदान करने
वाली कृति के रूप में पहचान न हो
·
समयानुकुल रुचि को प्रतिबिम्बित
एवं निर्देशित करने की क्षमता वाला हो।
कोई भी डिजाईन विभिन्न
तत्वों के संयोग से बने होते है। ये तत्व चार प्रकार के होते हैं : अवधारणात्मक (conceptual),
दृशयात्मक (visual), संबंधात्मक (relational), और व्यवहारात्मक (practical)।
ये सभी तत्व मोटे तौर पर दो श्रेणी में बांटे जा सकते है,
वास्तविक और आभासी।
जिस तरह किसी भी कलाकृति का
हमारी आंखो के सामने एक रूपाकृति होता है। उसी तरह दृश्यकला होने के कारण नाटक की
भी एक रूपाकृति होती है जिसका स्वरूप निर्देशक के द्वारा स्थिर किया गया होता है।
नाटक की यह रूपाकृति ही उसका डिजाईन होता है। नाटक पूर्ण मनोयोग से किया जाए, सोच समझ कर, या जैसे-तैसे,
प्रकृतिनुसार उसमे डिजाईन आएगा ही। एक मूल प्रश्न पर विचार करने से नाटक मे डिजाईन
की स्थिति और स्पष्ट हो जाती है। वह मूलप्रश्न है - नाटक क्यों किया जाता है? इसका एक साधारण उत्तर होता है, किसी कथ्य या स्थिति
से दृश्यात्मकत के साथ लोगों को अवगत करने के लिए। सोच के स्तर पर एक दूसरे से
भिन्न होने के कारण भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा एक ही कथ्य एवं स्थितियों को
प्रस्तुत करने का तरीका भिन्न-भिन्न होता है फलतः डिजाईन व्यक्ति सापेक्ष होता है।
इसलिए जब एक ही नाटक को दो अलग–अलग निर्देशक निर्देशित करते है तो दोनों
प्रस्तुतियों में प्रयाप्त फर्क नज़र आता है। सभ्यता में विभिन्न वादों और उसकी
मान्यताओं के चलते डिजाईन की विभिन्न शैलियों का विकास हुआ है। लेकिन एक ही शैली
में भी दो अलग-अलग व्यक्तियों के डिजाईन में स्पष्ट फर्क दिखाई पड़ता ही है। यह
आवश्यक नहीं है, एक नाटक में एक ही शैली के अनुसार डिजाईन
किया जाए। निर्देशक अपनी परिकल्पना के अनुसार विभिन्न शैलियों की विशेषताओं का
प्रयोग करता है। कभी-कभी एक शैली का नाटक बिलकुल दूसरी शैली में डिजाईन करके
प्रस्तुत किया जाता है। प्रख्यात निर्देशक रतन थियम द्वारा कई यथार्थवादी शैली के
नाटकों को मणिपूरी लोक शैली में खेला जाना इसका सबसे सुंदर उदाहरण है। टोटल थिएटर
के डिजाईन की अवधारणा तो पूरी तरह से विभिन्न शैलियों के संयोग पर ही टिका है। वास्तव
में डिजाईन का पूरा मामला निर्देशक की
रचनात्मकता से जुड़ा होता है।
अब हम नाटक में डिजाईन के
कार्य पर विचार करते हैं। नाटक में डिजाईन के कार्य के विषय में अमेरिकी डिजाईनर ‘ली सिमोन्सन’ का कहना है,
“दृश्यकला दृश्याकृतियों एवं स्थान का सृजन है जो अभिनय का अभिन्न अंग है एवं उसके
अर्थ को प्रक्षेपित करती है”। शैल्डन चैनी का कहना है, “दृश्य को मंचीय क्रिया की पूर्ण एवं योग्य पृष्ठभूमि होना चाहिए”। रॉबर्ट एडमंड जोन्स के अनुसार “दृश्य विन्यास को क्रिया का वातावरण
तैयार करना चाहिए”। इन सब विद्वानो के वक्तव्यों और व्यावहार के निरीक्षण से यह
निश्चित होता है कि डिजाईन के निम्नलिखित तीन कार्य होते हैं :
1. नाट्य
क्रिया के स्थल निर्धारण का कार्य
2. नाट्य
क्रिया मे अभिवृद्धि का कार्य
3. नाट्य
क्रिया को अलंकृत करने का कार्य।
उपरोक्त बातों से यह से यह
स्पष्ट हो जाता है कि डिजाईन क्या है, नाटक में इसका
महत्व क्या है और इसके कार्य क्या हैं। अब हम यह विचार करते हैं कि निर्देशक डिजाईन
करता कैसे है।
किसी भी नाट्य प्रस्तुति
के निम्नलिखित अवयव होते है :
·
अभिनेता
·
मंचसज्जा
·
परिधान
·
रूपसज्जा
·
मंच और पात्र सामग्री
·
प्रकाश
·
ध्वनि और संगीत।
निर्देशक नाटक के इन सभी अवयवों
को अलग-अलग इस तरह से व्यवस्थित करता है कि वे प्रस्तुति के दौरान अलग-अलग अलग
होकर भी एक दूसरे के सापेक्षिक और नाट्यनुकूल होते हैं। नाटक के किसी भी दृश्य में
निर्देशक अभिनेता के माध्यम से समूहन करता है। समूहन और मंच सज्जा एक दूसरे के सापेक्षिक होता है; परिधान मंचसज्जा मे प्रयुक्त द्रव्यो, रंगों और
प्रकाश के सापेक्षिक होत है; रूप सज्जा और संगीत प्रकाश के
रंगों और अभिनय के सापेक्षिक होता है। मंच सामाग्री और पात्र सामग्री भी विभिन्न
शैलियों में डिजाईन के नियामक होते हैं। इन सभी अवयवों का एक दूसरे के सापेक्षिक डिजाईन
ही समेकित रूप से नाट्य प्रस्तुति का डिजाईन समझा जाता है।
प्रस्तुति के लिए नाटक का
चयन हो जाने पर निर्देशक उसका अध्ययन और विश्लेषण करता है। इस क्रम मे वह कई बातों
पर विचार करता है। जैसे – नाटक किस तरह का है; प्रस्तावित बजट
कितना है; प्रस्तुति कहाँ होगी और वहाँ मंच किस प्रकार का
होगा; दर्शक किस तरह के होंगे; उसके
अभिनेता और सहयोगी कितने कुशल हैं; संसाधनों के उपलब्ध होने
की संभावना कितनी है आदि। ये सब व्यावहारिक प्रश्न हैं जिसपर विचार करने के बाद
निर्देशक डिजाईन की परिकल्पना करता है। कई बार ऐसा होता है की नाटक के विश्लेषण के
दौरान ही डिजाईन की परिकल्पना आकार लेने लगती है। इस डिजाईन को व्यवहार कुशल निर्देशक
आसानी से साकार कर सकता है लेकिन कम अनुभवी निर्देशकों को इस डिजाईन को साकार करने
में बहुत परेशानी होती है। ऐसे निर्देशकों के लिए पहली स्थिति ही निरापद होती है।
निष्कर्षतः हम कह सकते है कि
डिजाईन प्रस्तुति के शरीर की तरह होता है और अभिनय होती है आत्मा। जिस तरह आत्मा
के लिए शरीर आवश्यक होता है उसी तरह अभिनय के लिए डिजाईन आवश्यक होता है। जिस तरह
आत्मा और शरीर का संयोग एक जीवन को साकार करता है उसी तरह अभिनय और डिजाईन के
संयोग से प्रस्तुति साकार होती है। जीवन का नियंता ईश्वर की तरह ही प्रस्तुति का
नियंता निर्देशक होता है और परिकल्पना होती है उसकी योजना।
संदर्भ :
1. दृश्य
विन्याश लेखक- रवि चतुर्वेदी
2. नाट्य
प्रस्तुति एक परिचय लेखक- रमेश राजहंश
3. कक्षा
व्याख्यान
व्याख्याता : डॉ॰ विधु खरे दास, हरीश इथापे, सौति चक्रवर्ती और प्रवीण कुमार गुंजन।