शुक्रवार, 13 नवंबर 2015

भारतीय चित्रशैलियों की विशेषताएँ



भारत में प्राचीनकाल से लेकर अब तक चित्रकला की विभिन्न शैलियाँ विकसित हुई हैं। कई शैलियाँ ऐसी हैं जिनके अंदर विभिन्न उपशैलियाँ भी हैं। प्रथम दृष्टि में, एक देश में, एक कला की इतनी शैलियाँ-उपशैलियाँ होना आश्चर्यजनक लगता है। लेकिन विस्तृत भारतीय भू-भाग की सांस्कृतिक विविधता और ऐतिहासिक उथल-पुथल की जानकारी होने पर यह कतई आश्चर्यजनक नहीं लगता है। विभिन्न प्रांतीय संस्कृति पर विभिन्न कालखण्डों के प्रभाव के कारण शैलियों का विकास भी हुआ और वे लुप्त भी हुईं । प्रत्येक शैली चाहे वह लोक हो या शास्त्रीय उसका व्यापक प्रभाव जनमानस पर पड़ा है। प्रत्येक शैली की अपनी विशेषता और सौंदर्य है। है इसलिए किसी शैली के लुप्त होने के बाद भी उसका प्रभाव सहजता से समाप्त नहीं हो सका। भारतीय चित्रकला की शैलियों का वर्गीकरण बौद्धकाल से किया गया है। क्योंकि उससे पहले के चित्रों के समुचित साक्ष्य नहीं मिले हैं। जितने चित्र मिलें हैं उनमें एक खास रुचि का निर्धारण संभव नहीं है। बौद्धकाल से लेकर वर्तमान समय तक जो प्रमुख शैलियाँ विकसित हुईं  हैं, वो हैं :
1.     बौद्ध शैली
2.     जैन शैली
3.     गुर्जर शैली
4.     अपभ्रंश शैली
5.     बंगाल शैली
6.     द्राविड़ शैली
7.     राजपूत शैली
8.     मुगल शैली
9.     पहाड़ी शैली
10. आधुनिक युग
11. लोक शैलियाँ
उपरोक्त शैलियों में से राजपूत शैली और पहाड़ी शैली की कई उप शैलियाँ हैं तो आधुनिक युग के अधिकांश चित्रकारों की निजी विशेषताएं एक अलग शैली का ही रूप धारण करती प्रतीत होती है। विभिन्न प्रान्तों में परंपरा से विकसित लोक शैलियों के भी अलग-अलग रूप हैं। प्रत्येक शैली की अलग-अलग विशेषताएँ हैं जिनके कारण वह पहचानी जाती है और उस शैली में बने चित्रों को देखकर अलग-अलग सौंदर्यानुभूति होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इन शैलियों की विशेषताएँ ही इनके द्वारा उद्भावित सौंदर्य के नियामक हैं। शैलियों की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं।
बौद्ध शैली :
भगवान बुद्ध के अनुयायियों में सामान्य वर्ग के अतिरिक्त एक बहुत बड़ा वर्ग राजाओं, धनिकों और व्यापारियों का था। उन लोगों ने भगवान बुद्ध के प्रति प्रेम और उनकी स्मृतियों को सुरक्षित रखने के लिए असंख्य विहारों और कलापूर्ण स्तूपों का निर्माण कराया। इससे वस्तुकाला और मूर्ति कला और बहुत विकसित हो गई। यह गुप्तकाल तक चलता रहा। फिर धीरे-धीरे मूर्तियों का स्थान भित्ति चित्रों ने ले लिया। इस तरह बौद्ध चित्रशैली की शुरुआत हुई जो कालांतर में एशिया के सुदूर भागों तक फैल गई।
बौद्ध चित्रकला का साक्ष्य विभिन्न गुफाचित्रों में मिलता है जिनमें से प्रमुख है अजंता की गुफाएँ। अजंता के अतिरिक्त अन्य गुफाएँ हैं जोगीमारा, बाघ, बादामी और सितनवासल की गुफाएँ। इन गुफाओं के चित्रों को देखकर हम बौद्धशैली के उत्कृष्ट सौन्दर्य से परिचित होते हैं।
बौद्धशैली में बुद्ध के जीवन की विभिन्न परिघटनाओं और कथाओं पर आधारित चित्रों के साथ-साथ कुछ दूसरे प्रकार के चित्र भी बनाए जाते थे। इस आधार पर इस शैली के चित्रों के विषय को तीन भागों में बांटा गया है: आलंकारिक, रूपभैदिक और वर्णनात्मक। पहली श्रेणी के चित्रों में पशुओं-पक्षियों से युक्त पुष्प-लताएँ अलौकिक पशु, राक्षस, किन्नर, नाग, गरुड़, गंधर्व और अप्सरा आदि के चित्र हैं तो दूसरी श्रेणी के चित्रों में बुद्ध, लोकपाल, बोधिसत्व, राजा-रानियाँ, प्रेमी युगल आदि के चित्र माने जाते हैं तो तीसरी श्रेणी में भगवान बुद्ध के जीवन की कथाओं पर आधारित चित्र। अधिकांश चित्र इसी श्रेणी के हैं।
आलंकारिक चित्रों में सौंदर्य की सृष्टि के लिए विभिन्न प्रकार की प्राकृतिक सम्पदा, पशु-पक्षियों और फल-फूलों को चित्रित किया गया है। जैसे - नदियां, पहाड़, जंगल; पशुओं में, हाथी, बैल, लंगूर,बंदर का चित्रण ज्यादा हुआ है। पक्षियों में, मोर, तोता, हंस, कोयल, हारिल तो फलों में आम, अंजीर, अंगूर, सरीफा, नारियल और केला की प्राथमिकता है। फूलों में कमल का प्रयोग ही सर्वत्र हुआ है।
अजंता के चित्रों में भावप्रवणता की विशिष्ट योजना हुई है। करुणा, शांति, उल्लास, भक्ति, विनय, और विकलता की स्पष्टता के कारण तथागत के सभी गुण यथा अहिंसा, मैत्री, करुणा, दया, आदि जीवंत हो उठा है। बुद्ध के अतिरिक्त अन्य पात्रों और वस्तुओं के चित्रों का भी भाव सौंदर्य अनुपम है। यह भावप्रवणता अजंता के चित्रों की आत्मा मानी जाती है।
अजंता के चित्रों में गाँव का शांतिपूर्ण वातावरण से लेकर शहरों का कोलाहल; राजा से लेकर रंक तक को इस प्रकार चित्रित किया गया है कि आँखों के सामने गुप्तयुगीन संस्कृति कि सौम्यता और सार्वभौमिकता स्पष्ट हो उठती है।
अभिनय-मुद्राओं और प्रांजल हस्त-मुद्राओं का प्रदर्शन अजंता के चित्रों की एक अन्य विशेषता है। इन मुद्राओं के साथ मुख की भंगिमा और का नेत्रों  लास्य भी अपूर्व है। इनके साथ गति, स्थिरता, लय सभी मिलकर चित्रों को विशिष्ट बनाते हैं। चित्रों में मुद्राओं का आधार पूरी तरह से शास्त्रीय है।
अजंता के चित्रों में नारी को सर्वथा आदर्श रूप में अभिव्यंजित किया गया है। चित्रों की ये नारी-आकृतियाँ कला की अधिष्ठात्री देवियाँ दिखाई पड़ती है। ऐसी आकृतियो में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों अभिरूचियों का संगम है। ये नारी भारतीय मर्यादा तथा गरिमा के अनुरूप और चित्रों के अपार सौंदर्य का महत्वपूर्ण कारण हैं।
उपरोक्त बातों के अतिरिक्त चित्रों के अद्वितीय सौंदर्य का कारण उसकी चित्रण तकनीक की विशेषता भी है। चित्रों में रेखाओं की शूक्ष्मता और प्रवाहमानता दिखाई पड़ती है। उनमें कहीं भी उलझाव,भारीपन या संकोच नहीं दिखाई पड़ता है। गेरू की वर्तिका से रेखांकन करके रंग भरा गया है। रेखाओं के सौष्ठव से चित्र विशिष्ट उभाड़ पाए हैं।
चित्रों में रेखाओं के साथ ही रंगो की योजना भी अत्युत्तम हैं। बहुत ही निपुणता से गेरुआ, हरा, रामरज, कजली, नीला, पीला, काला और सफेद रंगों का प्रयोग किया गया है। वर्ण-योजन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे गहरे होकर भी भारीपन से मुक्त हैं। जिन पत्थरों पर चित्रकारी की गई है उसके खुरदरे सतह को विशेष प्रकार के शुभ्र लेपन द्वारा तैयार किया गया है।
बौद्ध शैली खासकर अजंता के चित्रों में जब कई चरित्रों के समूह को चित्रित किया गया है तो चित्रकार ने प्रमुख या महत्वपूर्ण पात्र को दिखने के लिए उसे समूह के अन्य पात्र से विशाल चित्रित किया है। इसलिए अधिकांश चित्रों में बुद्ध का चित्र बहुत विशाल है। चित्रण की यह तकनीक भी चित्रों के प्रभावशाली होने के कारक हैं।
जैन शैली:
भारतीय चित्रकला में जैन शैली अपने युग की बहुत ही विख्यात शैली रही है। भारत के विभिन्न अंचलों जैसे – माड़वाड़, अहमदाबाद, मालवा, जौनपुर, अवध, पंजाब, बंगाल और उड़ीसा के क्षेत्रों के अतिरिक्त विदेशों में जैसे – नेपाल, बर्मा, स्याम आदि जगहों पर इस शैली के अस्तित्व का विस्तार हुआ।
जैन शैली के चित्र कपड़े, ताड़पत्र और कागज पर बनाए गए हैं। जैन शैली के चित्रों में ताड़पत्र पर बने चित्रों का बड़ा महत्व है। कागज पर चित्र बनाने के लिए भी उसे पहले ताड़पत्र के आकार में काटा जाता था फिर उसपर सुंदर चित्रण और लेखन किया जाता था। ऐसे चित्र पोथियों में बनाए जाते थे। ताड़पत्र और कागज पर बने चित्रों में स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ते हैं। ताड़पत्र पर स्थानाभाव के कारण रेखाओं में जो तीक्ष्णता है वह कागज पर के चित्रों में थोड़ा शिथिल और मंद पड़ गया है। ऐसा शायद अधिक स्थान की उपलब्धता के कारण हुआ है। जैन शैली के चित्रकारों ने चित्रकला में कई नई विधाओं का संयोग किया जिसके चलते इसकी अलग ही विशेषता दिखाई पड़ती है।
जैन शैली में नेत्रों का विशिष्ट चित्रण किया गया है। यह विशेषता जैन स्थापत्य से आया हुआ लगता है। चित्रों में नेत्र उठे हुए और कानों तक खींचे हुए हैं। भौहों का फैलाव आँखों के समान ही है। आँखों के ऐसे चित्रण के चलते जैन शैली के चित्र दूर से ही पहचाने जाते हैं।
नेत्रों के अतिरिक्त सेब की तरह बाहर की ओर उभड़ी हुई ठोड़ी और उसे गर्वीला बनाने के लिए रेखाओं का संयोजन; तोते की चोंच की तरह अनुपात से अधिक लंबी नासिका आदि भी चित्रों को विशेष बनाते हैं।
रंगों की दृष्टि से भी जैन शैली के चित्रों की अपनी विशेषता है। चित्रों की पृष्ठभूमि में ज़्यादातर लाल रंग का प्रयोग किया गया है लेकिन आवश्यकतानुसार, बदली, श्वेत, पीत और नीले रंगों का भी प्रयोग किया गया है। ताड़पत्र पर अंकित चित्रों में पीले रंगों का प्रयोग ज्यादा दिखता है। इसके लिए स्वर्णराग का भी प्रयोग किया गया है। कुछ चित्रों की पृष्ठभूमि में लाल और पीले रंगों के मिश्रण का भी प्रयोग किया गया है। वस्त्रों पर बने चित्रों में रगों का प्रयोग करते हुए छोटे-छोटे धब्बे अंकित किए गए हैं।
सोने और चाँदी की स्याही से बहुमूल्य चित्रों का निर्माण भी जैन शैली की विशेषता मानी जाती है। जैन शैली के चित्रों में हाशिये की खूबसूरती और उसकी सजावट अद्वितीय है। मुगल शैली के चित्रों के हाशिये पर जैन शैली के हाशिये का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। जैन शैली के चित्रों में धार्मिक संकेतों यथा छत्र, कमल, स्वास्तिक आदि का सुंदर चित्रण भी उसके सौंदर्य में चार चाँद लगा देते हैं।
जैन शैली के चित्र धार्मिक है इसलिए तीर्थंकरों के अतिरिक्त देवीयों आदि के बहुत सौम्य भंगिमाओं का चित्रण हुआ है जो आकर्षक तो लगता है लेकिन उसमें कलात्मक उत्कृष्टता नहीं है। चित्रों में चरित्रों का उज्ज्वल-धूम वर्ण लोकशैली की अल्हड़ता, वस्त्रसज्जा और हस्तमुद्राएं सभी में कलात्मक माधुर्य दिखाई पड़ती है।
वस्त्रसज्जा और आभूषणों का चित्रण भी बहुत सुंदर हुआ है। धोतियों का, स्वर्णकलम से उभाड़े गए बेल-बूटे, दुपट्टे, मुकुटों-मालाओं आदि का सौंदर्य देखने लायक है।
जैन शैली के चित्रों में सच्चे अर्थों में लोककला अभिव्यक्त हुई है। रेखाओं और रंगों के संयोजन से लेकर साज-सज्जा सब में लोकाकला का मोहक रूप दिखाई पड़ता है।
गुर्जर शैली :
इस शैली के विषय में समीक्षकों की राय एक जैसी नहीं है। कुछ लोग इसे अपभ्रंश शैली के अंतर्गत मानते हैं तो कुछ लोग जैन शैली के अंतर्गत। लेकिन कुछ लोग इसकी अपनी विशेषता के कारण पश्चिम भारतीय शैली कहते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस शैली के चित्रों की बहुत अधिक समानता अपभ्रंश शैली और जैन शैली के चित्रों से है लेकिन इसकी अपनी भी खासियत है। अपनी खासियत की वजह से ही इसे अब गुर्जर शैली कहा जाता है। इसका विकास पश्चिम भारत में ग्यारहवीं शताब्दी में हुआ था। इस शैली का आरंभ लघु चित्रों से हुआ है। अधिकांश चित्र पुस्तकों में दृष्टांत स्वरूप ही बने हैं। जैसे – कल्प सूत्रम’, ‘वसंत विलास’, ‘चौर पंचासिका’, ‘गीत गोविंद’, ‘दुर्गा शप्तशती आदि। इस शैली के चित्रों में भी कानों तक विस्फारित आँखें और नुकीली नाक बनाए गए हैं। इसके अतिरिक्त सुवर्णाक्षरी चित्रण भी बेहद सुंदर व महत्वपूर्ण माने जाते हैं। वास्तव में, भित्तिचित्र और राजपूत और मुगल शैली के बीच के चित्रों का इतिहास इन्हीं चित्रों के द्वारा बना है। इस शैली का प्रयाप्त प्रभाव उक्त दोनों शैलियों पर पड़ा है।
अपभ्रंश शैली :
भित्तिचित्र और राजपूत शैली के बीच के कालखंड में गुजरात के अतिरिक्त देश के अन्य भाग यथा माड़वाड़, मालवा, उत्तरप्रदेश के क्षेत्र, बंगाल, उड़ीसा आदि से बड़ी संख्या में चित्र मिले। ऐसे चित्रों की शैली के लिए अपभ्रंश शैली संज्ञा दी गई क्योंकि इन चित्रों में कोई नवीनता नहीं बल्कि प्राचीन शैली की ही थोड़ी बहुत विकृति दिखाई पड़ती है।
इस शैली कि विशेषताएँ है : परवल के आकार कि आँखें; स्त्रियों की आँखों में कान तक गई काजल कि रेखा; नुकीली नाक, दोहरी ठुड्डी, मुड़े हुए हाथ और ऐंठी हुई अंगुलियाँ अप्राकृतिक रूप से उभड़ी हुई छाती; खिलौने की तरह पशु-पक्षियों का अंकन; प्राकृतिक दृश्यों की कमी; एक ही धरातल पर कई दृश्यों का अंकन; बाद के चित्रों में हाथियों का अलंकरण; चटखदार रंगों और सोने का अत्यधिक प्रयोग।
बंगाल की शैली :
बंगाल में आधुनिक काल से पहले मूलतः दो शैली मानी जाती है। पहली पाल शैली और दूसरी गौड़ शैली। पाल शैली के विषय में तिब्बती इतिहासकार लामा तारानाथ का कहना है कि यह 9वीं शताब्दी में देश के पश्चिमी शैली से भिन्न स्वरूप में बंगाल में उदित हुई। बंगाल के पाल राजाओं से संरक्षण प्राप्त होने के कारण इसका यह नाम पड़ा। इसका प्रसार 10वीं से लेकर 13वीं शती तक बंगाल के साथ-साथ बिहार में भी रहा। इस शैली में भी अधिकांश दृष्टांत चित्र ही बने। इस शैली में बौद्ध जातक-कथाओं का चित्रण बहुतायत से हुआ है। इस शैली की विशेषताएँ हैं : सुंदर लिपि, तराशे हुए अक्षर और चमकीली स्याही का प्रयोग।
गौड़ शैली के चित्र 18वीं और 19वीं शती के मध्य बने हैं। इस शैली में मूलतः पटचित्र बने हैं जिसके विषय रामायण, महाभारत, भागवत आदि के मिथक कथाएँ हैं। इस शैली के चित्रों में न तो पूर्व प्रचलित शैलीओं की विशेषताएँ हैं और न ही काल्पनिक अभिव्यंजना। वस्तुतः इसके द्वारा बंगला लोक शैली का प्रचार-प्रसार ही हुआ।
द्राविड़ शैली :
यह शैली दक्षिण भारत में विकसित हुई। इसे दो भागों में बांटा जा सकता है।
पहला भाग पल्लव और चोल राजाओं के समय में और दूसरा भाग बहमनी सुल्तानों के समय में। दोनों भागों की अपनी विशेषताएँ और सौंदर्य है।
प्रथम भाग के चित्र गुफाचित्रों और दक्षिण भारत के प्रसिद्ध मंदिरों की कलाकृतियों से  प्रभावित हैं। इन चित्रों की रेखाओं में नुकीलापन और तरलता; आकृतिओं में विशेष लोच और गति; रंगों से पोल दिखाया जाना विशेष रूप से दर्शनीय हैं। वस्त्र, मुकुट और गहने का चित्रण विजयनगर के आरंभिक युग के डिजायनों से मेल खाते हैं।
दूसरे भाग के चित्रों में फारसी प्रभाव दिखाई पड़ता है। इस समय के चित्रों में ज़्यादातर के विषय तंत्र-मंत्र, ज्योतिष, शस्त्रविद्या, हस्तिशास्त्र आदि से लिए गए हैं। मनुष्यों के साथ पशु-पक्षियों और रागमाला के चित्र भी बनाए गए हैं। चित्रों में बहुत ही भव्यता है।
राजपूत शैली :
राजपूत शैली के चित्रों का निर्माण 14वीं शती से शुरू होकर 19वीं शती तक होता रहा। इस बीच भारतीय इतिहास की तरह ही यह शैली भी उथल-पुथल के दौर से गुजराती रही। इसकी कई उप शैलियाँ हैं:
·       मेवाड़ शैली
·       जयपुर शैली
·       बीकानेर शैली
·       मालवा शैली
·       किशनगढ़ शैली
·       कोटा-बूंदी शैली
थोड़े-बहुत स्थानीय प्रभाव के कारण ही ये उपशैलियाँ विकसित हुई हैं अन्यथा इनकी आत्मा एक ही है। इस शैली के सौंदर्य की अपनी विशेषता विशेषताएँ हैं। प्रारम्भ में इस शैली के चित्र विशुद्ध भारतीय थे। बाद में इन पर मुगल शैली का प्रभाव पड़ा।
राजपूत शैली के चित्रों में, लाल-हिंगुली रंग के हाशिये, बेल-बूटों की सजावट, सोने की आसाफाँ से युक्त उनकी सुनहरी खत, कमलों से भरे सरोवर, मेघ भरे आकाश में चमकीली सर्पाकार विद्युत रेखाएँ, पक्षियों से भरे निकुंज, मृग तथा मयूर, दीपमालाएँ, दास-दासियाँ, अलंकृत प्राचीरों से युक्त राजभवन की शोभा, स्त्रियों के विशाल नेत्र, पुरुषों के उन्न्त ललाट और आजानुबाहु, स्त्रियों के नितंब तक पहुंची केशराशि, पुरुषों के कानों तक पहुंची गुच्छेदार मूँछें और आभूषणों में मोतियों का सुंदर अंकन विशेष रूप से दर्शनीय हैं।
इस शैली के चित्रकारों ने शास्त्रीय निर्देशों के अनुसार नायिकाओं के विभिन्न रूपों को बहुत ही निपुणता से चित्रित किया है। विभिन्न भावों के प्रदर्शित करती हुई नायिकाओं की आँखें और सुगठित मुखाकृति, यौवन की खुमारी से मदहोश अंग-प्रत्यंग, कुँवारे वक्षस्थल पर झूलते आभूषण, आलता-रंजित हाथ-पैरों की शोभा आदि मिलकर मतिराम, केशव, देव, बिहारी और पद्माकर प्रभृति रीति कालीन कवियों की शृंगार कल्पनाओं को बेहद प्रभावशाली ढंग से दिखाती है, जिसे देखकर प्रेक्षक सहज ही मुग्ध हो जाता है। सिर्फ शृंगारिक ही नहीं बल्कि जौहर की वेदी पर आत्मबलिदान का कठोर संकल्प लिए नारी की गरिमामय छवि को भी कलाकारों ने बेहद प्रभावशाली ढंग से दिखाया है।
इसके अतिरिक्त राग-रागनी, ऋतुवर्णन, बरहमसा, ‘रामायण और महाभारत के आख्यानों, सूर की कविताओं के बाल्य, युवा, और भक्ति भाव को भी कलाकारों ने बहुत सुंदर ढंग से चित्रित किया है।
 राजपूत शैली के चित्र आज भी कलाकारों के प्रेरणास्रोत हैं क्योंकि उसके प्रत्येक अवयव से सौंदर्य प्रतिस्फुटित होता है। प्रभावशाली रंगों और रेखाओं का सहज प्रवाह कलाकारों का अभ्यास और अध्यवसाय की गंभीरता को बताता है।  
मुगल शैली :
भारत में मुग़लों की सत्ता स्थापित हो जाने पर भारतीय और ईरानी शैली के मिश्रण से सर्वथा नवीन शैली के रूप में मुगल शैली का जन्म हुआ। बाबर से लेकर शाहजहाँ तक फली-फूली यह शैली विश्व के महानतम शैलियों में शामिल है। राजपूत शैली से अलग यह शैली यथार्थवादी है जिसमें राजसी दृश्यों जैसे राजउद्यान,राजपरिवार, दरबार और युद्धों का ही ज्यादा चित्रण हुआ है। इस शैली के चित्र भी पोथियों पर बनाए गए लेकिन बाद में व्यक्तिचित्र और लघु चित्रों की अधिकता हो गई। लगभग सभी शहंशाहों ने अपने पूर्वजों के पोर्ट्रेट बनवाए।
इस शैली में ईरानी चित्रकला की सभी विशेषताएँ, रंग-रेखाओं का संयोजन, सुंदर सुलेखन आदि के साथ ही राजपूत शैलियों की कई विशेषताएँ जैसे भावों का निरूपण आदि दिखाई पड़ते हैं। वास्तव में चित्रों की बाहरी साज-सज्जा में ईरानी तो आंतरिक सज्जा राजपूत शैली के प्रभाव से की गई है। इस शैली के चित्रों में प्रकाश और छाया का अंकन हुआ है। यहीं से यह विशेषता राजपूत शैली में पहुँची। अपनी-अपनी विशेषताओं से राजपूत शैली और मुगल शैली ने एक-दूसरे को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है।   
मुग़ल शैली के चित्रों में आभूषणों और पोशाकों का बहुत बारीक और सुंदर चित्रण हुआ है। बेगमों की भड़कीली और झीने पोशाकों के भीतर से दिखता शारीरिक उभारों का चित्रण, चित्रों में विलासप्रियता के महत्व को रेखांकित करता है।
मुगलकला जहांगीर के समय में चरमोत्कर्ष पर थी लेकिन शाहजहाँ के काल में आकर इसकी उत्कृष्ठता घटने लगी। तब यह शैली थोड़ी परिवर्तित हो गई। इसमें रंगों की तड़क-भड़क, हस्तमुद्राओं का आकर्षण, अंग-प्रत्यंगों का अवास्तविक उभाड़, हूकूमत का दबदबा अधिक दिखाई पड़ने लगा। ऐसे चित्रों में रियाज की कमी और बारीकी का आभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।      
पहाड़ी शैली :
मुगल शैली के अवसान काल में जन्मी पहाड़ी शैली का स्वरूप मुगल और राजपूत दोनों शैलियों के साथ स्थानीय शैलियों के मिश्रण से बना। राजपूत शैली की भांति इस शैली में भी पौराणिक आख्यानों, नायिका भेदों और रागमला के चित्र बनाए गए हैं तो मुग़ल शैली की भांति व्यक्ति चित्र भी बने हैं। इस शैली की प्रमुख उपशैलियाँ है :
·       कांगड़ा-गुलेर शैली
·       बसौली शैली
·       गढ़वाल शैली
पहाड़ी शैलियाँ सौंदर्य के दृष्टि से अद्वितीय हैं। इसके चित्रों में रेखाओं के संयोजन अनुपम हैं जो सहज ही प्रेक्षक के मन में अपना प्रभाव अंकित कर जाते हैं। यही बात तूलिका में भी दिखाई पड़ती है। स्त्रियों और पुरुषों के आँखों की भावप्रवणता और मुख का लावण्य अनुपम है।
कांगड़ा शैली में में स्त्रियों के मर्यादित रूप पर विशेष ध्यान दिया गया है। चाँद सी गोल मुखाकृति, धनुषाकार आँखें, उँगलियों में लय तथा नजाकत, भरे अंग-प्रत्यंग, सुंदर और ऊंचे कुल का परिचायक वस्त्र-योजना, रहस्य को छुपानेवाले मुख का भाव किसी दूसरी शैली में विरले ही दिखाई पड़ते हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण कला समीक्षक जे॰सी॰ फ्रेंक ने इस शैली के चित्रों से शालीनता और संयम टपकने की बात कही है। वे कहते हैं, " इन्हें देखकर लगता है कि जादू के संसार में जा पहुँचे।"
बसौली शैली का रंग-विधान अपने ढंग का है। झीने वस्त्रों से झाँकते अंगों को दिखाने का उद्योग तो सभी चित्रकारों ने किया है लेकिन बसौली शैली के चित्रकारों ने उसपर विशेष ध्यान दिया है। उन चित्रकारों द्वारा गहरे पीले, हल्का हरा, और चोकलेटी रंग से पृष्ठभूमि का निर्माण मनोहर है। इस शैली में नाक, मुंह कान, कपोल, ललाट और शरीर-गठन का समुचित अंकन हुआ है।       
प्रकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण क्षेत्र में विकसित होने के कारण सभी पहाड़ी उपशैलियों में प्राकृतिक सुषमा का अपूर्व चित्रण हुआ है। चित्रों में गिरि-निर्झर, रंग-बिरंगे पुष्प, पक्षियों से गुंजायमान घाटियाँ, धरा-आकाश को मिलनेवाली मेघ-मालाएँ, उड़ती हुई बकुल पंक्तियाँ, शुक-सारस हाथी-शेर सभी का सौंदर्य जादुई प्रभाव डालने वाला है।
आधुनिक युग :
भारतीय चित्रकला में उन्नीसवीं शती की शुरुआत के साथ ही आधुनिक युग की शुरुआत मानी जाती है। आधुनिक युग की चित्रकला को किसी एक शैली के तहत समझना संभव नहीं हैं क्योंकि आधुनिक युग में वैचारिक स्वतन्त्रता, यूरोपीय प्रभाव, विभिन्न वादों का प्रभाव, रूढ़ प्रतीकों की उपेक्षा आदि के चलते सभी महत्वपूर्ण कलाकारों की अलग ही निजी शैली विकसित हुई लगती है। इसलिए केवल आधुनिक युग की चित्रकला का सौंदर्यशास्त्रीय अध्ययन एक वृहत प्रबंध की अपेक्षा रखता है। फिर भी इस युग की शुरुआत से लेकर वर्तमान समय तक चित्रकारों की कृतियों को देखकर उन्हें मोटे तौर पर चार वर्गों में में बांटा जाता है और उसी के आधार पर चित्रों के सौंदर्य के प्रति एक सामान्य धारणा बनाई जा सकती है।
आधुनिक युग के प्रारम्भिक चित्रकारों में अलग्री नायडू और राजा रवि वर्मा जैसे कलाकारों के बाद पहले वर्ग में आते हैं, टैगोर बंधुओं द्वारा जन्म दिया गया बंगला स्कूल के कलाकार। दूसरे वर्ग में आते हैं, बंगला स्कूल की परंपरा को नहीं अपनाने वाले कलाकार। तीसरे वर्ग में आते हैं, स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद जन्मी कला प्रवृतियों के कलाकार। चौथे वर्ग में आते हैं, अरूपवादी शैली से लेकर समसामयिक कलाकार।
बंगला स्कूल की कला पर यूरोपीय प्रभाव बहुत ज्यादा है। दूसरे वर्ग के कलाकारों नें अपनी कला में पाश्चात्य कला-मानों की अपेक्षा भारतीय संस्कृति को समन्वित करने पर बल दिया है। तीसरे वर्ग के कलाकारों की कलाओं में राष्ट्रीय भावना पर बहुत ज्यादा बल दिया गया है। चौथे वर्ग के कलाकार अपनी वैचारिक स्वतन्त्रता के सहारे निजी भावनाओं को ही ज्यादा अभिव्यक्त किया है।
आधुनिक काल की चित्राकला एक ओर अजंता और मध्यकालीन प्रवृतियों से जुड़ती दिखाई पड़ती है तो दूसरी ओर फ्रांस के प्रतीकवाद और रूप निरपेक्षता से। कोई कलाकार रंगों के संयोजन और तड़क-भड़क को महत्व देता है तो कोई प्रभावशाली रेखाओं और सादगी को।       
लोक शैलियाँ :
भारत में मुख्यधारा का समाज और आदिवासी समाज दोनों चित्रकला के मायने में बहुत समृद्ध हैं इसलिए यहाँ इसकी कई लोक शैलियाँ भी हैं। जैसे – मिथिला की चित्रकला, बंगाल का अल्पना, उड़ीसा का पत्ता चित्र दक्षिण की कालमेजुथु; आदिवासी समाज की सोहराई, गोंड चित्रकला, वर्ली चित्रकला आदि। अधिकांश शैलियाँ आनुष्ठानिक महत्व की हैं जो वर्तमान में सामान्य सरोकारों से जुडने लगी हैं। इन शैलियों के चित्रों के पारंपरिक विषय मिथकीय होते हैं जिनमें देवता, मनुष्य, दैत्य, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी से लेकर कीड़े-मकोड़े तक के चित्र बनाए जाते हैं। हरेक शैली में इनका अंकन संबन्धित क्षेत्र और मान्यताओं के अनुसार होता है।   
सभी लोक शैलियों में रेखाओं के सौष्ठव और आकृतियों की सुघड़ता से ज्यादा विषय और भावनाओं के अंकन पर ही बल दिया जाता है। इसके लिए चटख रंगों का सहारा लिया जाता है। सिर्फ वर्ली चित्रकला में ज्यामितिक रेखाओं से बनी आकृतियाँ और सादे रंगों के माध्यम से चित्र बनाए जाते हैं। कुछ शैलियों में बहुत कम सुघड़ता होती है तो कुछ शैलियाँ जैसे – पटचित्र, अपनी सुघता के चलते शास्त्रीय शैलियों के बेहद करीब दिखाई पड़ती है।

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